परकाया प्रवेश

दृष्टिपात का अभ्यास (त्राटक)

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पूर्व ही यह बताया जा चुका है कि शरीर की विद्युत शक्ति कई भागों में विभक्त होकर अलग-अलग दिशाओं में काम कर रही है। इस क्रिया में ऐसे साधन की जरूरत है जिससे शरीर और मन की विद्युत शक्तियां अधिक से अधिक मात्रा में एकत्रित होकर एक स्थान पर लग जायं। त्राटक हठयोग का एक साधन है। इसके द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों में बहने वाली बिजली को सब ओर से खींचकर एक स्थान पर लाने का प्रयत्न किया जाता है। त्राटक का अभ्यास जैसे-जैसे बढ़ता जाता है, वैसे ही वैसे नेत्रों की प्रभावकारिणी शक्ति बढ़ती जाती है। 
एक हाथ लम्बा एक हाथ चौड़ा एक चौकोर कागज लेकर उसके बीच में रुपये के बराबर एक काला गोल निशान बनाओ। स्याही एक-सी, कहीं कम ज्यादा न हो। इसके बीच में सरसों के बराबर सफेद निशान छोड़ दो और उस सफेदी में पीला रंग भर दो। इस कागज को किसी स्थान पर टांग दो और तुम उससे चार फीट दूरी पर इस प्रकार बैठो कि वह काला गोला तुम्हारी आंखों के बिल्कुल सामने सीध में रहे। यह साधना का कमरा ऐसा होना चाहिये, जिसमें न अधिक प्रकाश रहे और न अधिक अंधेरा। न अधिक सर्दी हो न अधिक गर्मी। पाल्थी मारकर मेरुदण्ड को सीधा रखते हुए बैठो और काले गोले के बीच में जो काला निशान है, उस पर दृष्टि जमाओ। चित्त की सारी भावनायें एकत्रित करके उस बिन्दु को इस प्रकार देखो मानो तुम अपनी सारी शक्ति नेत्रों द्वारा उसमें प्रवेश कर देना चाहते हो। ऐसा सोचते रहो कि तीक्ष्ण दृष्टि से इस बिन्दु में छेद हुआ जा रहा है। कुछ देर इस प्रकार देखने से आंखों में दर्द होने लगेगा, तब अभ्यास को बन्द कर दो। 
अभ्यास के लिये प्रातःकाल का समय ठीक है। नित्य कर्म से निवृत्त होकर नियत स्थान पर बैठना चाहिये और चित्त एकाग्र करके साधन आरम्भ करना चाहिये। पहले दिन देखो कि कितनी देर में आंखें थक जाती हैं और पानी आ जाता है। पहले दिन जितनी देर अभ्यास किया प्रतिदिन उसमें एक या आधी मिनट बढ़ाते जाओ। इस प्रकार दृष्टि को स्थिर करने पर तुम देखोगे कि उस काले गोले में तरह-तरह की आकृतियां पैदा होती हैं। कभी वह सफेद रंग का हो जायेगा, तो कभी सुनहरा। कभी छोटा मालूम पड़ेगा, तो कभी बड़ा। कभी चिनगारियां सी उड़ती दिखाई देंगी तो कभी बादल से छाये हुए प्रतीत होंगे। इस प्रकार वह गोला आकृति बदलता रहेगा। किन्तु जैसे-जैसे दृष्टि स्थिर होना शुरू होगी, वैसे ही वैसे यह गोला भी स्थिर होता जायगा और उसमें दीखने वाली विभिन्न आकृतियां बन्द हो जायेंगी और बहुत देर देखते रहने पर भी गोला ज्यों का त्यों बना रहेगा। 
