परकाया प्रवेश

कुछ जानने योग्य बातें

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त्राटक और नाद का अभ्यास लगातार कम से कम चालीस दिन करने के उपरान्त काम चलाऊ शक्ति साधक को प्राप्त हो जाती है। जहां तक हो सके दोनों अभ्यास को लगातार चालू रखने चाहिये, किन्तु यदि किसी कारण विशेष से किसी दिन अभ्यास छूट जाय, तो उसके प्रायश्चित्त स्वरूप एक दिन उपवास रखना या एवं ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिये। यदि दो दिन से भी अधिक गड़बड़ी हो जाय तो पिछले दिनों का अभ्यास निष्फल समझकर नये दिन को पहला दिन गिन कर आगे बढ़ना चाहिये और चालीस तक पूरा करना चाहिये। इतने दिनों में साधारणतः त्राटक में स्थिरता आ जाती है। यदि न आई हो तो कुछ दिन और जारी रखना चाहिये। नाद में जब मधुरता लिये हुए वंशी या सीटी जैसे शब्द सुनाई देने लगें तो अभ्यास में सफलता मिली समझना चाहिये। इसके उपरान्त यह बाहरी त्राटक बन्द कर देना चाहिये, क्योंकि अधिक दिनों तक जारी रखने के लिये जैसा उत्तम आहार-विहार होना चाहिये, वैसा इस समय में आसानी से नहीं रखा जा सकता है और उत्तम आहार-विहार न होने पर नेत्रों को हानि पहुंचने की संभावना रहती है। नाद को लगातार सुनते रहने में कुछ भी हानि नहीं, वरन् लाभ ही है। आगे चलकर बाहरी नेत्रों से त्राटक बन्द करके सूक्ष्म नेत्रों से करना चाहिये। आंखें बन्द करके मस्तिष्क के भीतर भृकुटियों के मध्य भाग में ध्यान को एकत्रित कर सूक्ष्म नेत्रों से वहां देखना चाहिये। आरम्भ में कई रंग के धब्बे से या चिनगारियां जैसी उड़ती प्रतीत होंगी, यह मस्तिष्क में व्याप्त पंचतत्वों की तन्मात्रायें हैं, जब तक अन्तर्दृष्टि स्वच्छ नहीं हो जाती तब तक अन्धकार या रंग-बिरंगे धब्बे से ही अनुभव में आते हैं, किन्तु जैसे-जैसे दृष्टि निर्मल होती जाती है और स्थूल पंचतत्वों को पार कर गहराई तक देखने लगती है, तब प्रकाश दिखाई पड़ता है। आगे चलकर सूर्य की तरह प्रकाशवान एक श्वेत बिन्दु पर मानस नेत्रों से त्राटक करना चाहिये। चालीस दिन बाद प्रथम नाद श्रवण पश्चात् मानसिक त्राटक की क्रियायें एक ही आसन पर बैठकर कर लेनी चाहिये, फिर बीच में अन्तर देने की आवश्यकता नहीं है। प्रायः तीन महीने के अभ्यास के बाद यह क्रियायें मानसिक चेतना में प्रवेश पा लेती हैं और मन इनसे उचटने की अपेक्षा इनमें रस लेने लगता है। तब इतनी छूट मिल सकती है कि किसी नियत समय पर अभ्यास करना संभव न हो तो आगे पीछे समय में भी किया जा सकता है। चिर कालीन अभ्यास के उपरान्त जब इन अभ्यासों की अनुभूति सूक्ष्म शरीर और उसकी अनुभूतियों से नीचे उतर कर लिंग, शरीर और कारण शरीर तक पहुंचती है, तो नाद और प्रकाश दो वस्तुयें न रहकर एक ही वस्तु रह जाती है, जिसे अमृत कहते हैं। योग शास्त्रों में उल्लेख है कि चन्द्र मण्डल से अमृत बिन्दु टपकता है और उसे सुषुम्ना द्वारा पान करते हैं। इस अमृत पान का आनन्द साधक स्वयं ही जान सकते हैं, गूंगे के गुण की तरह लिख कर नहीं बताया जा सकता। 
पर काया प्रवेश के लिये उस अवस्था को कायम रखना पर्याप्त है, साधारणतः चालीस दिन के या किसी को थोड़े-बहुत कम-ज्यादा समय के अभ्यास के बाद आती है। इतने को छोड़ न देना चाहिये, वरन् जहां तक हो सके बराबर जारी रखना चाहिये। यदि हो सके तो एक योग्य अभ्यासी की अध्यक्षता में सप्ताह में एक बार रविवार को कई लोग मिलकर सत्संग की तरह अन्तर्त्राटक और अन्तर्नाद का साधन किया करें, जो लोग नित्य नियमपूर्वक नहीं कर सकते, सप्ताह में एक बार करके ही इसके अद्भुत परिणामों की परीक्षा कर देखें। 
जो लोग अपनी आत्मोन्नति के लिये इस साधन को अपनाना चाहते हैं, वे यदि अपने रहन-सहन और आचरण को अधिक पवित्र न रखेंगे तो उन्हें सफलता शीघ्र और अधिक मात्रा में न मिलेगी, जैसे एक आदमी दूध पीता है और मदिरा भी सेवन करता है, तो उसे मदिरा से हानि तो होगी, किन्तु दूध का लाभ अवश्य मिलेगा। कोई उतनी अधिक कठोरता से नियंत्रित न रहें, तो भी किसी को अधिक हर्ज नहीं, किन्तु जो साधक दूसरों के अन्दर अपनी आत्म शक्ति का प्रवेश करना चाहते हैं, उन्हें तो अपने आचार-विचार को बहुत ही पवित्र रखना चाहिये अन्यथा अपने दुर्गुणों के बीज भी दूसरों के मन में भी बो देंगे। डॉक्टर लोग आपरेशन करने से पूर्व अपने औजारों को गरम पानी से या दवाओं द्वारा शुद्ध कर लेते हैं, ताकि इन औजारों से चिपकी कोई हानिकारक चीज बीमार के शरीर में प्रवेश न करके उसे हानि न पहुंचाये। बुद्धिमान साधक की आत्मशक्ति जब दूसरे को प्रभावित करने के लिये किसी के शरीर में प्रवेश करती है तो वह इंजेक्शन की सुई की तरह होती है। क्या कोई डॉक्टर अपनी गन्दी सुई को बीमार की देह में चुभोने का साहस करेगा? नहीं। इसी प्रकार हर कोई साधक जो दूसरों में मानसिक परिवर्तन करने के इच्छुक हैं अपने विचारों को पवित्र रखें, अपने आचरण को ठीक रखें, अपना खानपान सात्विक रखें, अपनी शक्तियों को व्यर्थ व्यय न होने दें, नित्य प्रभु की प्रार्थना करें और संसार के समस्त प्राणियों के लिये मंगल कामना करते रहें। 

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