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April 1946

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निस्संदेह बालकों पर माता पिता के सच्चे प्रेम का असाधारण रीति से उत्तम प्रभाव पड़ता है। जिन्हें स्वस्थ, सुन्दर, दीर्घजीवी, तेजस्वी और सद्गुणी बालकों की इच्छा हो उन्हें दाम्पत्ति प्रेम की घनिष्ठता एवं पवित्रता अधिकाधिक मजबूत बनानी चाहिए।

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स्वार्थ, अहंकार और लापरवाही की मात्रा बढ़ जाना यही किसी व्यक्ति के पतन का कारण होता है।

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आत्मोन्नति का सर्वोपरि नियम यह है कि उचित को ग्रहण करने और अनुचित का त्याग करने के लिए सदा प्रस्तुत रहा जाय। जो पक्षपात की हठ न करके सदा सत्य की तलाश में रहता है वहीं उन्नति के शिखर पर चढ़ सकता है।

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आत्म संयम का आनन्द

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(श्री देशराज जी ऋषि, रुड़की)

अनियंत्रित असीम इच्छाओं के चंगुल में फँस जाने से मनुष्य जीवन की सुख शाँति नष्ट भ्रष्ट हो जाती है। क्योंकि जितनी इच्छाएं मन में उठती हैं, उनका पूरा होना असंभव है। उनकी जितनी ही पूर्ति की जाती है उतना ही वे और भी अधिक भड़कती हैं। इस आपाधापी के कारण चित्त में सदा क्लेश अशान्ति एवं उद्विग्नता बनी रहती है।

जिन्हें शान्तिमय जीवन बिताने की इच्छा है उनके लिए यह आवश्यक है कि असीम कामना एवं वासनाओं पर निमंत्रण करने का अभ्यास करें। साँसारिक और आत्मिक विकास के लिए उचित आवश्यक एवं धर्मयुक्त आवश्यकताओं की इच्छा करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त तामसिक एवं राजसिक, क्षणिक आकर्षक अन्त में दुखदायी तृष्णाओं को मनः प्रदेश में से बहिष्कृत करने का निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए। तभी जीवन में स्याथी शान्ति का होना संभव है।

मनुष्येत्तर योनियों में विषय-सुख की कमी नहीं है। मक्खी को देखिये उसे मनमाने भोज्य पदार्थों का स्वाद लेने की जितनी स्वतंत्रता हैं उतनी मनुष्य को कहाँ? कुत्ते जिस स्वतंत्रता से काम सेवन करते हैं उतना अवसर मनुष्य को नहीं है। अन्य योनियों में विषयों का आस्वादन करने की पर्याप्त सुविधा है। मनुष्य जीवन इससे ऊँचा है। उसमें बहुत बड़े आनन्द का समावेश है। जिसे परमानन्द कहते हैं। इस परमानन्द को प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का वास्तविक उद्देश्य है।

रामायण ने इसे और भी स्पष्ट कर दिया है।

नर तन पाय विषय मन देंहीं।

पलट सुधा ते शठ विष लेंहीं॥

एहि तन कर फल विषय न भाई।

स्वर्ग हु अल्प अन्त दुख दाई॥

विषय विकारों में जो सुख दिखाई पड़ता है वह भ्रम मात्र है। वास्तव में “काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं।” इनके सेवन से शारीरिक और मानसिक अधः पतन ही होता है। उस क्षणिक सुखाभाव के बदले में अमित हानि ही उठानी पड़ती है।

परमानन्द की प्राप्ति के लिए आत्म संयम सबसे पहली साधना है। काम, क्रोध लोभ, मोह के तूफान के कारण मनः क्षेत्र में भारी उथल-पुथल मची रहती है। इस अशान्त वातावरण में आत्मा अपने स्वरूप में स्थित नहीं हो पाती। हर घड़ी एक लालसा, चिन्ता, आशंका एवं उद्विग्नता और मानसिक शक्तियों का क्षरण होता रहता है। ऐसे व्यक्तियों का आत्म विकास पूरी तरह नहीं हो पाता। आत्मोन्नति के मार्ग पर तो वे ही व्यक्ति चल सकते हैं जिनके मस्तिष्क में शान्ति और स्थिरता है। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए आत्म संयम के लिए अनावश्यक तृष्णा एवं वासनाओं से बचने के लिए अध्यात्म मार्ग के साधकों को पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिए।