त्राटक करने का चित्र और भी कई प्रकार से बनाया जाता है। एक-एक फुट लम्बे-चौड़े चौकोर दर्पण के बीचो-बीच चांदी की एक चवन्नी भर काले रंग के कागज का गोल टुकड़ा काटकर चिपका दिया जाता है। उस कागज के मध्य में सरसों के बराबर एक पीला बिन्दु बनाते हैं। इस अभ्यास को एक मिनट से शुरू करते हैं और प्रतिदिन एक-एक मिनट बढ़ाते जाते हैं। जब इस तरह दृष्टि स्थिर हो जाती है, तब और भी आगे का अभ्यास शुरू किया जाता है। दर्पण पर चुपके हुए कागज को छुड़ा देते हैं और उसमें अपना मुंह देखते हुए अपनी बांयी आंख की पुतली पर दृष्टि जमा लेते हैं और उस पुतली में बड़े ध्यानपूर्वक अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं। 
तीसरी विधि मोमबत्ती या दीपक की लौ पर दृष्टि जमाने की है। दीपक घृत का या शुद्ध सरसों के तेल का होना चाहिये। मोमबत्ती की रोशनी भी ठण्डी समझी जाती है। 
चौथी विधि प्रातःकाल के सूर्य पर दृष्टि जमाने की है और पांचवीं चन्द्रमा पर त्राटक करने की है। इनमें से इच्छानुसार चाहे जिसे किया जा सकता है, पर हमें अनुभव से पहला साधन ही सुलभ और निरापद प्रतीत हुआ है। 
अभ्यास पर से जब उठो, तो गुलाब जल से आंखों को धो डालो। आंख धोने के लिये एक कांच की प्याली लो, उसमें गुलाब जल भरकर आंखों में लगाना चाहिये और पानी में आंख खोलकर उन्हें स्नान कराना चाहिये, जिससे उसकी उष्णता शान्त हो जाय और शीतलता प्राप्त हो। अभ्यास से उठने के बाद कोई पौष्टिक शीतल वस्तु खा लेना भी आवश्यक है। दूध या दही की लस्सी, मक्खन, मिश्री, फल, शर्बत आदि कुछ सेवन कर लेने से शरीर की बढ़ी हुई गर्मी शान्त हो जाती है। 
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विचारों की एकाग्रता का अभ्यास (नाद) 
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मन की शक्तियों को धारण करने का प्रमुख स्थान मस्तिष्क है। स्मरण शक्ति, कल्पना शक्ति, मेधा शक्ति, निर्णायक शक्ति आदि अनेक मानसिक शक्तियां मस्तिष्क में भरी हुई हैं। शरीर और मन का उचित अभ्यास कर लेने से मनुष्य में बहुत दैवी गुण आ जाते हैं और वह अलौकिक काम करने लगता है। मस्तिष्क की क्रियाशीलता और उत्पादक शक्ति इतनी तीव्र है कि एक क्षण के सौवें भाग के लिये भी वह बिल्कुल शान्त होकर नहीं बैठता। एक सैकण्ड में विचारों की कई-कई लहरे मस्तिष्क में से उठा करती हैं। जैसे खौलते हुए पानी की देगची में हर क्षण भाप उठती रहती है। ऐसी ही क्रिया मस्तिष्क में होती रहती है मस्तिष्क की वे असंख्य लहरें मुंह की खौलती देगची की भांति उड़कर इधर-उधर छितरा जाती हैं और उस अद्भुत शक्ति का कुछ भी प्रयोग नहीं होता। 
भारत के प्राचीन तत्त्ववेत्ता ऋषियों ने शरीर और मन का सूक्ष्म अनुसंधान करके यह जाना था कि मन शक्तियों का खजाना है। यह एक प्रकार का बैताल है, जिससे यदि कोई ठीक तरह काम ले सके, तो बड़े-बड़े महान कार्यों को क्षण भर में पूरा करके रख देता है। ऐसा बहुमूल्य खजाना हमारे अज्ञान प्रमाद के कारण लुटता रहे यह तो बड़े दुःख की बात है। ऋषियों ने जब समस्त विश्व की शक्तिशाली शक्तियों को खोज डाला और उन्हें मन से अधिक बलवान कोई वस्तु न