गीत संजीवनी-7

न सोचो अकेली- किरण क्या

<<   |   <   | |   >   |   >>
न सोचो अकेली- किरण क्या करेगी।
तिमिर में अकेली- किरण ही बहुत है॥

कठिन हो कि जब- एक पग भी बढ़ाना।
कठिन हो कोई गीत- जब गुनगुनाना॥
थकावट भरे- उन व्यथा के क्षणों में।
बरसता हुआ एक घन ही बहुत है॥

समय भूमि की- पात्रता बिन विचारे।
निरर्थक गिरे मेघ- जल बिन्दु सारे॥
समय पर अगर सीप में गिर सके तो।
अकेला मृदुल स्वातिकण ही बहुत है॥

अनेकों जगह तीरथों में नहाया।
मगर आत्मसन्तोष- कुछ मिल न पाया॥
हृदय भावना से भरा हो अगर तो।
विमल वारि का आचमन ही बहुत है॥

न अब है समय- अब न सोचो निमिष भर।
चलो चल पड़ो- आत्मसंकल्प लेकर
खड़ा ध्वंस के आखिरी छोर पर जो।
सृजन के लिए एक क्षण ही बहुत है॥

मुक्तक-

न हो साथ कोई- अकेले चलो तुम- सफलता तुम्हारे चरण चूम लेगी।
अगर उग सको तो उगो सूर्य से तुम- प्रखरता तुम्हारे चरण चूम लेगी॥
अगर बन सको तो पंछी बनो तुम- प्रवरता तुम्हारे चरण चूम लेगी।
अगर जी सको तो जियो जूझकर तुम- अमरता तुम्हारे चरण चूम लेगी॥

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: