परकाया प्रवेश

दूसरों को कैसे समझायें?

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
मनुष्य स्वभाव का यह एक सिद्धान्त है कि जो बात बलपूर्वक और गम्भीरतापूर्वक कही जाती है, उसे वह मान लेता है। मनुष्य का मन आमतौर से तर्क-वितर्क के झगड़े से बचना चाहता है। किसी बात को मानने से उसके कार्यक्रम में कोई बड़ा भारी परिवर्तन प्रत्यक्ष रूप से होने वाला हो या किसी का मन स्वभावतः ही बहुत तर्कशील हो, उसी दशा में कुछ संदेह और अधिक सोच-विचार करने की आवश्यकता होती है। आमतौर से उन बातों को भी स्वीकार कर लिया जाता है, जिनके मानने पर अप्रत्यक्ष रूप से अपना बड़ा भारी हानि-लाभ होता हो। साधु बच्चों को भगा ले जाते हैं, अमुक स्त्री डायन है, अमुक पेड़ पर भूत रहता है आदि बातें अफवाह के रूप में उड़ती हैं और हजार पीछे नौ सौ आदमी उस पर विश्वास कर लेते हैं। इस बात की तलाश बहुत ही कम लोग करते हैं कि यह बात कहां तक सच है? इसलिये दूसरे लोगों को जिस बात के लिये प्रभावित करना है, उसके लिये कुछ बातों को खासतौर से ध्यान रखो। 
कोई नयी बात या ऐसा विषय किसी आदमी को समझाना चाहते हो, जिसे वह अब तक नहीं मानता रहा है, तो उस बात को उसके मन में भरने के लिये बहुत बुद्धिमानी से काम लेना होगा। पहली ही बार उससे यह मत कहो कि तुम्हें यह करना चाहिये और यह नहीं करना चाहिये। ऐसा कहने से उसका सुप्त मन और वर्तमान आदतें एकदम बगावत कर देंगे। एक घोड़ा मुद्दतों से जिस सड़क पर चल रहा है, उसे किसी नयी सड़क पर ले जाना चाहोगे तो उसे बहुत अखरेगा, वह रुकेगा, बिगड़ेगा और लातें मारेगा। इसलिये प्रथम वार्तालाप में अपना अन्तिम उद्देश्य पूरी तरह प्रकट मत हो जाने दो। उस आदमी से क्यों बार-बार मिलते हो, इसके लिये कोई दूसरा छोटा-मोटा कारण निकाल लो। मान लो तुम बीमा एजेण्ट हो और किसी आदमी को बीमा कराने के लिये तैयार करना चाहते हो, तो उससे आरम्भ में ही अपनी बात मत खोल दो, क्योंकि किसी आदमी से आरम्भिक बातचीत करते समय हर कोई दो बातों को बड़ी सावधानी से देखता है, अपनी हानि और दूसरों का स्वार्थ। यदि किसी प्रस्ताव में उसे इन दोनों बातों की गन्ध आ जाय, तो स्वभावतः वह उस प्रस्ताव से उचट जायगा। यहां हम यह चर्चा करने नहीं बैठे हैं कि तत्वतः क्या बात सत्य है और क्या असत्य? यहां तो हमें मनोविज्ञान शास्त्र के अनुसार मनुष्य स्वभाव की गुत्थी को सुलझाना है। कोई व्यभिचारी है, वह दुराचार में अपनी कमाई फूंकता है। मान लो कि वह आदमी तुम्हारा भाई है और सम्मिलित परिवार में रहता है। तुम उससे कहते हो कि यह बदमाशी छोड़ दो और घर की आर्थिक दशा सुधारो, तो निश्चय ही उसकी आदतें एकदम उबल पड़ेंगी और इन्द्रिय सुख की हानि एवं परिवार में होने के कारण अपनी कमाई से उसके लाभ उठाने का स्वार्थ दिखाई देगा। जहां यह दोनों बातें इकट्ठी दिखाई दीं कि आदमी उस बात पर से उचटा। इसलिये सीधा आक्रमण मत करो। जंगली हाथी से लड़कर उसे पकड़ना चाहो तो यह जरा मुश्किल है, पर उन्हें फुसला कर तो हर साल हजारों हाथी पकड़े जाते हैं। 