मिली तो उन्होंने लोक और परलोक सम्बन्धी सम्पूर्ण उन्नति के लिये मन का आश्रय टटोला। सर्व सम्मति से निश्चय किया गया कि—‘‘योगाश्चित्त वृत्ति निरोधः’’ चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। इसमें संदेह की कुछ भी बात नहीं है। पैदावार को फिजूल खर्च न किया जाय और हिफाजत से खर्च किया जाय तो कुछ ही समय में एक भारी खजाना जमा हो जाता है। करोड़ों टन पानी की भाप रोज हमारी आंखों के सामने उड़ती रहती है, उसका उपयोग कुछ भी नहीं होता, किन्तु थोड़े से पानी की भाप को सुव्यवस्थापूर्वक रोक कर ऐंजिन चलाने के काम में लगाया जाता है तो उससे रेलगाड़ियां दौड़ती हैं, बड़े-बड़े कल-कारखाने चलते हैं तथा अन्य सैकड़ों काम होते हैं। 
जिस प्रकार शारीरिक शक्तियों को एक स्थान पर जमा कर लेने से सरकस आदि के खिलाड़ी विचित्र करतब करते हैं, उसी प्रकार मन की शक्तियों का संयम करने वाले, योगी ऐसे अलौकिक काम करते हैं, जिस पर इस नास्तिकता के युग में भी आश्चर्य करना पड़ता है। उच्च आध्यात्म वेत्ता ऋषियों की बात जाने दीजिये। भौतिक मन का थोड़ा-सा संयम करने वाले वैज्ञानिकों को ही ले लीजिये, रेल, तारे, रेडियो, वायुयान, टेलीविजन आदि कितने-कितने करिश्मे थोड़े ही दिन के प्रयत्न से उपस्थित कर दिये हैं। इन कार्यों को बिना मन का संयम किये, बिना विचारों को एक स्थान पर जमा किये कदापि नहीं कर सकते थे। जब शरीर और मन दोनों की ही शक्ति एकत्रित होने लगे और उन दोनों को मिलाकर किसी काम में लगाया जाय, तब तो एक और एक मिलकर ग्यारह हो जाने की बात चरितार्थ होती है। 
यह बताया जा चुका है कि मस्तिष्क में से हर सैकण्ड कई-कई बार चैतन्यता की सूक्ष्म लहरें उठती हैं। उनको व्यर्थ नष्ट होने से रोककर किसी ऐसे काम पर लगाने का प्रयत्न करना जिससे शक्ति प्राप्त हो, यही बुद्धिमानी है। पानी के झरने अत्यन्त प्राचीन काल से यों ही बहते चले आ रहे हैं। उनका कुछ उपयोग नहीं होता, किन्तु बुद्धिमान लोग उनकी धार को एक पहिये से सम्बन्धित करके एक पनचक्की बना लेते हैं। मन की धारा को चाहे जिस प्रकार के भले-बुरे काम या अभ्यास में लगाकर उससे वैसा ही काम लिया जा सकता है और लेने वाले लेते हैं। 
हमारा मन्तव्य अपने अभ्यासियों को आध्यात्मिकता की उच्च भूमिका की ओर चढ़ाने का है, इसलिये उसी के उपयुक्त अभ्यास भी बतावेंगे। आत्मिक विकास और पुण्य परमात्म सत्ता की ओर अग्रसर होना यह दैवी मार्ग है। इसमें खतरा नहीं है और जितना कुछ थोड़ा-बहुत आगे बढ़ सकेंगे, लाभ ही होगा। 