शारीरिक आत्म संयम के लिए ब्रह्मचर्य और उपवास की आवश्यकता है। जो गृहस्थ-वासना की दृष्टि से नहीं वरन् आवश्यक कर्त्तव्यों की पूर्ति के लिए काम सेवन करता है वह गृहस्थ होते हुए भी ब्रह्मचारी है। इसी प्रकार जो स्वाद का, चटोरेपन का, बहिष्कार करके शरीर रक्षा की दृष्टि से भोजन ग्रहण करता है वह उपविश्य है। इन दोनों व्रतों की धारण करने से मनुष्य कुछ ही समय में आत्म संयमी बन जाता है। और आत्मिक स्थिरता एवं शान्ति का परम सात्विक आनन्द प्राप्त होने लगता है।

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आसन से स्वास्थ्य-लाभ

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(ले.- वैद्यभूषण श्री श्रीनिवास जी शर्मा)

संसार में मनुष्यों के लिये शरीर तथा स्वास्थ्य का सुख, सबसे पहला सुख है। विद्या, धन प्रतिष्ठा, सन्तान तथा घर इत्यादि अनेकों पदार्थ मनुष्यों को मिले हुए हैं परन्तु यदि मनुष्य रोगी है तथा उसे शरीर का कोई सुख नहीं तो यह सब व्यर्थ है। इसे सब मानते हैं परन्तु इतने पर भी वह प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करते हैं तथा स्वयं ही रोग ग्रसित होते हैं।

औषधियों, डाक्टरों, वैद्यों तथा दवाखानों के देश में प्रचार करने से रोग दूर नहीं होते। जितना धन इनके प्रचार में व्यय किया जाता है, यदि इससे आधा भी स्वास्थ्य प्रचार में व्यय किया जाय तो आज ही रोग देश से भाग जावें। यदि आप अपने जीवन को नियमित बना लें तो रोग आपके पास भी न फटके। रोग केवल आपके दुश्चरित्रों का परिणाम है। आप जिह्वा के स्वाद में ऐसे-ऐसे पदार्थ खा जाते हैं जो आपके पेट का सत्यानाश कर देते हैं। आप स्वयं अनुभव करते हैं कि रोग प्रायः पेट के दर्द तथा अजीर्ण से उत्पन्न होते हैं इनको भगाने का सिद्ध उपचार आसन करना है। आप आसन के लाभ से भी परिचित हैं परन्तु फिर भी वह विष मिश्रित औषधियाँ सेवन करते हैं जो तत्काल लाभ तो दर्शाती हैं, परन्तु शरीर के अन्य भागों को हानिप्रद सिद्ध होती हैं। उतनी शीघ्रता से दवा लाभ नहीं करती, जितनी शीघ्रता से आसन से लाभ होता है यह केवल कथनमात्र ही नहीं, पाठकगण अनुभव करें। रोग तो ठीक हो ही जायगा, साथ ही स्वास्थ्य भी सदैव ठीक रहेगा। आसन करने की प्रवृत्ति उत्पन्न कीजिये तथा हृष्ट-पुष्ट बनिये। जो सहस्रों रुपये व्यय करने से भी आप स्वास्थ्य लाभ नहीं कर सकते, यह नियमित रूप से आसनों के द्वारा बिना खर्च प्राप्त कर सकते हैं। यहाँ कुछ उपाय लिखते हैं, आशा है पाठक इससे लाभ उठायेंगे।

1-पेट को आगे की ओर जितना फूला सकें फुलायें, फिर सिकोड़े। नाभि को रीढ़ की हड्डी के साथ लगायें और दोनों हाथों को पेट पर रखें, आप पीछे रहें तथा अँगुलियाँ सामने की ओर रखें। अब पेट को फिर फुलायें तथा बायें हाथ से दायें, दायें से पीछे की ओर दबाव डालें। इस प्रकार नियम पूर्वक करने से पेट के भीतर की गन्दी वायु निकलती रहेगी पेट के दर्द को इस रीति से शीघ्र लाभ होगा।

2- Atleution खड़े होकर श्वास को बिल्कुल बाहर निकाल कर पसली के दोनों पासों को भीतर खींचने का प्रयत्न करें। नाभि का भाग ऊपर की ओर उभरा रहे, दोनों हाथों को घुटनों पर रख लें तथा इस रीति से झुक कर कुछ बार श्वास को भीतर बाहर करें।

3-आपने कुत्तों तथा बिल्ली को अँगड़ाई लेते देखा होगा ठीक उसी प्रकार हो जाइये, हाथों को सीधा आगे फैलाइये, पृथ्वी पर ठोड़ी लगाइये तथा टाँगे लम्बी करके घुटने अलग-अलग रखिये, इस प्रकार हाथ 3-4 बार ऊपर को करके फिर अँगूठों को पकड़िये तथा कमर जितनी झुक सके झुकाइये।

