दूसरों पर प्रभाव के लिये नेत्रों का जितना उपयोग होता है उतना शरीर के अन्य किसी अवयव का नहीं होता। श्रृंगार रस के कवियों ने नेत्रों को बाण की उपमा दी है और उसकी चोट बाण से भी गहरी बताया है। मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में आंखें एक प्रकार के दर्पण हैं, जिनमें आदमी के सारे भले-बुरे स्वभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर हो जाते हैं। छोटे बालक जिन्हें भाषा या लोक व्यवहार का ज्ञान नहीं होता, आंखें देखकर ही प्रेम या अप्रेम को ताड़ लेते हैं। हर प्रकार की भावनाओं के चित्र आंखों में खिंच जाते हैं। हंसने-रोने, सुखी या दुखी होने, प्रेम, उपेक्षा, तिरस्कार, क्रोध आदि के मनोभावों को आंखों के द्वारा तुरन्त ही ताड़ा जा सकता है। राजा नल की पत्नी दमयन्ती को जब बधिक ने सताया तो रानी के नेत्रों से एक ऐसी शक्ति निकली कि बधिक सर्प हो गया। जब कामदेव ने अत्याचार करना आरम्भ कर दिया, तो योगिराज शंकर ने क्रोध से अपने नेत्र खोले, फलस्वरूप ‘‘चितवत काम मयेउ जर छारा।’’
परकाया प्रवेश की साधना के लिये दो प्रमुख साधन हैं, (1) दृष्टिपात (2) एकाग्रता। दृष्टिपात साधन और एकाग्रता शक्ति है। पहलवान को दांव पेच और बल दोनों की जरूरत होती है, पण्डित को बुद्धि और विद्या की, व्यापारी को कुशलता और पूंजी की जिस प्रकार आवश्यकता है, उसी प्रकार इस विषय के जिज्ञासु के लिये बेधक दृष्टि और विचार बल की आवश्यकता का होना आवश्यकीय है।
इस अभ्यास में बेधक दृष्टि प्राप्त करने और विचारों की एकाग्रता करने के साधन बताये जायेंगे, इन दोनों के सामंजस्य से दूसरों को प्रभावित करने का कार्य ठीक प्रकार से हो सकता है। अकेली बेधक दृष्टि ऐसी है जैसे बढ़िया बन्दूक और अकेला विचार बल ऐसा है, जैसे कारतूस। दोनों अलग-अलग रहने पर सिद्धि नहीं मिलती किन्तु जब दोनों आपस में मिल जाते हैं और चलाने वाला बुद्धिमान होता है तो निशाना ठीक जगह पर लगता है और इच्छित फल की प्राप्ति हो जाती है।