परकाया प्रवेश करने की आवश्यकता कब होती है, यह पहले समझाया जा चुका है। अपने स्वार्थ साधन के लिये कदापि उसका उपयोग न करना चाहिये। पूर्ण रूप से निःस्वार्थ होकर दूसरों के हित की कामना से किसी पर प्रभाव डालना चाहिये। जैसा अवसर और परिस्थिति हो उसके अनुसार यह क्रिया भी तीन अवस्थाओं में की जाती है। जाग्रत अवस्था में, सुप्त अवस्था में, निद्रित अवस्था में। जो लोग तुम्हारे ऊपर पूर्ण विश्वास करते हैं, सम्मान की दृष्टि से देखते हैं और आज्ञायें पालन करने के लिये उद्यत रहते हैं, उनको जाग्रत अवस्था में प्रभावित किया जा सकता है। जो मध्यम श्रेणी के हैं, तुम्हारे साथ साधारण संबंध रखते हैं आदतों में मामूली तौर पर जकड़े हुए हैं किन्तु आस्तिक स्वभाव के हैं, धर्म और ईश्वर पर विश्वास करते हैं, उन्हें निद्रित करके प्रभावित करना चाहिये। जो अत्यन्त ही उद्दण्ड, क्रूर स्वभाव के हैं, अहंकार जिनकी नस-नस में भरा हुआ है, हर किसी को झिड़क देना या अपमान कर देना जिनके बांये हाथ का खेल है, सुधार की बात कही जाय तो उल्टे लड़ पड़ें ऐसे लोगों के साथ सुप्त अवस्था में प्रयोग करना उपयोगी होता है। पांच वर्ष से कम के बालकों को भी सुप्त अवस्था में ही प्रभावित करना चाहिये, क्योंकि इनके मानसिक तन्तु अविकसित होने के कारण जागृत अवस्था में प्रभाव को उचित मात्रा में ग्रहण नहीं कर सकते। उन्हें अवस्था के अनुसार जाग्रत अवस्था में ही प्रभावित किया जा सकता है। तीन वर्ष से अधिक उम्र के बच्चों को कई बार जागृत अवस्था में प्रभावित करने पर अधिक लाभ होते देखा गया है। पांच से लेकर पंद्रह वर्ष की उम्र के बालकों पर तो जागृत अवस्था में ही प्रयोग करना चाहिये।
जागृत अवस्था में परकाया प्रवेश करने के लिये कोई एकान्त स्थान चुनना चाहिये। यदि तुम अपनी एक पूजा की कोठरी अलग नियत कर लो और उसमें आदर्श सफाई रखते हुए नित्य पूजा-पाठ, आध्यात्मिक अभ्यास करते रहो और उसमें बाहर के अन्य व्यक्तियों का अधिक आना-जाना न रहे तो कुछ ही दिनों में उसका वातावरण बड़ा शान्तिदायक और प्रभावशाली बन जायगा, इस कोठरी में यह साधन बड़ी उत्तमता से हो सकता है। किन्तु यदि ऐसा कोई स्थान तुम्हारा नियुक्त किया हुआ न हो तो किसी पवित्र स्थान के एकान्त भाग में आसन बिछाना चाहिये। आप दो व्यक्तियों के अतिरिक्त तीसरा कोई व्यक्ति वहां नहीं होना चाहिये। यदि वह बालक है, या संरक्षकों की अध्यक्षता में है और तुम उसके संरक्षक नहीं हो तो यह आवश्यकीय है कि उस बालक के संरक्षकों की अनुमति पाने के उपरान्त ही कार्य करो क्योंकि कई बार कुदरती तरीके से उसके स्वास्थ्य आदि में गड़बड़ी हुई जैसी कि चाहे किसी के स्वास्थ्य में चाहे कभी हो सकती है, तो मूर्ख अभिभावक उसका दोष प्रयोक्ता पर मढ़ने तक का दुस्साहस करने लगते हैं। यद्यपि इन प्रयोगों में शारीरिक या मानसिक हानि पहुंचने जैसी कुछ भी बात नहीं है।
प्रयोग के लिये दोनों को ही पवित्र होकर बैठना चाहिये। उसी समय स्नान और शुद्ध वस्त्र धारण की व्यवस्था हो सके तो बहुत उत्तम है, अन्यथा दोनों को हाथ मुंह धोकर और कम से कम वस्त्र पहन कर बैठना चाहिये। प्रयोक्ता का आसन कुछ ऊंचा रहना चाहिये। यदि दोनों के बैठने के लिये कोई चौकी या कुर्सी का प्रबन्ध हो तो एक कुछ ऊंची और दूसरी कुछ नीची होनी चाहिये। अन्यथा प्रयोक्ता किसी पत्थर या तख्ते आदि पर आसन बिछावे और उसके लिये साधारण भूमि पर आसन रहे। सूर्य उदय-अस्त से एक घण्टा पूर्व से लेकर एक घण्टा पश्चात तक का समय इस कार्य के लिये उचित है। आवश्यकता पड़ने पर दोपहर और अर्धरात्रि के तीन-तीन घण्टे अर्थात् साड़े दस से लेकर 1:30 बजे तक का समय प्रयोग किया जा सकता है। प्रयोक्ता का मुंह सूर्योदय के उपरान्त दक्षिण की ओर तथा सूर्य अस्त के बाद उत्तर की ओर रहना चाहिये। दोनों के बीच में एक हाथ से अधिक का अन्तर न हो।
