गीत संजीवनी-9

मानवता का पतन देखकर

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मानवता का पतन देखकर, आज धरा अकुलाई है।
देव शक्तियों ने मिल जुलकर, दुर्गा शक्ति जगाई है॥

जब- जब डगमग हुई धर्म की, नाव भँवर में ज्वारों में।
विविध रूप में तब भगवन! तुम, प्रकट हुए अवतारों में॥
रघुनायक बन अत्याचारी, रावण यहाँ पछाड़ा था।
ईश्वर निष्ठा के अभाव में, दम्भ कंस का मारा था॥
शाश्वत यही, कहानी प्रभु ने, हर युग में दुहराई है॥

मानवता को त्राण मिला था, गौतम के सन्देशों में।
धर्म चेतना का विस्तार हुआ था, देश विदेशों में ॥
संस्कार से रहित मनुजता, पुनः लक्ष्य पथ भूली है।
पलभर का कुछ पता नहीं, पर भौतिकता में फूली है॥
इस युग में भी, प्रज्ञावतार बन, ईश चेतना आई है॥

वानर रीछ गिलहरी बनकर, जो भी कदम बढ़ायेगा।
सेतु राम बाँधेंगे निश्चित, पुण्य वही पा जायेगा॥
उठना है गोवर्धन लेकिन, लाठी जरा लगा लो तुम।
प्रभु के सहयोगी बनने का, श्रेय सहज ही पा लो तुम॥
उठो तुम्हारे, इम्तहान की, आज घड़ी यह आई है॥

नवयुग का मत्स्यावतार यह, पल- पल बढ़ता जाता है।
शत सहस्र से कोटि- कोटि बन, अपना ओज दिखाता है॥
विश्वरूप होगा यह कल को, ऋषि ने हमें बताया है।
इसीलिए यह महायज्ञ का, अनुष्ठान करवाया है॥

मिलना ही है, श्रेय उन्हीं को, जिनने की अगुवाई है॥
कल का समय नहाया होगा, स्वर्णिम सुखद उजालों में।
अँधियारे का नाम न होगा, अनगिन जली मशालों में॥
धार बहेगी मानवता की, मरुथल में मैदानों में।
आदर्शों के फूल खिलेंगे, चिन्तन के उद्यानों में॥
अपनायेंगे, वही राह जो, युगऋषि ने दिखलाई है॥

मुक्तक-

धरती फिर तिलमिला उठी है, पाप पतन के भार से।
आश लगाई मानवता ने, कोई युग अवतार से॥
फिर प्रज्ञावतार हुआ है, मानवता की मुक्ति को।
देवसंस्कृति निकल पड़ी है, जगती के उद्धार को॥

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