देवताओं के अनुग्रह का मार्ग

April 1946

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भगवान् शंकराचार्य का कथन है-

“दुर्लभं त्रयमेषैतद् देवानुग्रह हेतुकम्।

मनुष्यत्वं, मुमुक्षत्वं महा पुरुष संश्रयः॥”

अर्थात् संसार में तीन वस्तुएं दुर्लभ हैं। और यही देवताओं के अनुग्रह का हेतु है। ये तीन वस्तु यह हैं - 1. मनुष्यत्व, 2. मुमुक्षत्व और 3. श्रेष्ठ पुरुषों की संगति।

देव पूजन में रुचि रखने वाले वे उपासक जो देवताओं की प्रसन्नता अनुग्रह एवं कृपा की आकाँक्षा करते हैं या उनको किसी प्रकार का वरदान प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं, उन्हें उपरोक्त श्लोक पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है। इस श्लोक में प्रकट कर दिया गया है कि देवताओं का अनुग्रह होने से क्या वस्तु मिलती है या किस वस्तु से देवता अनुग्रहीत होते हैं।

साधारण वस्तुएं सभी मनुष्य आम तौर से प्राप्त करते और उनका उपभोग करते हैं किन्तु ऐसी दुर्लभ वस्तुएं जो आसानी से नहीं मिलती, मनुष्य देवताओं की कृपा से प्राप्त करने की इच्छा करता है। साथ ही देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उसे दुर्लभ वस्तुएं भेंट करनी पड़ती हैं। जप, तप अनुष्ठान, बलिदान आदि द्वारा मनुष्य बहुत कष्ट सहकर साँसारिक प्रिय वस्तुओं को त्याग कर उपासना करता है तब देवताओं को प्रसन्न करता है। वह दोनों प्रकार की वस्तुएं क्या हैं इसका भगवान् शंकराचार्य ने स्पष्ट शब्दों में विवेचन कर दिया है। वे कहते हैं कि देवताओं के अनुग्रह के तीन हेतु हैं 1. मनुष्यत्व 2. मुमुक्षत्व 3. सत्संग। इन तीन तत्वों में ही देवता ओत-प्रोत हो रहे हैं। इनका प्राप्त होना और देवताओं का प्राप्त होना बिलकुल एक ही बात है। इन दोनों का इतना घनिष्ठ सम्बन्ध हैं कि जहाँ एक होता है वहाँ दूसरा निश्चय ही उपस्थित रहता है। जिस मनुष्य पर देवता प्रसन्न हों तो उसे संसार की दुर्लभ संपदाएं 1. मनुष्यत्व 2. मुमुक्षत्व 3. सत्संग, अवश्य प्राप्त होंगे अथवा यों कहिए कि जिसमें यदि तीनों बातें होंगी उस पर देवताओं की प्रसन्नता का प्रत्यक्ष दर्शन किया जा सकता है। अब देखना है कि यह तीनों तत्व क्या हैं-

मनुष्यत्व- अपने तुच्छ स्वार्थों की अवहेलना करके सम्पूर्ण समाज के लाभ को ध्यान में रखकर विचार और कार्य करना मनुष्यत्व का लक्षण है। जिसे सम्पूर्ण समाज के लाभ हानि में अपना हित अनहित दिखाई पड़ता है, वह मनुष्य है। सत्य, प्रेम और न्याय को जो धर्म का आधार मानता है, संसार में सुख शान्ति की वृद्धि करना जिसका जीवन लक्ष्य है, जो इस धर्म लक्ष्य के लिए जो जीवन भर तप करने का व्रत लेता है वह मनुष्य है। न किसी के हक को दबाना न किसी के हक को दबने देना मनुष्यता की निशानी है।

मुमुक्षत्व- मोक्ष की स्वतन्त्रता की छुटकारे की इच्छा करना मुमुक्षत्व है। पाप के, माया के, स्वार्थ के, वासना के बन्धन के छुड़ा कार आत्मा को सत्य के, पुण्य के, परमार्थ के स्वर्ग में ले जाने की तीव्र आकाँक्षा रखने वाला मुमुक्ष है। अपने को महान, उच्च, परम बनाना- आत्मा को परमात्मा में लीन कर देना है। विश्व के कण-कण में परमात्मा की झाँकी करना, जीव भाव को छोड़ कर परमात्मा भाव की दृष्टि प्राप्त कर लेना परमात्मा को प्राप्त कर लेना है। मुमुक्ष व्यक्ति सदा इसी प्रकार की मुक्ति और परमात्मा प्राप्ति के लिए निरन्तर तीव्र प्रयत्न करने वाले होते हैं।

सत्संग- शरीर को श्रेष्ठ पुरुषों की मित्रता समीपता, दृष्टि, कृपा एवं रोशनी में रखना, मन को सत् उचित बातें सुनने, कहने और सोचने में लगाये रहना, आत्मा में सत्य प्राप्ति की उत्कट लालसा भरे रहना सत्संग है। जिन साधनों से आत्मा मन और शरीर सत् तत्व के समीप रहें वे सब सत्संग हैं।

पाठको! यदि आप अपने मन में देवताओं को आमंत्रित करना चाहते हो तो इन तीन कठिन वस्तुओं का ध्यान रखो। यही ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं जो इन तीनों को प्राप्त कर लेता है उसे इसी जीवन में देव लोक का अक्षय आनन्द प्राप्त हो जाता है।


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