परकाया प्रवेश

पर काया प्रवेश क्यों?

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गत अध्याय में बताया जा चुका है कि पर काया प्रवेश क्या है? और उसका होना किस प्रकार संभव है? अब प्रश्न उपस्थित होता है कि उसकी क्या आवश्यकता है? भूत-प्रेत आदि का प्रवेश जब किसी की काया में हो जाता है, तो उसे कष्ट होता है और उसके साधारण कार्यक्रम में बाधा पड़ती है। सर्पादि का शरीर प्रवेश भी इसी प्रकार हानिकारक सिद्ध होता है। 
संसार की समस्त बातों के भले-बुरे दो पहलू होते हैं। हर वस्तु को दोनों प्रकार के काम में लाया जा सकता है। ऊपर के दोनों उदाहरण इस विद्या के बुरे पहलू हैं। वह तो मनुष्येत्तर दुष्ट प्राणियों की बात है, स्वयं मनुष्य ने भी आत्म-शक्ति का काफी दुरुपयोग किया है। पिछले दिनों एक युग ऐसा आ गया था कि आज के भौतिक विज्ञान की तरह उस समय आत्म-विज्ञान का उपयोग स्वार्थ-साधन, प्रतिहिंसा और इन्द्रिय तृप्ति कि लिये किया जाने लगा था। बाम मार्ग के तान्त्रिक कर्म, अध्यात्म पथ के उग्र और शीघ्र फल देने वाले साधन हैं। इनके द्वारा नीच श्रेणी के मनुष्य भी कुछ चमत्कारिक शक्ति प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे लोगों के हाथ में पहुंचने पर हर एक सत्ता का दुरुपयोग ही हो सकता है। मध्य युग में तान्त्रिकों का एक आतंक-सा छा गया था। वे अपने स्वार्थ साधन के लिये मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि ऐसे दुष्ट कर्म करते थे, जिनके द्वारा साधारण जनता का दिल दहल जाता था। ऐसे वीभत्स कार्यों का अन्त शीघ्र ही हो जाने का प्राकृतिक नियम है। कहते हैं कि ‘‘जालिम की उम्र कम होती है।’’ सर्व साधारण को हानि पहुंचाने वाले कार्य अधिक दिन जीवित नहीं रह सकते। तन्त्र शक्ति के द्वारा जब कुकर्म होने लगे, तो इस विज्ञान के विरुद्ध लोक में घोर घृणा फैल गयी और तान्त्रिकों का सहयोग करना छोड़ दिया गया। लोक विरोध के कारण तान्त्रिकों को अपने को छिपाना पड़ा। जो इस विज्ञान के पण्डित थे और शक्ति रखते थे, उनने भी अपने भेद को गुप्त रखा क्योंकि प्रकट करने पर वे आपत्तियों के शिकार बनते थे। तब से अब तक उन क्रियाओं के जानने वाले बराबर अपने को छिपाते हैं यद्यपि अब जमाना बहुत आगे बढ़ चुका है, हर सत्य विद्या का आदर होता है और जनता में तन्त्र शक्ति के लिये उस प्रकार की घृणा और आतंक भी नहीं है, फिर भी पूर्व परिस्थिति के अनुसार इस विषय के विद्वान गुप्त रहने की परम्परा को ही बनाये हुए हैं। 