पाठकों को मालूम होगा कि स्थूल शरीर और उसकी मोटी इन्द्रियों के सम्पर्क में ही स्थूल जगत आता है। इससे गहरे उतरने में सूक्ष्म तत्व है। जो वस्तु जितनी सूक्ष्म होगी उतनी ही हल्की होने के कारण कठिनाई से अनुभव में आयेगी। मोटी मिट्टी को हम हाथ में लेकर चाहे जिस प्रकार काम में ला सकते हैं। पानी उससे सूक्ष्म है, उसके ऊपर हमारा उतनी सीमा तक अधिकार नहीं होता। उसके बाद आग और हवा का नम्बर आता है, यह चीज तो भी अधिक ध्यान देने पर अनुभव में आती है। आकाश तो किसी प्रकार देखने में ही नहीं आता? इन तत्त्वों से सूक्ष्म भी हजारों तत्व हैं। पानी के परमाणु खुर्दबीन से ही दिखाई देते हैं। ईश्वर तत्व जिसमें होकर शब्दों की लहरें बहती रहती हैं, बिना यन्त्रों की सहायता के नहीं जाना जा सकता और प्रकृति के मूल परमाणु विद्युत घटक (इलेक्ट्रोन) जो अपनी ऋण और धन विद्युत शक्ति के बल से रात-दिन घूम रहे हैं और जिनके एक-एक जर्रे में प्रलय करने की शक्ति भरी पड़ी है उनके बारे में तो हममें से बहुत से लोगों ने शायद कुछ सुना भी न होगा। वैज्ञानिकों का मत है कि यही विद्युत परमात्म संसार के विकास और विनाश क्रियाओं की कर्त्ता-धर्त्ता और हर्त्ता है। 
भारतीय ऋषियों की दृष्टि से यह खोज अभी अधूरी है। उनका मत है कि यह विद्युत परमाणु अपने आप नहीं घूम रहे हैं वरन् इन्हें घुमाने वाली भी कोई सत्ता है। यह सत्ता है परमात्मा। यह शक्ति इन परमाणुओं से भी करोड़ों गुनी सूक्ष्म होने के कारण मनुष्य के बनाये हुए किसी औजार या यंत्र से जानी नहीं जा सकती। अब तक जितने भी वैज्ञानिक यंत्र बने हैं, वे मनुष्य के मस्तिष्क के मुकाबले में बहुत ही स्थूल हैं। ईश्वर की सूक्ष्म सत्ता और प्रकृति की सूक्ष्म क्रियाओं का अनुभव इसी सर्वोत्तम यंत्र अन्तःकरण द्वारा हो सकता है। 
हर चढ़ने वाले को यह ध्यान रखना चाहिये कि वह पहले नीची सीढ़ी पर कदम रखे और इसके बाद आगे को कदम बढ़ावे। जो ऐसा न करके सीधा आगे को कदम बढ़ावेगा वह गिरेगा और नुकसान उठावेगा। ‘परकाया प्रवेश’ के साधक आध्यात्म लोक में प्रवेश करते समय सीड़ी-सीड़ी चलने का प्रयत्न करें। शरीर की स्थूल वस्तुओं से नीचे उतर कर जो वस्तु मिलती है वह नाद है। अन्तर जगत के इस नाद के आधार पर बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता है। अन्धा आदमी नेत्रों के अभाव में संसार की वस्तुओं को देख नहीं सकता किन्तु सुनने की शक्ति के होने से बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेता है। वह शब्द के आधार पर मनुष्यों को अलग-अलग पहचान लेता है। कुत्ते, घोड़े, बैल की बोली के आधार पर उन्हें जान जाता है। बादल गरजने, चक्की चलने और मोटर दौड़ने की आवाज प्रायः एक-सी होती है, पर वह अपने अभ्यास के आधार पर इनमें से कौन किसकी आवाज है, इसे बखूबी जान लेता है, मेले-ठेले, लड़ाई, सभा-सम्मेलन आदि के कोलाहलों में से कुछ शब्दों को सुन कर वह घटनाओं एवं परिस्थितियों के बारे में लगभग सही अनुमान लगा लेता है। अन्धे की शक्ति शब्द ज्ञान के आधार पर होती है। सूक्ष्म लोक में उतरते ही हम भी अन्धे हैं। क्योंकि आंखें तो बाहर की चीजों को ही देख सकती हैं। देह के भीतर क्या हो रहा है यह देखना भी उनकी शक्ति से बाहर है। ऐसी दशा में सूक्ष्म लोक के बारे में जान ही कैसे सकती हैं? 