4-पृथ्वी पर बैठ कर पैरों को आगे फैलाइये फिर दोनों हाथों से दोनों पाँव के अँगूठों को पकड़ लीजिये तथा सिर को दोनों अँगूठों के बीच में रखिये, पेट को भीतर की ओर खींचिये, ऊपर की ओर उभार बिल्कुल न हो इस दशा में कुछ देर तक बैठे रहिये। आरम्भ में तो यह आसन कठिन प्रतीत होगा परन्तु धीरे-धीरे सरल हो जायगा।

उपरोक्त आसन पेट के समस्त रोगों को दूर करने वाले हैं। प्रथम तो कम से कम 1 सप्ताह तक केवल पाँच मिनट तक कीजिये फिर धीरे-धीरे बढ़ाते चलें तथा आधे घण्टे तक करें। इससे आँतों के समस्त विकार दूर होकर पाचनशक्ति तीव्र हो जायगी, भूख लगेगी परन्तु याद रखें जब भूख लगे तो दूध, घी अथवा फल खायें मसालेदार पदार्थ न खायें नहीं तो हानि होगी। यदि सम्भव हो तो भोजन के उपरान्त छाछ अवश्य पी लिया करें।

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मिथ्या व्यवहार की मूर्खता

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(श्री पं. ललिता प्रसाद मिश्र, मंडला)

मिथ्या आहार वे हैं जिनकी आवश्यकता शारीरिक स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन के लिए नहीं होते हुए भी मनुष्य जिह्वा के स्वाद के प्रलोभन में आकर व्यवहार करता है या यों कहिये कि वास्तविक क्षुधा और शारीरिक स्वास्थ्य के स्वाद से जिस भोजन का निषेध है वह आहार मिथ्या है। इसी प्रकार जिस व्यवहार की आवश्यकता साँसारिक जीवन में नहीं है उस का बर्ताव करना मिथ्या व्यवहार है। ये मिथ्या व्यवहार हैं-असत्य भाषण, छल-कपट, बाह्याडम्बर और दगाबाजी इत्यादि।

जिस प्रकार बिना पूर्ण भूख लगे और शारीरिक स्वास्थ्य का ध्यान न रखते हुए किया हुआ भोजन शरीर में नाना प्रकार के रोग उत्पन्न कर देता है जो अन्त में दुःसाध्य और असाध्य होकर शरीर को बलहीन एवं नष्ट कर डालते हैं, उसी प्रकार जिन व्यवहारों के बिना ही साँसारिक कार्य सुगमता और स्थायी सुचारु रूप से चलते हैं उनको कार्य रूप में लाने से मानसिक रोग पैदा हो जाते हैं। वे मानसिक प्रवृत्तियों को अधःपतन की ओर अग्रसर करके दुःसाध्य और असाध्य बन जाते हैं।

छल, कपट, दंभ, धूर्तता, मायाचार, धोखेबाजी एवं असत्यता युक्त व्यवहार से कुछ लोग क्षणिक सफलता प्राप्त कर लेते हैं पर थोड़े ही समय में उस मायाचार का भण्डा फूट जाता है और लोगों पर से उसका सारा विश्वास उठ जाता है। ऐसे अविश्वस्त व्यक्ति यत्र-तत्र मारे फिरते हैं। विश्वास के अभाव में उनकी सभी योग्यताएं धूलि में मिल जाती हैं। सब लोग उससे बचते, दूर रहने एवं चंगुल में न फंसने का प्रयत्न करते हैं। गहरा और सच्चा सहयोग उसके साथ स्थापित करने को कोई भी तैयार नहीं होता।

इस संसार में कोई भी मनुष्य अपने आप अकेला, अपने बलबूते पर किसी कहने लायक सफलता को प्राप्त नहीं कर सकता। इसके लिए दूसरों के सहयोग की आवश्यकता होती है। मनुष्य एक दूसरे के सहयोग से आगे बढ़ते, ऊँचे उठते और सफल होते हैं। परन्तु यह सहयोग उन्हें ही मिलता है जो इसके पात्र हैं। ठग, धोखेबाज, बेईमान, झूठे एवं खुदगर्ज आदमी ऐसे सहयोग को नहीं पा सकते हैं। उनके विरोधी तथा दुश्मन तो अनेक होते हैं पर सच्चा मित्र एक भी नहीं होता। यही कारण है कि “चोरों के महल खड़े नहीं देखे जाते” की उक्ति सर्वत्र चरितार्थ होती देखी जाती है। अनेक बार वे बेईमानी से छोटी मोटी सफलताएं प्राप्त कर लेते हैं पर उनकी कमाई सच्चे सहयोगियों के अभाव में यों ही नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है और वे आगे नहीं बढ़ पाते।

