गीत संजीवनी-9

मनुजता विकल है

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मनुजता विकल है लुटी जा रही है,
पतन की कहानी यहीं रोक दो माँ॥
किसे हम पुकारें, किसे हम निहारें,
हमारे लिये बस तुम्हीं एक हो माँ॥

तुम्हीं से मिली जिन्दगी इस मनुज को,
भटकते न जाने कहाँ घूमते हैं।
सभी कुछ इन्हें याद रहता जगत में,
हुआ क्या इन्हें जो तुम्हें भूलते हैं॥
करी है कपूती सो दुःख पा रहे हैं,
मगर आप थामो इन्हें राह दो माँ॥

मिली बुद्धि तुमसे इन्हें माँ अनोखी,
उसी से स्वयं को ठगे जा रहे हैं।
मिली शक्ति भारी तुम्हीं से इन्हें जो,
उसी से स्वयं पर कहर ढा रहे हैं॥
अरे कौन समझाए इन पागलों को,
इन्हें तो पकड़कर तुम्हीं सीख दो माँ॥

करोगी तुम्हीं पर हमें साथ ले लो,
सृजन मोरचे पर चरण रोप देंगे।
तुम्हारा दिया कुछ हमें भी मिला है,
सृजन यज्ञ में हम उसे झोंक देंगे॥
जियें या मरें माँ तुम्हारे ही बनकर,
हमें एक ऐसी अडिग चाह दो माँ॥

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