इस विद्या का प्रयोग यदि नीच कार्यों के लिये हो, तो सचमुच इससे जनता का कुछ भी लाभ नहीं वरन् उल्टी हानि ही है। किन्तु यदि उसका उपयोग लोगों के मानसिक उत्थान, उनकी उन्नति के लिये किया जाय तो किसी प्रकार बुरा नहीं कहा जा सकता। हमारा विश्वास है कि इस शक्ति का उपयोग हमारे अनुयायी परोपकार के लिये ही करेंगे। जनता की सेवा करना ही साधकों का धर्म होना चाहिये। इस पुस्तक में इस शक्ति के द्वारा पांच प्रकार की क्रियाओं द्वारा पांच प्रकार के कार्य करने के उपाय बतलाये गये हैं। इसके अतिरिक्त और भी अनेक कार्य हो सकते हैं, परन्तु जानबूझकर इस पुस्तक में नहीं लिखा गया है, क्योंकि इस पुस्तक को पैसे देकर कोई भी खरीद सकता है, किन्तु प्रचण्ड शक्ति रखने वाली बन्दूक हर बालक के हाथ में नहीं दी जा सकती। आगे के पृष्ठों में केवल इतना ही बताया जायगा कि किसी दुष्ट स्वभाव वाले, बुरी आदतों में फंसे हुए, रोगों से ग्रसित और विकृत मनोवृत्ति वाले व्यक्ति को किस प्रकार सुमार्ग पर लाया जा सकता है। दूसरे के मन में कैसे विचार उठ रहे हैं, इस बात को निदान रूप में मालूम किया जा सकता है। इसमें कहीं किसी ऐसे साधन की चर्चा नहीं की गयी है कि अच्छे पुरुषों को बुरा कैसे बनाया जाय? या स्वस्थ मनुष्य को पीड़ित कैसे किया जाय? यदि इस प्रकार की शिक्षा दी गयी होती, तो सचमुच ही बड़ा अनर्थ हो सकता था। 
शुभ और अशुभ स्वयं एक पृथक्-पृथक् सत्तायें हैं। उनके गुण अलग-अलग हैं। शुभ संकल्पों से दूसरे का हित और अपनी उन्नति होती है, यह मेंहदी के रंग के समान है जो दूसरे के हाथ को रचाते समय अपना हाथ रच जाता है। किन्तु अशुभ विचार उस चिनगारी के समान हैं, जो दूसरी वस्तुओं को तो जलाती ही है, पर छोड़ती उसे भी नहीं, जिस पर वह रखी गयी थी—जहां उसे आश्रय दिया गया था। लोक हितकारी कार्य चाहे वे शारीरिक हों या आध्यात्मिक अवश्य फलेंगे-फूलेंगे और उनसे करने वाले की शक्ति बढ़ेगी, किन्तु दुष्ट कर्मों में जितना दूसरों का अहित होता है, उससे अधिक अपना हो जाता है। चोर दूसरे का माल चुराकर उसे उतनी हानि नहीं पहुंचाता जितनी अपने को। हर समय डरते रहना, भय से खून सुखा लेना, आत्मा के अन्दर अशान्ति रहना, लोक-परलोक बिगाड़ लेना और पकड़े जाने पर कठोर दण्ड भोगना, क्या इतनी हानि उन पैसों से भी कम है जो उसने चुराये थे? इस पुस्तक में बताये हुए अभ्यासों से किसी भी साधक में ऐसी शक्ति नहीं आवेगी कि वह किसी भले स्वभाव के स्त्री-पुरुष को बुराई के रास्ते पर खींच सके, उसमें उल्टी बुद्धि उत्पन्न करके हानिकारक कार्यों को करा सके, स्वार्थ के लिये किसी को अपने चंगुल में कस सके या मारण, मोहन, वशीकरण जैसे अभिचार, अभिघात कर सके। यदि दैव योग से किसी में ऐसी शक्ति हो भी जाय तो उसे ध्यान रखना चाहिये कि कितने ही बड़े प्रलोभन के लिये उसका अनुचित उपयोग न करे, यदि करेगा तो हम भुजा उठाकर कहते हैं कि ऐ क्रूर कर्माओ! इस अग्नि से भद्दा खेल मत खेलो, अन्यथा प्राप्त शक्ति को तो खो ही दोगे साथ ही खुद भी नष्ट हो जाओगे।’ 
