गीत संजीवनी-11

सुप्त युग जाग्रत करो

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सुप्त युग जाग्रत करो, आवाज देकर।
गूँज जायेगी गिरा सन्देश बनकर॥

हर दिशा से रुदन की आवाज आती।
जर्जरित अवसाद से प्रत्येक छाती॥
कामनाओं की पिपासा है सताती।
यह दशा दयनीय मानव की रुलाती॥
तुम बनाओ पथ सुखद- नव जिन्दगी का।
शान्ति पा जाए मनुज उस राह चलकर॥

है प्रथम कर्तव्य पीड़ा को मिटाना।
और घावों पर स्वयं मरहम चढ़ाना॥
राह भूले हैं- दिशा उनको बताना॥
हर दुःखी जन को कलेजे से लगाना॥
आज जीने की कला सबको सिखादो।
पीड़ितों के तुम बनो प्रिय प्राण सहचर॥

बीज नव- निर्माण का श्रम से उगाओ।
नींव के पत्थर बनो खुद को मिटाओ॥
जल उठे दीपक बुझे- वह गान गाओ॥
विश्व का नव कल्प कर दो- जूझ जाओ॥
कल तुम्हारा मूल्य आँका जाएगा- पर।
आज तो सब कुछ लुटा दो मोह तजकर॥

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