चटोरे आदमी क्षणिक स्वाद के आकर्षण में आँख मूँदकर भक्ष-अभक्ष खाते हैं और कुछ ही समय बाद उस अन्धा धुन्धी के फल स्वरूप उत्पन्न हुए रोगों का कष्ट भुगतते हैं, इसी प्रकार दुःस्वभाव के व्यक्ति अनुचित अनीति को अपना कर अपनी तथा कथित चतुरता के बल पर कुछ लाभ उठा लेते हैं परन्तु वह लाभ अनेक गुना हानियों को उत्पन्न करता है, समाज में उसकी प्रतिष्ठा नष्ट हो जाती है, लोगों की निगाह में एक पतित नीच बन जाता है, जिसके साथ बुराई की है वे तो शत्रु होते ही हैं, साथ ही उस अनीति युक्त व्यवहार की बात सुनने वाले भी उसके शत्रु बन जाते हैं। अनेकानेक शत्रुओं से उसे नाना विधि हानियाँ पहुँचती हैं। आत्म ताड़ना, राज दंड एवं ईश्वरीय दंड इससे भी बढ़कर है। उनसे मिलने वाले दुखों की तुलना में, अनीति से प्राप्त हुआ लाभ धूलि के बराबर है। मिथ्याचारी अपने को चतुर कहते हैं पर यथार्थ में वे ही सबसे बड़े मूर्ख हैं।

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हम गलती क्यों करते हैं।

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(ले.- श्री रामकिशनजी आर्य, ग्वालियर)

मनुष्य गलती पर गलती करता है। क्यों? क्या इसलिए कि उसे इस बात का पता नहीं लगता कि वह गलती कर रहा है या नहीं? तो फिर किसी गलती को जब कोई मनुष्य बार-बार दोहराता है तो इसका यही अर्थ होता है कि उस मनुष्य में नैतिक बल की न्यूनता है। मनुष्य के कोई गलती कर चुकने पर उसके मस्तिष्क में एक सूक्ष्म प्रतिक्रिया होती है। यही सूक्ष्म प्रतिक्रिया प्रकृति की ओर से मनुष्य के लिए आत्म सुधार का सन्देश-रूप होती है। जो मनुष्य गलती कर चुकने पर भी इस सन्देश को खुले कानों से सुन लेता है वह संभल जाता है और जो प्राणी इस संदेश को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देने का आदी हो जाता है वह निरन्तर अवनति के गर्त की ओर अग्रसर होता जाता है। आइए, जरा विचार करें कि यह प्रतिक्रिया किस रूप में हमारे सामने आती है। मान लो किसी व्यक्ति ने स्वाद के फेर में पड़कर एक रोटी भूख से अधिक खाली। जैसे ही वह खाना खाकर उठता हैं उसे अपना पेट भारी मालूम होने लगता है। थोड़ी देर बाद डकारें भी आने लगती हैं और वह आदमी यह मानने के लिए बाध्य हो जाता है कि इस समय चौके में उसने एक भूल की है जिसका परिणाम उसके सामने है। स्वभावतः ही वह इस बात का निश्चय करता है कि अब हुआ सो हुआ आगे वह ऐसी गलती नहीं करेगा और आधी रोटी की भूख रखकर ही चौके से उठ आया करेगा। ऐसा निश्चय करते ही उसके हृदय पर से एक बोझ सा हट जाता है और वह कुछ शान्ति का अनुभव करता है। उसे अपनी डकारें कम होती मालूम पड़ती हैं। परन्तु अगले दिन जब वह भोजन करने बैठता है तो पहले दिन वाले प्रलोभन उसे आ घेरते हैं। “आज आलू की सब्जी खूब स्वादिष्ट बनी है।” “एक दो दिन अधिक खाने से कहाँ सेहत को नुकसान पहुँचता है,” “कल से नियम बना लूँगा” आदि भाँति-भाँति के कुतर्क उसके हृदय में उठते हैं और उसके नैतिक बल की दीवार को हिला देते हैं। मनुष्य फिर गिरता है और इसी प्रकार गिरता चला जाता है।

यह क्षणिक प्रतिक्रिया प्रत्येक छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी गलती के उपरान्त होती है। अनावश्यक वीर्य-पात से अधिक भयंकर भूल शायद ही कोई होगी। जब काम का वेग आता है तो मनुष्य अन्धा हो जाता है और भूल कर बैठता है। तदुपरान्त उसके मस्तिष्क की जो दशा होती है वह अनुभव करने के ही योग्य है। कहते हैं कि मनुष्य का वैराग्य दो ही जगह उत्पन्न होता है- एक तो किसी जलती हुई चिता को देखकर और दूसरे सम्भोग क्रिया के पश्चात् सम्भोग क्रिया कर चुकने पर मनुष्य के मस्तिष्क पर धक्का सा लगता है और वह अनुभव करता है मानो किसी ने उसे आकाश से उठा कर पृथ्वी पर पटक दिया हो। इतने पर भी मनुष्य दूसरे दिन फिर उसी भूल को दुहराता है।