सभी आध्यात्मिक व्यक्ति जानते हैं कि इस मोटे शरीर की तरह इसके अन्दर एक सूक्ष्म शरीर भी है। इस सूक्ष्म शरीर का अब तो वैज्ञानिक यंत्रों द्वारा भी परीक्षण हो चुका है और उसके अस्तित्व की पूर्ण रूप से घोषणा हो चुकी है। कर्नल अलबर्ट डेरोचस ने हस्तक (मीडियम) के शरीर से बाहर निकले हुए सूक्ष्म शरीर का वजन लिया है, वे कहते हैं कि सूक्ष्म शरीर का कुल वजन 2। ओंस है। यह जीवात्मा की इच्छानुसार सकुड़ और फैल भी सकता है। इसका साधारण आकार करीब तीन इंच है, किन्तु इच्छानुसार छै गुना तक बढ़ सकता है। जितनी जगह में सूक्ष्म शरीर का वजन 1.53/12500 यानी 0.1224 औंस है। यह हवा और हाइड्रोजन से भी हल्का है। स्थूल शरीर की भांति यह भी एक प्रकार के सूक्ष्म परमाणुओं का संगठन है। इस सूक्ष्म शरीर में भी स्थूल शरीर की भांति इन्द्रियां होती हैं। इसे यों भी कहा जा सकता है कि स्थूल शरीर की इन्द्रियों की चेतना सूक्ष्म शरीर की इन्द्रियों से मिलती है। सूक्ष्म शरीर की कोई इन्द्रिय नष्ट हो जाती है, तो स्थूल शरीर में वह अंग बिल्कुल स्वस्थ होते हुए भी निकम्मा होता है। 
मानसिक अभ्यास में स्थूल शरीर को सिर्फ आसन प्राणायाम आदि का इतना ही प्रयत्न करना पड़ता है कि शरीर स्वस्थ बना रहे और बीमार पड़कर कोई बाधा उत्पन्न न करे। शेष काम सूक्ष्म शरीर और उसकी इन्द्रियों को ही करना पड़ता है। नाद अभ्यास या शब्द श्रवण में चमड़े के कान सफल नहीं होते इसके लिये सूक्ष्म शरीर के कानों को काम में लाना पड़ता है। 
नाद अभ्यास के लिये ऐसा स्थान तलाश कीजिये जहां एकान्त हो और जहां बाहर की अधिक आवाजें न आती हों। तीक्ष्ण प्रकाश इस अभ्यास में बाधक है। इसलिये कोई अंधेरी कोठरी खोजनी चाहिये। एक पहर रात जाने के बाद से लेकर सूर्योदय से पूर्व तक का समय इसके लिये बहुत ही अच्छा है। यदि इस समय की व्यवस्था न हो सके तो प्रातः 9 बजे तक और शाम को दिन छिपे बाद का कोई समय नियत किया जा सकता है। नित्य नियमित समय पर अभ्यास करना चाहिये। अपने नियत कमरे में एक आसन या आराम कुर्सी बिछाकर बैठो। यदि आसन पर बैठो तो पीठ पीछे कोई मसंद या कपड़े की गठरी आदि रख लो। यह भी न हो सके तो अपना आसन एक कोने में लगाओ। जिस प्रकार शरीर को आराम मिले, उस तरह बैठ जाओ और अपने शरीर को ढीला छोड़ने का प्रयत्न करो। भावना करो कि मेरा शरीर रुई का ढेर मात्र है और मैं इस समय इसे पूरी तरह ढीला छोड़ रहा हूं। थोड़ी देर में शरीर बिल्कुल ढीला हो जायगा और अपना भार अपने आप न सहकर इधर-उधर को ढुलने लगेगा। आराम कुर्सी, मसन्द या दीवार का सहारा लेने से शरीर ठीक प्रकार अपने स्थान पर बना रहेगा। साफ रुई की मुलायम सी दो डाटें बनाकर उन्हें कानों में इस प्रकार लगा लो कि बाहर की कोई आवाज भीतर प्रवेश न कर सके। उंगलियों से कान के छेद बन्द करके भी काम चल सकता है। अब बाहर की कोई आवाज तुम्हें सुनायी न पड़ेगी। अगर पड़े भी तो उस ओर से ध्यान हटाकर अपने मूर्धा स्थान पर ले आओ और वहां जो शब्द हो रहे हैं उन्हें ध्यानपूर्वक सुनने का प्रयत्न करो। आरम्भ में शायद कुछ भी सुनाई न पड़े, पर दो-चार दिन के प्रयत्न के बाद जैसे-जैसे सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय निर्मल होती जायेंगी वैसे ही