गीत संजीवनी-9

वह जीवन भी क्या जीवन है

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वह जीवन भी क्या जीवन है, जो काम किसी के आ न सके।
विश्वास किसी को दे न सके, विश्वास किसी का पा न सके॥

पड़ा रहा जीवन घट रीता, हृदय किसी का कभी न जीता।
धर्म क्षेत्र में, कर्म क्षेत्र में, झुठलाई रामायण गीता॥
जो बात हृदय की कह न सके, जो बात प्यार की सुन न सके।
वह जीवन भी क्या जीवन है......॥

आजीवन ही स्वार्थ साधना, परहित की जागी न कामना।
नहीं समझने दिया अहं ने, कभी किसी की दिव्य भावना॥
मानव दर्द भरे जंगल में, साथ किसी का दे न सके।
वह जीवन भी क्या जीवन है......॥

धर्म कर्म का, मर्म न जाना, जीवन पन्थ नहीं पहचाना।
बुनता रहा व्यर्थ ही निशिदिन, कुण्ठाओं का तानाबाना॥
ज्ञान स्रोत के पास बैठकर, परम शान्ति जो पा न सके।
वह जीवन भी क्या जीवन है......॥

मुक्त गगन है मुक्त पवन है, आत्म सुरभि से भरा गगन है।
निश्छल पावन प्रेम देखकर, मन मयूर करता नर्तन है॥
शिशु की भोली चितवन पर, जो क्षणभर भी मुस्का न सके।
वह जीवन भी क्या जीवन है......॥

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