हम प्रतिदिन छोटी-बड़ी असंख्य गल्तियाँ करते हैं। यदि हम क्षणिक प्रतिक्रिया के रूप में आने वाले प्रकृति के सन्देश को ध्यान पूर्वक सुन सकें और उसे स्थायी रूप दे सकें, तो अवश्य ही हम भूलों से बच सकते हैं और अपने जीवन का निर्माण कर सकते हैं। क्रोध करना, समय बरबाद करना किसी के दिल की मनसा, वाचा कर्मणा ठेस पहुँचाना, पर निन्दा करना, झूठ बोलना, स्त्रियों को गिद्ध दृष्टि से देखना, आदि सैंकड़ों ही भूलें हम दिन में करते होंगे। एक-एक का सुधार करने से ही मनुष्य एक दिन महात्मा बन जाता है और अपना तथा दूसरों का सच्चा उपकार कर सकता है।

हम बहुत सी भूलें उस समय करते हैं जब हम अपने आपको अकेला पाते हैं। अतः परमपिता परमात्मा को सर्वव्यापी और सर्वत्र हाजिर मानने वाले मनुष्य के लिए गलती करने का बहुत कम अवसर रह जाता है। वह यही सोचता है कि परमात्मा मेरी भूलों को देखता है। वह हर समय मेरे साथ रहता है, अतः मुझे कोई गलती नहीं करनी चाहिये, इस तरह आस्तिक मनुष्य की गल्तियाँ करने की बहुत कम सम्भावना है जबकि नास्तिक मनुष्य इस ओर से आजाद रहता है। इसका पूरा-पूरा फल हर समय अपने माता-पिता, भाई-बहिन, स्त्री-बच्चे, मित्र अथवा अन्य कुटुम्बी जन किसी को साथ रख कर भी प्राप्त किया जा सकता है।

आज तक जो भी व्यक्ति महात्मा और महापुरुष बने हैं वे अपनी इन्हीं छोटी-छोटी भूलों की ओर विशेष ध्यान देकर इस पद पर पहुँचे हैं। हममें से प्रत्येक व्यक्ति महात्मा बन सकता है, केवल थोड़ा सा सतर्क रहने की आवश्यकता है।

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स्वप्नदोष कैसे रुके?

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(श्री स्वामी सत्य देव जी परिव्राजक)

जवान आदमी का यदि महीने में एक दो बार वीर्य गिर जाय तो अधिक घबड़ाने की बात नहीं उसे निम्नलिखित नियमों पर ध्यान रखना उचित है-

1- रात्रि को देरी से भोजन नहीं करना चाहिए यदि हो सके तो हल्का भोजन करना चाहिये।

2- चाय काफी और तम्बाकू आदि नशीली चीजें नहीं पीनी चाहिए। सोने से पहले गर्म दूध पीना भी वीर्य को गिरा देता है।

3- रोज अच्छी प्रकार ठण्डे पानी से स्नान करना चाहिये।

4- उपस्थेन्द्रिय का पर्दा पीछे कर उसे ठण्डे जल से नित्य धोना चाहिये।

5- संध्या के समय यदि शौच जाने की आदत हो तो उससे कभी चूकना उचित नहीं। शौच न जाकर भोजन कर लेना बड़ी हानि करता है। रात को उस पाखाने की गर्मी से वीर्य गिर जाता है।

6- बहुत पेट भर किसी वस्तु को नहीं खाना चाहिये, रात्रि को खास कर पेट भर भोजन वर्जनीय है।

7- माँस भोजन सर्वथा त्याग देना चाहिये। और इस बात का ध्यान रखना उचित है कि कब्ज किसी प्रकार से न हो, नहीं तो शौच जाते समय वीर्य गिरेगा।

8- शान्त कमरे में बिस्तरे पर अकेले सोना उचित है।

9- रात्रि को पेशाब लगे तो फौरन उठकर करना उचित है। आलस्यवश उसे रोके रखने से वीर्यपात हो जाता है।

10- सोने से पूर्व एक घंटा शुद्ध विचारों का मनन कीजिये। इससे बुरे स्वप्न रुक जाते हैं।

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माँस खाने से मनुष्य में पशुता

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(लेखक-मदनमोहन गुगलानी शास्त्री)

पहली बैठक

उस घने जंगल में, जहाँ जाने के विचार मात्र से मनुष्य का हृदय काँप उठे, वह सभा हो रही थी।

सभापति भी था, मन्त्री भी और सभासद भी। सभापति वनराज ‘सिंह’ एक ऊँची शिला पर विराज रहे थे। बाकी सब-के-सब नीचे ही थे -कँटीली जमीन पर। सभा पति कह रहे थे-