जिस बात के लिये किसी आदमी को तैयार करना चाहते हो, उसके लिये कुछ दर्जे नियत कर लो। पहले दर्जे में उस विषय की अच्छाइयों का उदाहरण सहित वर्णन होना चाहिये। दूसरे दर्जे में उन बुराइयों पर हल्का आक्षेप होना चाहिये। जिनका वह आदमी वशीभूत है। तीसरे दर्जे में उस अच्छाई से उसके जीवन को सम्बन्धित करते हुए एक सुन्दर चित्र खड़ा करो। बस, यहीं तक उसे ले चलो। यदि तुम देखो कि यह व्यक्ति हमारी आज्ञा मानने न मानने कि लिये बिल्कुल स्वतंत्र है, तो कोई कड़ी आज्ञा मत दो। उसके मन में अपने विचारों का प्रबल घेरा डालकर उन्हीं में उलझा हुआ छोड़ दो और अन्त में यही कहो कि जैसा तुम्हें उचित प्रतीत हो करो। योगिराज कृष्ण अद्वितीय मनोविज्ञानवेत्ता थे, उन्होंने अर्जुन के विचारों को बदल कर दूसरे विचार लेने के लिये इन्हीं सिद्धान्तों का प्रयोग किया। रणक्षेत्र में पहुंचकर जब अर्जुन को मोह उत्पन्न हुआ और उसने गांडीव को पटक कर संन्यासी हो जाने का निर्णय लिया—उसके उस समय के मन का जरा अध्ययन कीजिये। असंख्य व्यक्तियों का रक्तपात, उसके भयंकर परिणाम और उसके फलस्वरूप प्राप्त होने वाली तुच्छ वस्तु इन तीनों ही बातों के मिश्रण से एक उदार, दयाशील और त्यागी व्यक्ति के मन में स्वभावतः ही युद्ध से विरक्ति हो सकती है और विरक्ति की भावना केवल शंका नहीं, एक गहरी अनुभूति होगी। ऐसी अनुभूति का थोड़े से समय में हटा देना कोई आसान बात नहीं थी। कृष्ण यदि केवल आज्ञा के रूप में आदेश करते कि ‘‘तुम्हारे यह विचार ठीक नहीं, चलो युद्ध करो’’ तो कदाचित् उन्हें सफलता न मिलती और अर्जुन तैयार न होता। इसलिये उन्होंने धैर्य और बुद्धिमानी से काम लिया। 
गीता के अनुसार भगवान कृष्ण ने आरम्भ में आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का वर्णन करते हुए युद्ध को दोष रहित और क्षत्रिय के लिये स्वर्ग देने वाला धर्म कार्य बताते हुए उस बात की अच्छाई सिद्ध की, जिसे वे कराना चाहते थे। तदुपरान्त दूसरे दर्जे में युद्ध न करने, संन्यासी होने की व्यर्थता और दोष बताये कि तेरी कीर्ति चली जायगी, अपमान होगा, धर्मच्युत हो जायगा, लोग गालियां देंगे, डरपोक कहेंगे। इस प्रकार उन्होंने उस बात के दोष बताये, जिन्हें वे त्याग कराना चाहते थे। तीसरे दर्जे में उन्होंने अपने प्रस्ताव के अनुसार अर्जुन के अपना कार्यक्रम बना लेने का सुन्दर चित्र खींचते हुए कहा—मर जायेगा तो स्वर्ग मिलेगा और जीतेगा तो राज्य भोगेगा, इसलिये इसी प्रस्ताव को स्वीकार कर। जब तक अर्जुन कच्चा था तब तो कृष्ण कहते थे कि ‘‘युद्धाय कृत निश्चयः’’ अर्थात युद्ध का निश्चय कर, परन्तु जब अर्जुन पक गया, उनकी बातों से पूरी तरह प्रभावित हो गया, स्वीकार करने लगा और केवल अन्तिम फैसले की बात आयी, तो तीसरा दर्जा आ गया। तब कृष्ण पल्ला झाड़कर अलग हो गये, उन्होंने साफ कह दिया कि ‘‘यथेच्छसि तथा कुरु’’ जैसी तेरी इच्छा हो सो कर, क्योंकि अन्तिम निर्णय तो उस व्यक्ति को स्वयं ही करना चाहिये, ऐसा करने से वह उस पर दृढ़ रहेगा। दूसरे की आज्ञा से जो कार्य किया गया, उससे आदमी बहुत जल्दी लौट सकता है, किन्तु अपने आप जिस बात का आखिरी फैसला किया गया, वह बात अन्त तक पार जायगी। 