वैसे शब्दों की स्पष्टता बढ़ती जायेगी। पहले-पहले कई प्रकार के शब्द सुनायी देते हैं। शरीर में जो रक्त प्रवाह हो रहा है, उसकी आवाज रेल की तरह धक्-धक्-धक्-धक् सुनाई पड़ती है। वायु के आने-जाने की आवाज बादल गरजने जैसी होती है, रसों के पकने और उनके आगे की ओर गति करने की आवाज चटकने की सी होती है, यह तीन प्रकार के शब्द शरीर की क्रियाओं के द्वारा उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार के दो प्रकार के शब्द मानसिक क्रियाओं के हैं, मन में जो चंचलता की लहरें उठती हैं वे मानस तन्तुओं पर टकरा कर ऐसे शब्द करती हैं, मानो टीन के ऊपर मेह बरस रहा हो और जब मस्तिष्क बाह्य ज्ञान को ग्रहण करके अपने में धारण करता है तो ऐसा मालूम होता है, मानो कोई प्राणी सांस ले रहा हो। यह पांचों शब्द शरीर और मन के हैं, कुछ ही दिन अभ्याससाधारणतः दो-तीन सप्ताह के प्रयत्न से यह सब शब्द स्पष्ट रूप से सुनाई देने लगते हैं। इन शब्दों के सुनने से सूक्ष्म इन्द्रियां निर्मल हो जाती हैं और गुप्त शक्तियों को ग्रहण करने की उनकी योग्यता बढ़ती जाती है। 
जब नाद श्रवण करने की योग्यता बढ़ती जाती है, तो वंशी या सीटी से मिलती-जुलती अनेक प्रकार की शब्दावलियां सुनाई पड़ती हैं, यह सूक्ष्म लोक में होने वाली क्रियाओं की परिचायक हैं। बहुत दिनों से बिछुड़े हुए बच्चे को यदि उसकी माता की गोद में पहुंचाया जाता है तो आनन्द से विभोर हो जाता है। ऐसा ही आनन्द सुनने वाले को आता है। जिन सूक्ष्म ध्वनियों को वह सुन रहा है, वास्तव में वह सूक्ष्म तत्व के पास से आ रही हैं जहां से कि आत्मा और परमात्मा का बिलगाव हुआ है और जहां पहुंचकर दोनों फिर एक हो सकते हैं। धीरे-धीरे यह शब्द अधिक स्पष्ट होने लगते हैं। और अभ्यासी को उनके सुनने में अद्भुत आनन्द आने लगता है। कभी-कभी तो वह उन शब्दों में मस्त होकर आनन्द से विह्वल हो जाता है और अपने तन-मन की सुधि भूल जाता है। अन्तिम शब्द ‘ॐ’ का है, यह बहुत ही सूक्ष्म है। इसकी ध्वनि घण्टा ध्वनि के समान होती है। घड़ियाल में हथौड़ी मार देने पर जैसे वह कुछ देर तक झनझनाती रहती है, उसी प्रकार ‘ॐ’ का घण्टा शब्द सुनाई पड़ता है। पर यह तो हम आगे की बात कह गये। जब साधक उस दशा को पहुंचेंगे, तब तो उन्हें इस या ऐसी ही किसी अन्य पुस्तक की कोई आवश्यकता न रहेगी। 
परकाया प्रवेश के लिये शरीर और मन के पंच शब्दों से ऊंचे उठकर वंशी नाद में प्रवेश पा लेने की योग्यता पर्याप्त है। इतना करने से उसका मन संयत होने लगेगा, विचारों की श्रृंखला भंग न होकर एक काम पर जमती जायेगी और वह दूसरों को प्रभावित कर सकेगा। शब्दों के आगे का अभ्यास वैसी ही योग्यता करा देगा, जैसी अन्धों को हो जाती है। अभ्यासी लोग उसके आधार पर अनेक बातों की जानकारी अपने आप प्राप्त कर सकेंगे। 
शब्द श्रवण के लिये दिन में एक बार बैठना चाहिये। अवकाश हो तो कम से कम आठ घण्टे का बीच छोड़कर दुबारा  बैठ सकते हैं। बीस मिनट से लेकर एक घण्टे तक अभ्यास बढ़ाना चाहिये। त्राटक के पूर्व नाद श्रवण किया जा सकता है, पर बाद में कदापि नहीं करना चाहिये। अच्छा हो कि दोनों के बीच में कम से कम एक घण्टे का समय रखा जाय। 

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