इस पुस्तक का ‘परकाया प्रवेश’ एक नियत सीमा तक है। किसी बालक का स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया है, वह बात-बात में जिद करता है, सांसारिक ज्ञान को बहुत ही धीरे-धीरे प्राप्त कर रहा है अर्थात् बड़ी उम्र हो जाने पर भी उसे उतनी जानकारी नहीं है जितनी कि उस उम्र के बालकों में साधारणतः होती है, किसी बालक का मस्तिष्क अविकसित है, विद्या पढ़ने में या याद रखने में कमजोर है, चोरी करने या झूठ बोलने आदि की आदत पड़ गयी है, तो इन सब कमजोरियों के बारे में तुम उसकी यह मदद कर सकते हो। कोई किशोर चटोरे स्वभाव का बन गया है, फैशन की तड़क-भड़क पर बहुत ही मुग्ध है, मनोरंजन के कार्यों में अधिक व्यस्त रहता है, बीड़ी पीने की टेब सीखता जाता है, बुरी सोहबत में ब्रह्मचर्य नष्ट करता है, पढ़ने में कमजोर है या उदासीन है तो उस पर इस विज्ञान का अद्भुत असर होगा। कोई वयस्क स्त्री-पुरुष क्रोधी स्वभाव का हो चला है, अपने या दूसरों के ऊपर झुंझलाता रहता है, दुर्व्यसनों में फंसने लगा है, आचरण नष्ट कर रहा है, न करने योग्य कामों में प्रवृत्त है, आलस्य या उदासीनता से ग्रस्त है, मानसिक उलझनों ने जकड़ रखा है या विरह, दुख, शोक आदि से पागल हो रहा है तो उसके लिये इस विज्ञान का प्रयोग करना बहुत ही उत्तम होगा। वह व्यक्ति पास हो तो ठीक अन्यथा दूरस्थ होने पर भी विशेष परिश्रमपूर्वक प्रयोग किया जा सकता है और यह निश्चित है कि किसी के भी ऊपर किया गया प्रयोग कदापि व्यर्थ नहीं जा सकता। अभ्यास और क्रिया की त्रुटि से यदि पूरी-पूरी सफलता न मिले तो भी बहुत बड़ी मात्रा में सुधार अवश्य हो जायगा। 
‘परकाया प्रवेश’ की ही एक शाखा ‘पर-चित्त-विज्ञान’ है, जिसका उल्लेख इस पुस्तक के अन्तिम पृष्ठों पर किया गया है। इसके द्वारा दूसरे के मन में किस प्रकार के भाव उठ रहे हैं? वह इन दिनों किस प्रकार के भावों से ग्रसित है? उसके विचारों में किस प्रकार का क्या परिवर्तन होता जा रहा है? आदि बातों को जाना जा सकता है। किन्तु कोई ऐसा प्रयोग करना कि इसकी निजी बातों को जान लें—इसका धन कहां गढ़ा है? इसका किस व्यक्ति से कैसा सम्बन्ध है? इसके गुप्त प्रोग्राम क्या हैं? तो उन्हें निराश होना पड़ेगा। इन बातों के जानने के अधिकारी इस पुस्तक के पाठक नहीं हैं। यह बहुत आगे की बात है। जब तक इन बातों के जानने की लालसा है तब तक वह इसका पात्र नहीं। उसे दूसरों की गुप्त बात का इस प्रकार पता चल जाय तो संसार में बड़े-बड़े अनर्थ उपस्थित कर सकता है। वीतराग महात्मा जिन्हें संसार से पूर्ण रूप से विरक्ति हो जाती है और जो इस प्रकार के भेदों को मालूम करना मूर्खता समझते हैं, उनका पवित्र अन्तःकरण वह बातें जान सकता है। साधारण लोगों के लिये तो इतना ही पर्याप्त है कि वे इसका परिचय प्राप्त कर लें कि कौन आदमी इस समय किस प्रकार की विचारधारा से परिपूर्ण है। पिछले समय से कैसे विचारों से भरा जा रहा है और अब उसके विचारों में क्या परिवर्तन हो रहा है? 
क्या इस प्रकार की ‘परकाया प्रवेश’ सम्बन्धी योग्यता संसार का कुछ भी उपकार न कर सकेगी? क्या साधक इसके अलौकिक महत्व को नहीं समझेंगे? 

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