इस प्रकार किसी व्यक्ति के विचार बदलने के लिये इन दर्जों का चुनाव करना चाहिये। कोई आदमी चोरी करता है, तो आरम्भ में इस प्रकार का प्रसंग उसके सामने रखा जाना चाहिये, जिससे चोरी न करने की अच्छाइयां, उदाहरण सहित बतायी जायं। तदुपरान्त चोरी करने वाले की दुर्गति भी उदाहरण देते हुए सिद्ध की जाय। इसके पीछे एक ऐसा सुन्दर चित्र उस आदमी के सामने खड़ा किया जाय, कि यदि ईमानदारी से रहने लगे तो उसकी किस प्रकार उन्नति हो सकती है। लगातार इस प्रकार की बातें कुछ अधिक दिनों तक, थोड़ा-थोड़ा अवकाश देकर थोड़े-थोड़े समय तक करनी चाहिये। एक साथ सब कुछ समझा देना उचित नहीं होता, इससे उसे अनिच्छा, उदासी आने लगती है। पहली बार में उसकी रुचि अपनी ओर आकर्षित कर लेना ही पर्याप्त है, उसे इस दशा पर ले आया जाय कि दुबारा मिलने के लिये उत्सुक रहे। हर भेंट में इस उत्सुकता का बढ़ते जाना सफलता का चिन्ह है। जब बातचीत समाप्त करनी हो तब बहुत ही मनोरंजक बात दूसरी बार के लिये अधूरी छोड़ देनी चाहिये। संस्कृत साहित्य में ‘हितोपदेश’ और ‘पंचतंत्र’ नामक दो पुस्तकें इस दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। उनकी हर एक कहानी अपनी एक नई शाखा, कहानी के लिये उत्सुकता छोड़कर अधूरी समाप्त हो जाती है। इस प्रकार अगले दिन के लिये उत्सुकता बनाये रहने के निमित्त कोई बहुत मनोरंजक बात अधूरी छोड़ी जा सकती है। यदि किसी के मत की पुष्टि कर रहे हो, तब तो किसी लगाव लपेट की बात नहीं है, सीधे शब्दों से उस विषय का समर्थन ऐसी मनोरंजकता और प्रमाणों के आधार पर करो कि उसके विचार और अधिक दृढ़ हो जायं, किन्तु यदि किसी के विचारों को पलटना है तो निश्चय ही लाग लपेट के साथ बात करनी चाहिये। किसी आदमी के जिन विचारों को तुम बुरा समझते हो, वह स्वयं ऐसा नहीं समझता। उसके लिये वह बातें प्रिय हैं और अपनी प्रिय वस्तु को जाते देखकर किसी को क्षोभ होता है। शराबी की निगाह में नशा करना बड़े आनन्द की बात है। वह उसे यों ही किसी के कहने से नहीं छोड़ सकता है। इसलिये उसे फुसलाना ही एक उपाय रह जाता है। यह कार्य उपरोक्त प्रकार से ही हो सकता है। 
यहां एक बात और बताना भी जरूरी है। वह यह कि जिस आदमी को सुधारना चाहते हो, उसकी बुराई मत करो, झिड़को मत, कड़ुवे शब्द मत कहो उसके वे दोष बिल्कुल साफ-साफ मत कह दो और यह भी प्रकट मत करो कि ‘‘मुझे विश्वास है कि तुममें यह बुराइयां अवश्य हैं।’’ ऐसी कहा-सुनी करोगे तो मामला बिगड़ जायगा। वह आदमी उद्दण्ड और विरोधी हो जायगा और निर्लज्जता पूर्वक ढिठाई करने लगेगा। जिस आदमी को सुधारना है उसके साथ प्रेम प्रकट करो अपने को उसका शुभचिन्तक होने का विश्वास कराओ, जो दोष उसमें हैं उसके लिये केवल संकेत करो और वह उनसे मुकरता हो तो प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहो कि ‘‘बेशक भले आदमी में ये बातें नहीं हो सकतीं, व्यर्थ ही विरोधी लोग तुम्हारी बदनामी करते हैं। पर किसी को आगे से ऐसी शिकायत का मौका भी नहीं देना चाहिये। पूरी सावधानी रखो कि किसी को ऐसी बदनामी करने का मौका न मिले।’’ 
इस प्रकार बुद्धिमत्ता के साथ कुछ दिन थोड़ा-थोड़ा प्रयत्न करके तुम एक आदमी के विचार बिल्कुल बदल सकते हो। रस्सी घिसने से जब पत्थर पर निशान हो जाता है तो क्या तुम्हारा मूल्यवान प्रयत्न बेकार जायगा? नहीं अवश्य ही तुम दूसरों के हीन विचारों को छुड़ाकर उच्च विचार उत्पन्न कर सकते हो। आवश्यकता इस बात की है कि तुम बिल्ली की उस क्रिया को बड़े गौर के साथ देखो कि वह छोटे से चूहे को पकड़ने के लिये कैसी बुद्धिमानी और सावधानी के साथ चुपके-चुपके पैर रखकर सफलता प्राप्त करती है। 

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118