“मैं नहीं समझ सकता इसका कारण क्या है? मनुष्य-एक नन्हा-सा दुर्बल प्राणी-अपने से कई गुना अधिक बलशालियों पर, हम पशुओं पर, शासन करे, हुकुम चलाये और जब भी चाहे हमें मार गिराये, यह शर्म की बात है। मुझे दया आती है उन घोड़ों पर, जो मनुष्य को पीठ पर बिठाये लिये फिरते हैं, उन बैलों पर जो मनुष्य के लिए सैकड़ों मन बोझ खींचा करते हैं और उन हाथियों पर जो मनुष्य की एक लोहे के लकुटिया के डर से बिल्ली बने रहते हैं। क्या है मनुष्य को हक कि वह गाय, भैंस और बकरियाँ के बच्चों के मुँह से छीन कर, उनका दूध दूहा करे? क्या मनुष्य में शक्ति इन सबसे अधिक है? यदि नहीं, तो हम उससे दबे क्यों? आज परस्पर वैर भाव छोड़कर आप सब यहाँ एकत्रित हैं। क्या कोई ऐसा उपाय नहीं सोचा जा सकता जिससे मनुष्य के हाथों छुटकारा पाया जा सके, और हम फिर से स्वतन्त्रता पूर्वक जंगलों व पहाड़ों में घूम सकें?”

वह चुप हो गये।

मन्त्री ‘शृंगाल’ देव विनीत भाव से बोले-

‘महाराज आपके प्रताप से सब कुछ सम्भव है। पर, क्षमा करें, मनुष्य को नीचा दिखा सकना आसान काम नहीं। यह मनुष्य का बल नहीं जो घोड़ों, बैलों व हाथियों तक को दबाये हुए है एवं वनराज पर वार करने में भी नहीं हिचकता। यह तो है मनुष्य की बुद्धि। इसी बुद्धि के सहारे वह सीना अकड़ा कर चला करता है। जब तक मनुष्य में बुद्धि है, वह काबू में नहीं आ सकता। मनुष्य को नीचा दिखाने के लिये पहले उसकी बुद्धि का नाश आवश्यक है।”

“हमें तुम्हारी बात पसंद है,” सभापति बोले, “तुमने ठीक ही कहा। हमें आज ऐसे उपाय सोचने होंगे जिनसे मनुष्य की बुद्धि नष्ट की जा सके। इसमें यदि हम सफल हों तो पौ बारह हैं। मित्रो, क्या तुम इस बारे में कोई राय दे सकते हो?”

सब चुप रहे। दो-तीन मिनट कोई भी बोला नहीं। अन्त में झिझकते हुए ‘ऋषभ’ देव खड़े हुए।

“हजूर,” वह बोले, “मेरे समझ में तो मनुष्य की बुद्धि आसानी से नष्ट की जा सकती है। यदि मनुष्य में पर्याप्त पशुता भरदी जाय, तो उसकी बुद्धि अवश्य ही नष्ट होती जायगी। इसके लिये हमें बलिया देनी होंगी। हमें स्वयं मनुष्य के आहार का बड़े-से-बड़ा अंग बन जाना होगा। तभी सफलता सम्भव है। कई-कई पशु खा चुकने वाले मनुष्य में उन सब पशुओं की पशुता का संचार क्योंकर न होगा? मनुष्य एक बड़ा पशु बन जायगा और पशुता के ऐसे भयंकर कार्य करेगा, जिन्हें देखकर पशु भी दंग हुए बिना न रह सकेंगे। और”

“ठीक है, ठीक है”, सभापति बीच में ही बोल पड़े, “तुम्हारी ही बात ठीक है। मनुष्य पशु-माँस का आहार करता है, पर थोड़ा। अब यदि पशु उसकी रुचि इस ओर बढ़ा दें, उसका जीवन केवल पशु-माँस-पर ही निर्भर बना दें, तो मनुष्य धीरे-धीरे मनुष्यता छोड़ पशुता की ओर बढ़ता जायगा। इसके लिये जाओ, जैसे भी हो, मनुष्य को तरह-तरह के प्रलोभन दो। अपनी जाति के लिये जान की परवा मत करो। भेड़ें, हिरन, घोड़े, गौवें, बैल सभी छोटे से लेकर बड़े तक, मनुष्य का आहार बनने का प्रयत्न करो, अपनी-अपनी पशुता पर्याप्त रूप में उसमें भर दो। भगवान पशुपति हमारी सहायता करेंगे। क्या आप सब तैयार हैं?”