प्रयोक्ता का चेहरा इस समय बहुत ही शान्त और गम्भीर होना चाहिये। चंचलता या उत्सुकता का एक भी लक्षण न हो। बिल्कुल शान्त मुद्रा के साथ आरम्भ में सिद्ध अपने साधक के भृकुटि मध्य पर दृष्टि जमावे। आधी मिनट तक उसे भ्रू भाग पर दृष्टिपात करने के उपरान्त निगाह को सिर की और ऊंची उठा के और उसके सिर की ओर अच्छी तरह देखें इसके उपरान्त कान, नाक, आंखें, ठोड़ी, गरदन, हाथ, धड़, पैर आदि के ऊपर नीचे धीरे-धीरे दृष्टिपात करे। देखने का ढंग गम्भीर मुद्रा के साथ ऐसा होना चाहिये मानों किसी खोई हुई चीज को तलाश कर रहे हों और जब वह वहां नहीं मिली तो आगे तलाश करने के लिये निगाह को बढ़ा रहे हो। इस प्रकार सिर से लेकर पांव तक देखने में पांच मिनट लगने चाहिये। जब पैरों पर दृष्टि पहुंच जाय तो फिर पैरों की तरफ से उल्टे मत चलो वरन् पुनः सिर से पैर तक दृष्टिपात करो। इस प्रकार तीन से पांच बार तक का दृष्टिपात पर्याप्त होता है। इतने समय तक साधक को तुम्हारी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमानी चाहिये। यदि छोटा बालक है तो उस पर इस प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है। वह अपने आप आसन पर बैठ भी नहीं सकेगा, इसलिये वह किसी दूसरे की गोद में होना चाहिये और जिसकी गोद में हो, उसके सब अंग कपड़े से ढके हुए हों, ताकि प्रयोक्ता की नजर बालक को छोड़कर उस पर भी न पहुंच जाय, क्योंकि ऐसा करने से उसकी शक्ति बंट जायगी और बालक पर कम प्रभाव पड़ेगा।
दृष्टिपात करते समय प्रयोक्ता को अपने मन में प्रेम की भावनाओं को अधिकाधिक चैतन्य करना चाहिये, मानों साधक के ऊपर दृष्टि मार्ग द्वारा प्रेम की अमृत वर्षा हो रही है। प्रेम वह रहस्यमय दिव्य रस है जो एक हृदय से दूसरे को जोड़ता है, यह एक अलौकिक शक्ति सम्पन्न जादू भरा मरहम है, जिसे लगाते ही सब कोढ़, खाज अच्छे हो जाते हैं और बेचैनी के स्थान पर शान्ति प्राप्त होती है। ऐसा विचार करो, मानों उस व्यक्ति के लिये तुम्हारे हृदय में प्रेम उमड़ा पड़ रहा है और अपनी भुजा पसार कर उसे प्रेम पाश में आबद्ध कर रहे हो। यह प्रेममयी भावनायें जितनी ही उच्चकोटि की होंगी, उतनी ही अधिक उनमें शक्ति होगी। यह शक्ति सम्पन्न विचार किरणें अज्ञात रूप से उस व्यक्ति के गुप्त अन्तःकरण में प्रवेश करेंगी और उसे खींच कर तुम्हारे विचारों की छाया में लाने का प्रयत्न करेंगी। प्रेम भावनाओं के साथ दृष्टिपात करने से साधक को बड़ी शान्ति मिलती है, अपने में कुछ प्रवेश हुआ वह अनुभव करता है और कभी-कभी तो उसे कंपकंपी आती या रोमांच खड़े होते तक दिखाई देते हैं।
करीब पन्द्रह मिनट दृष्टिपात करने के उपरान्त उससे आधे समय तक मार्जन करना चाहिये। मार्जन करने की विधि यह है कि बांये हाथ की हथेली पर जितना आसानी से आ सके, उतना शुद्ध जल भर लो। गंगा जल मिल सके तो और भी उत्तम है। इसमें दाहिने हाथ की तर्जनी और मध्यमा उंगलियों के पोरुए डुबाओ और इस मन्त्र को मन ही मन गुनगुनाओ।
