सत्य का तथ्य

April 1946

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मोटे तौर से जो बात जैसी सुनी है उसे वैसे ही कहना ‘सत्य’ कहा जाता है। किन्तु सत्य की यह परिभाषा बहुत ही अपूर्ण और असमाधानकारक है। सत्य एक अत्यंत विस्तीर्ण और व्यापक तत्व है। वह सृष्टि निर्माण के आधार स्तंभों में सब से प्रधान है। सत्य भाषण उस महान सत्य का एक अत्यन्त छोटा अणु है, इतना छोटा जितना समुद्र के मुकाबले में पानी की एक बूँद।

सत्य बोलना चाहिए, पर सत्य बोलने से पहले सत्य की व्यापकता और उसके तत्व ज्ञान को जान लेना चाहिए, क्योंकि देश काल और पात्र के भेद से बात को तोड़-मरोड़ कर या अलंकारिक भाषा में कहना पड़ता है। धर्म ग्रन्थों में मामूली से कर्म काण्ड के फल बहुत ही बढ़ा-चढ़ा कर लिखे गये हैं। जैसे गंगा स्नान से सात जन्मों के पाप नष्ट होना, व्रत उपवास रखने से स्वर्ग मिलना, गौदान से वैतरणी तर जाना, मूर्ति पूजा से मुक्ति प्राप्त होना, यह सब बातें तत्व ज्ञान की दृष्टि से असत्य हैं क्योंकि इन कर्मकाण्डों से मन में पवित्रता का संचार होना और बुद्धि का धर्म की ओर झुकना तो समझ में आता है, पर यह समझ में नहीं आता कि इतनी सी मामूली क्रियाओं का इतना बड़ा फल कैसे हो सकता है? यदि होता तो योग यज्ञ और तप जैसे महान साधनों की क्या आवश्यकता रहती? टके सेर मुक्ति का बाजार गर्म रहता। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या वह धर्म ग्रन्थ झूठे हैं? क्या उन ग्रन्थों के रचयिता महानुभावों ने असत्य भाषण किया है। नहीं उनके कथन में भी रत्ती भर झूठ नहीं है और न उन्होंने किसी स्वार्थ बुद्धि से असत्य भाषण किया है। उन्होंने एक विशेष श्रेणी के अल्प बुद्धि के अविश्वासी, आलसी और लालची व्यक्तियों को, उनकी मनोभूमि परखते हुए एक खास तरीके से अलंकारिक भाषा में समझाया है। ऐसा करना अमुक श्रेणी के व्यक्तियों के लिए आवश्यक था, इसलिए धर्म ग्रन्थों का वह आदेश एक सीमा में सत्य ही है।

बच्चे के फोड़े पर मरहम पट्टी करते हुए डॉक्टर उसे दिलासा देता है। बच्चे डरो मत, जरा भी तकलीफ न होगी। बच्चा उसकी बात पर विश्वास कर लेता है, किन्तु डॉक्टर की बात झूठी निकलती है। मरहम पट्टी के वक्त बच्चे को काफी तकलीफ होती है, वह सोचता है कि डॉक्टर झूठा है, उसने मेरे साथ असत्य भाषण किया। परन्तु असल में वह झूठ बोलना नहीं है।

अध्यापक बच्चों को पाठ पढ़ाते हैं, गणित सिखाते हैं समझाने के लिए उन्हें ऐसे उदाहरण देने पड़ते हैं, जो अवास्तविक और असत्य होते हैं, फिर भी अध्यापक को झूठा नहीं कहा जाता।

जिन्हें मानसिक रोग हो जाते हैं या भूत प्रेत लगने का वहम हो जाता है, उनका ताँत्रिक या मनोवैज्ञानिक उपचार इस प्रकार करना पड़ता है जिससे पीड़ित का वहम निकल जाय। भूत लगने पर भुतहे ढंग से उसे अच्छा किया जाता है यदि वहम बता दिया जाय तो रोगी का मन न भरेगा और उसका कष्ट न मिटेगा। तान्त्रिक और मनोविज्ञान के उपचार में प्रायः नब्बे फीसदी झूठ बोलकर रोगी को अच्छा करना पड़ता है, परन्तु वह सब झूठ की श्रेणी में नहीं ठहराया जाता।

राजनीति में अनेक बार झूठ को सच सिद्ध किया जाता है। दुष्टों से अपना बचाव करने के लिए झूठ बोला जा सकता है। दम्पत्ति अपने गुप्त सहवास को प्रकट नहीं करते। आर्थिक, व्यापारिक या अन्य ऐसे ही भेदों को प्रायः सच-सच नहीं बताया जाता है।

कई बार सत्य बोलना ही निषिद्ध होता है। काने को काना और लँगड़े को लँगड़ा कहकर संबोधन करना कोई सत्य भाषण थोड़े ही है। फौजी गुप्त भेदों को प्रकट कर देने वाला अथवा दुश्मन को अपने देश की सच्ची सूचना देने वाला भी अपराधी समझा जाता है और कानून से उसे कठोर सजा मिलती है। भागी हुई गाय का पता कसाई को बता देना क्या सत्य भाषण हुआ?