“तन-मन से, तन-मन से,” चारों ओर से आवाज आयी। सभा विसर्जित कर दी गयी।

दूसरी बैठक

बहुत समय बाद फिर से वही सभा हुई। सभापति नये थे, मन्त्री नये थे, सभासद नये थे। पर अपने पुरखाओं के चलाये हुए कार्य को वे भूले नहीं थे। मन्त्री कार्य-विवरण सुना रहे थे-

“हजारों, लाखों ने जान की परवाह नहीं की। आग की भीषण लपटों में जलाये जाने के कष्ट को नहीं सोचा। छोटे-बड़े हर प्रकार के पशुओं ने भाग लिया है। पक्षियों ने भी बड़ी सहायता की। आशा से अधिक उत्साह दिखाया जा रहा है इस काम में सफलता भी हमें आशा से अधिक मिल रही है। मनुष्य दिन-प्रति दिन बुद्धि खो रहा है और तो और, वह अपने आपको भी एक पशु (डार्विन की, की थ्योरी के अनुसार) मानने लगा है। यह इस बात का प्रमाण है कि पशुता उसमें घर करती जा रही है। शेर-शेर के, बैल-बैल के, घोड़ा-घोड़े के खून का प्यासा नहीं। पर मनुष्य-मनुष्य के खून का प्यासा बन चुका है। पशुता उसमें वह रंग दिखा रही है कि आकाश के देवता भी विस्मित होते होंगे।”

“संतोषजनक!” सभापति बोले “यह सब कुछ सन्तोषजनक है। पर हमें अभी यत्न छोड़ नहीं देना चाहिये। इससे वह फिर होश में आ जायेगा। बुद्धि उसकी ठिकाने आ लगेगी काम जारी रखो और जारी रखो और जारी रखो, तब तक जबतक मनुष्य का नाम तक बाकी है। मनुष्य की सत्ता ही मिट जाने दो। सैकड़ों पशु खाने वाला मनुष्य सैकड़ों पशुओं जैसे कार्य कर रहा है तो हजारों पशु खा चुकने पर वह क्या कुछ न कर गुजरेगा। जब उसकी रग-रग में हजारों पशुओं का खून दौड़ेगा तो वह अपने निकट बंधुओं के खून से प्यास बुझाने में नहीं हिचकेगा। इस द्वन्द्व को पैदा हो जाने दो। मनुष्यों को आपस में ही लड़ मर जाने दो। लगे रहो, पशुपति हमारी रक्षा करें, लगे रहो।”

“हम निरन्तर जान पर खेलते रहेंगे।” सभी ने कहा। सभापति चल दिये। सभी उठ उठकर चल दिये।

तीसरी बैठक

और भी सदियाँ बीत गयीं। स्थान वही रहा सभापति बदल गये, सभासद बदल गये। सभा फिर से हुई। सभापति बोल रहे थे-

“आज सौभाग्य का दिन है। सदियों पूर्व अपने पुरखाओं द्वारा चलाये गये कार्य की सफलता को हम अब निकटतम ही देख रहे हैं। हमारा सबसे बड़ा शत्रु आज गले पर स्वयं छुरी चला रहा है। खून की प्यास मनुष्य में व्यक्तिगत नहीं रही। जातियों की जातियाँ, देशों के देश, इस खून की प्यास से आकुल हो उठे हैं। वह उस कलह की आग में जल रहें हैं जो उनकी भस्म तक को जला देगी। मनुष्यों में वह युद्ध प्रारम्भ हो चुका है जिसे उन्हीं की भाषा में ‘विश्व-युद्ध’ कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि मनुष्य के रहने का कोई स्थान ऐसा नहीं जो इस युद्ध की लपेट से बच रहा हो। हर नया सूर्य लाखों नयी मनुष्य की लाशों को देखता है। मनुष्य का सारा ऐश्वर्य शून्यता में लीन हो रहा है। इससे अधिक सुखद समाचार और हो ही क्या सकता है? पर अभी वह दिन आना है जब पशु माँसाहारी मनुष्य नरमाँस से भूख मिटायेगा। माँ बच्चों को बड़े छोटों को मारकर खा जायेंगे। मनुष्यता का सारा दम्भ मिट्टी में मिल जायगा। उस दिन को आने दो, हाँ आने दो। अपना यत्न मत छोड़ो। भगवान पशुपति हमारे मनोरथ पूरे करें। हाँ अब भी कहीं मनुष्य चेत गये और उन्होंने माँस खाना छोड़ दिया तो हमारी कामना सफल न होगी। अस्तु

“भगवान पशुपति हमारे मनोरथ पूरे करें,” यही सबने दोहराया। सभा एक बार फिर विसर्जित हुई।

-’कल्याण’

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हँसने से स्वस्थता की प्राप्ति

