धर्म का विश्वास

April 1946

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(श्री स्वामी शिवानन्द जी)

“धर्म” वह विश्वास है जिसके द्वारा मनुष्य ईश्वर को जानता है और उनकी पूजा करता है। यह क्लब (ष्टद्यह्वड्ढ) की मेज पर बैठ कर वाद-विवाद करने का विषय नहीं है। यह सत्य आत्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान और साधन है। यह मनुष्य की गंभीर आन्तरिक उत्कण्ठा (आकाँक्षा) की सिद्धि है। तुम अपने जीवन को प्रति-क्षण इसी की साधना में व्यतीत करो। इस सिद्धि के बिना जीवन वास्तव में मृत्यु है। अपने विचारों को शोधों (उनका सार निकालो)। अपने प्रयोजनों को परखो (या उनकी परीक्षा करो) स्वार्थभाव का त्याग करो। इन्द्रिय विकारों को शाँत करो। घमण्ड और अहंकार का नाश करो, प्रत्येक जीव से प्रेम करो तथा उसकी सेवा करो। अपने हृदय को शुद्ध करो। अपने मन के मल को साफ करो। सुनो, सोचो, एकाग्रचित्त करो और ध्यान करो, इस प्रकार आत्म सिद्धि प्राप्त करो।

हे सौम्य! प्रिय अविनाशी आत्मा! साहसी बनो, यद्यपि तुम बेकारी की अवस्था में भी हो, यद्यपि तुम्हारे पास भोजन के लिये कुछ भी नहीं हो, यद्यपि तुम्हारे शरीर पर केवल चिथड़े ही हों लेकिन तुम खुश रहो क्योंकि तुम्हारी मूल प्रकृति ‘सत-चित-आनन्द’ है। यह बाहरी जामा, यह नश्वर (मर्त्य) स्थूल कोष (अन्नमय कोष) अर्थात् शरीर, माया की मायावी सृष्टि है। इस माँस के पिंजरे से बाहर निकलो। तुम यह विनाशी (मर्त्य) शरीर नहीं हो। तुम अविनाशी अमृत आत्मा हो। तुम स्त्री, पुरुष भेद से रहित आत्मा हो। तुम वह आत्मा हो जो कि तुम्हारे हृदय के मन्दिर में बसती है। उसी की तरह तुम काम करो। उसी की तरह संवेदन (अनुभव) करो।


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