''तुम अनुभव करने लगे हो कि वह परम आत्मा तुम्हारी आत्मा में व्यापक है और यह शरीर ईश्वर का पवित्र मन्दिर है। तुम्हारा हृदय सर्वदा सत्यनिष्ठ और पवित्र है। अब तुम जाग उठे हो और दुनिया के सामान्य क्षुद्र विचारों से ऊपर उठ गये हो। छोटी-छोटी क्षुद्र बातों में अपना अमूल्य जीवन नष्ट नहीं करते। तुमने अपने जीवन का लक्ष्य निश्चित कर लिया है। अब संसार के प्रलोभनों में नहीं खिंच सकते। मानसिक पीड़ायें अब तुम्हें नहीं सता सकतीं। काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर षडरिपु अब तुम्हें व्यथित नहीं कर सकते। तुम्हारे हृदय की समस्त बुरी वृत्तियां अब नष्ट हो चुकी हैं और शुभ वृत्तियां जागृत हो रही हैं। सच्चिदानन्द परमात्मा की कृपा से तुम्हारा जीवन और पवित्र बन रहा है।''
इस मन्त्र को मन ही मन गुनगुनाते रहो। होठ हिलते रहने से साधक पर अच्छा असर होता है। मन्त्र पूरा होते ही उंगलियों को उठाकर सात बार जल के छींटे उसके ऊपर मारने चाहिये। इस प्रकार प्रत्येक बार मन्त्र पूरा होने पर जल के मार्जन तीन बार देने चाहिये। अन्त में उसके सिर पर आगे की ओर (पीछे से आगे की ओर नहीं) हाथ फिराकर प्रयोग को समाप्त कर देना चाहिये।
साधक यदि प्रयोग के लिये स्वयं इच्छुक है और उस पर विश्वास करते हुए कार्य में मदद देता है तो उसे उपरोक्त मन्त्र को प्रयोग काल में स्वयं ही दुहराते रहना चाहिये। इसमें जहां 'तुम' या 'तुम्हारे' शब्दों का उपयोग हुआ है, वहां 'मैं' या 'मेरे' करके साधक अपने लिये एक मन्त्र बना सकता है और अन्य समय में गायत्री आदि मन्त्रों की तरह जप कर सकता है। इस मन्त्र जप से बहुत ही अल्प समय में उसके अन्दर उत्तम वृत्तियां जागृत होती हैं।
किन्तु ऐसे साधक जो स्वेच्छा से इस प्रयोग में शामिल नहीं होते, उनकी इच्छा के विरुद्ध बुलाया जाता है, उनके लिये प्रयोक्ता को बहुत कठिनाई होती है। ऐसे मामलों में उसे बहुत बुद्धिमानी के साथ बातचीत करके अपने साधक को इस बात पर जमाना पड़ता है कि वह इस लाभदायक प्रयोग की विरोध न करे इसमें उसकी किसी प्रकार की कोई हानि नहीं है। इस प्रयत्न की बात हर हालत में गुप्त रखनी चाहिये, क्योंकि जब दूसरों को ऐसा पता चलता है कि इसमें अमुक दोष हैं जिनके लिये यह उपाय किया जा रहा है तो वह दोष उस व्यक्ति के मित्रों को मालूम हो जाते हैं और यह मनुष्य का साधारण स्वभाव है कि वह अपने दोषों को प्रकट होने में लज्जा और दुख मानता है। जो लोग साधक की निन्दा किया करते हैं उन्हें भी प्रयोक्ता को समझा देना चाहिये कि ऐसा करने से आदमी बेशर्म बन जाता है तथा और अधिक उद्दण्डता करने पर उतारू हो जाता है। इसलिये पिछली बातों पर ध्यान न देकर अब उसे बढ़ावा देने में ही लाभ है। कई बार दूसरों के मुंह अपनी प्रशंसा सुनकर लोग अपने को बड़ा मानने लगते हैं और उसी बड़प्पन की रक्षा करने की उन्हें एक लाज सी पड़ जाती है। इसलिये इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि उसके दोषों की चर्चा न करके गुणों पर प्रकाश डालो और उस व्यक्ति को उत्साहित करो कि अपने दिव्य गुणों की अधिकाधिक उन्नति करे।
अनेक अवसर ऐसे भी आते हैं जब इस प्रकार नियमित रूप से निरन्तर अभ्यास कर बैठने की सुविधा नहीं होती। कमी-कमी किसी सफल प्रयोक्ता को रास्ता चलते किसी आदमी को शक्ति दान देने की आवश्यकता प्रतीत होती है, तो वह इतनी सब सुविधाओं की प्रतीक्षा नहीं कर सकता, वह चाहे जिस व्यवस्था में प्रेम पूर्ण दृष्टिपात करता है और जल भरा मार्जन के स्थान पर उसके शरीर से अपना दाहिना हाथ स्पर्श करके काम चलाता है। ऐसे तत्कालीन प्रयोग भी बहुत लाभदायक होते देखे गये हैं। कई व्यक्तियों पर एक साथ प्रयोग करना भी प्रयोक्ता की बढ़ी हुई शक्ति के ऊपर निर्भर है।