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स्वास्थ्य जगत में यह उक्ति बहुत ही महत्व पूर्ण है कि-’हँसो और मोटे बनो,” हम देखते हैं कि हँसमुख स्वभाव वाले मनुष्य प्रायः मोटे होते हैं। वे जरा ही बात पर हँस पड़ते हैं। खिल-खिलाकर हँसने से पाचन क्रिया पर आश्चर्य-जनक प्रभाव पड़ता है। भूख लगती है और अन्न का परिपाक ठीक प्रकार हो जाता है। समस्त शरीर के नाड़ी तन्तुओं और स्नायुओं पर हँसने की अच्छी प्रतिक्रिया होती है। मुँह, गरदन, छाती और उदर के बहुत से उपयोगी स्नायुओं की आवश्यक हो जाती हैं जिससे भीतरी अवयव प्रफुल्लित और सुदृढ़ होते हैं। माँस पेशियाँ और ज्ञान तन्तु चैतन्य होकर रक्त संचालन का भाग सुगम कर देते हैं, फलस्वरूप त्वचा पर चमक आ जाती है और तेज तथा लालिमा की शरीर में वृद्धि होने लगती है।

जोर के साथ हँसने से फेफड़ों में एक प्रकार का तूफान आता है जिससे उनमें भरी हुई गंदी हवा खुल कर साफ हो जाती है। क्षय आदि के कीटाणु जो किसी कोने में छिपे पड़े रहते हैं, इस तूफान की हलचल में अपने स्थान से हट कर साँस के साथ बाहर निकल जाते हैं। साथ ही फेफड़ों का अच्छा व्यायाम हो जाता है। उनके मजबूत होने से अनेक रोगों की जड़ कट जाती है।

कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि हँसोड़ स्वभाव रखने के कारण हमारी गंभीरता नष्ट हो जायगी और लोग हमें हल्का आदमी समझेंगे। परन्तु यह एक मिथ्या भ्रम है। उदास, चिड़चिड़े, मुर्दना का सा मुँह लेकर बैठे हुए व्यक्ति दूसरों पर कोई अच्छा असर नहीं डालते। उदास और गुम-सुम अकड़े हुए बैठे रहने से रस और रक्त बनने की क्रिया मंद हो जाती है और कलेजे में विषैले पदार्थ जमा होने लगते हैं, तिल्ली और कलेजे का व्यायाम करने की एक मात्र क्रिया हँसना ही है। जिन्हें तिल्ली या यकृत में खराबी के रोग हों वे कुछ दिनों, दिन में दो, तीन बार खिलखिला कर हँस लिया करें तो उन्हें बिना एक पैसा खर्च किये उन महाव्याधियों से छुटकारा मिल सकता है।

आनन्दमय जीवन के अनेक साधनों में हँसने का स्वभाव अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। बड़ी बड़ी विपत्तियों को हँसते-हँसते मनुष्य सहज ही पार कर सकता है, जब कि गंभीर मुद्रा बनाये बैठे रहने वाला भावुक व्यक्ति, छोटी-मोटी आपत्तियों से ही किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाता है। हँसने की आदत प्रपंची, कपटी, स्वार्थी और कंजूस मनुष्यों को प्राप्त नहीं हो सकती जीवन को हँसी खेल समझने वाले मस्त तबियत के व्यक्ति सदा प्रसन्न रहते हैं और उनके होठों पर मधुर मुसकान अठखेलियाँ करती रहती हैं। जिन्हें हँसना प्रिय हो उन्हें प्रसन्न मुख और विनोदी स्वभाव वाले साथियों का सहचर्या प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। जिन्हें सौभाग्यवश ऐसे मित्र प्राप्त हैं उन्हें एक स्वर्णिम अवसर प्राप्त है। इसके विपरीत जो लोग भय आतंक, प्रतिबंध, ताड़ना के कठोर घेरे में कैद हैं जिन्हें स्वतंत्रतापूर्वक हँसने की सुविधा नहीं, उन्हें एक प्रकार दुर्भाग्यग्रस्त कैदी ही समझना चाहिए।

मुर्दा दिल, दरिद्र और शोक ग्रस्त लोगों को प्रायः सच्ची हँसी नहीं आती इसलिए वे प्रायः दुर्बल पीतवर्ण और निस्तेज देखे जाते हैं। मुस्कान में एक ऐसा आकर्षण है जो दूसरों के हृदय को जीतने में जादू का काम करता है। इतना ही नहीं, इस दैवी आकर्षण से सुख सौभाग्य और आरोग्य भी खिंच कर उस व्यक्ति के पास चले आते हैं। हमें नित्य जी खोल कर हँसना चाहिए इसका स्वास्थ्य पर बड़ा अच्छा असर होता है।

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