इस प्रकार बोलने में ही सत्य को मर्यादित कर देना एक बहुत बड़ा भ्रम है, जिसमें अविवेकी व्यक्ति ही उलझे रह सकते हैं। सच तो यह है कि लोग कल्याण के लिए देश, काल और पात्र का ध्यान रखते हुए नग्न सत्य की अपेक्षा अलंकारिक भाषण से ही काम लेना पड़ता है। जिस वचन से दूसरों की भलाई होती हो सन्मार्ग के लिए प्रोत्साहन मिलता हो वह सत्य है। कई बार हीन चरित्र वालों की झूठी प्रशंसा करने पर वे एक प्रकार की लोक में लाज बंध जाते हैं और स्वसंमोहन विद्या के अनुसार अपने को सचमुच प्रशंसनीय अनुभव करते हुए निश्चय पूर्वक प्रशंसा योग्य बन जाते हैं। ऐसा असत्य भाषण सत्य कहा जायगा। किसी व्यक्ति के दोषों को खोल खोलकर उससे कहा जाय तो वह अपने को निराश, पराजित और पतित अनुभव करता हुआ वैसा ही बन जाता है। ऐसा सत्य असत्य से भी बढ़कर निन्दनीय है।

भाषण संबंध सत्य की परिभाषा होनी चाहिए कि “जिससे लोक हित हो, वह सत्य और जिससे अहित हो वह असत्य है।” मित्र धर्म का विवेचन करती हुई रामायण उपदेश देती है कि, “गुण प्रकट अवगुणहि दुराबा” यहाँ दुराव को, असत्य को धर्म माना गया है। आपका भाषण कितना सत्य है कितना असत्य, इसकी परीक्षा इस कसौटी पर कीजिये कि इससे संसार का कितना हित और कितना अहित होता है। सद्भावनाओं की उन्नति होती है या अवनति, सद्विचारों का विकास होता है या विनाश। पवित्र उद्देश्य के साथ निस्वार्थ भाव से परोपकार के लिए बोला हुआ असत्य भी सत्य है और बुरी नीयत से, स्वार्थ के वशीभूत होकर पर पीड़ा के लिए बोला गया सत्य भी असत्य है। इस मर्म को भली भाँति समझकर गिरह बाँध लेना चाहिए।

वास्तविक और व्यापक सत्य ऊँची वस्तु है वह भाषण का नहीं, वरन् पहिचानने का विषय है। समस्त तत्वज्ञानी उसी महान तत्व की अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार व्याख्या कर रहे हैं। विश्व की रंग स्थली, उसमें नाचने वाली कठपुतलियाँ, नचाने वाली तंत्री तत्वतः क्या है, इसका उद्देश्य और कार्य कारण क्या है, इस भूल भुलैयों के खेल का दरवाजा कहाँ हैं, यह बाजीगरी विद्या कहाँ से और क्योंकर संचालित होती है? इसका मर्म जानना सत्य की शोध है। ईश्वर, जीव प्रकृति के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करके अपने को भ्रम बन्धनों से बचाते हुए परम पद प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ना मनुष्य जीवन का ध्रुव सत्य है। उसी सत्य को प्राप्त करने के लिए हमारा निरन्तर उद्योग होना चाहिए।

भगवान् वेद व्यास ने योगदर्शन 2।20 का भाष्य करते हुए सत्य की विवेचना इस प्रकार की है।

“परन्न स्वबोध संक्रान्तये वागुप्ता सा यदि न वंचिता भ्रान्ता व प्रतिपत्ति बन्ध्या वा भवेदिति। एथा सर्वभूतोपकरार्थ प्रवृत्ता, न भूतोपघाताय। यदि चैवमय्यभिधीयमाना भूतोपघात परैवस्यान्न सत्यं भवेत् पापमेव भवेत्।”

अर्थात्- ‘सत्य’ वह है चाहे वह ठगी, भ्रम, प्रतिपत्ति बन्ध्या युक्त हो अथवा रहित, जो प्राणिमात्र के उपकारार्थ प्रयुक्त किया जाय। न कि किसी प्राणी के अनिष्ट के लिए। यदि सत्यता पूर्वक कही गई यथार्थ बात से प्राणियों को अहित होता है- तो वह ‘सत्य’ नहीं। प्रच्युत सत्या भास ही है और ऐसा सत्य भाषण असत्य में परिणत होकर पाप कारक बन जाता है। जैसे कसाई के यह पूछने पर कि-गाय इधर गई हैं? यदि ‘हाँ, में उत्तर दिया जाय तो यह सत्य प्रतीत होने पर भी सत्य नहीं, प्रत्युत प्राणी घातक है। अन्य उपाय न रहने पर विवेकपूर्वक सत्कार्य के लिए असत्य भाषण करना ही सत्य भी है।

महाभारत ने सत्य की मीमाँसा इस प्रकार की है-

“न तत्व वचन सत्यं, ना तत्व वचनं मृषा।

यद्भूत हित मत्यन्तम् तत्सत्यमिति कथ्यते॥”

अर्थात्-बात को ज्यों की त्यों कह देना सत्य नहीं है और न बात को ज्यों की त्यों न कह देना असत्य है। जिसमें प्राणियों का अधिक हित होता हो वही ‘सत्य’ है।

‘सत्य’ को वाणी का एक विशेषण बना देना उस महातत्व को अपमानित करना है। सत्य बोलना मामूली बात है जिसमें आवश्यकतानुसार हेर-फेर भी किया जा सकता है। सत्य को ढूँढ़ना, वास्तविकता का पता लगाना, और जो-जो बात सच्ची प्रतीत हो उस पर प्राण देकर दृढ़ रहना, यह सत्य परायणता है। ‘यम’ की दूसरी सीढ़ी ‘सत्य बोलना’ नहीं सत्य परायण होना है। योग मार्ग के अभ्यासी को सत्यवादी होने की अपेक्षा सत्य परायण होने का साहस, निर्भीकता, और ईमानदारी के साथ प्रयत्न करना चाहिए।


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