देव संस्कृति व्यापक बनेगी सीमित न रहेगी

संस्कृति के पुनरोत्थान का संकल्प

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इन दिनों भारत की सांस्कृतिक विरासत को नये सिरे से संभालने, संजोने, सुधारने के अतिरिक्त उसे जन-जन तक पहुंचाने का निश्चय जिन चेतना केन्द्रों ने किया है उनमें भारत के ‘युगान्तर चेतना’ मिशन को अग्रिम एवं मूर्धन्य माना जाता है। उसको बहुमुखी गतिविधियां लोकमानस के परिष्कार के, सत्प्रवृत्ति संवर्धन, अनौचित्य-उन्मूलन के मोर्चों पर एक साथ घमासान युद्ध रचे हुए हैं। सृजनात्मक लक्ष्य लेकर चलने वालों को भी जहां तहां खोदना काटना पड़ता है। सुधार और परिवर्तन के अप्रिय प्रसंगों को अनिवार्य जितने न्यूनतम अनुपात में लेकर इस मिशन की समूची सामर्थ्य इसी एक प्रयोजन पर केन्द्रीभूत हो रही है कि मनुष्य- समुदाय को किस प्रकार सुसंस्कृत, समुन्नत एवं विभूतिवान बनाया जाय। यह कार्य सांस्कृतिक चेतना उभारने से ही सम्भव है सो उसी पक्ष को प्रमुखता देकर चला जा रहा है।

शांतिकुंज हरिद्वार के ‘‘युगान्तर चेतना’’ अभियान का यह निश्चय है कि विश्व-भर में देव संस्कृति का आलोक पहुंचाने और जन-जन को उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्त्तृत्व का महत्व हृदयंगम कराने का प्रबल प्रयत्न किया जाय। यह निर्धारण ठीक वैसा ही है जैसा कि अतीत में महामनीषियों ने एक सुनिश्चित नीति की तरह अपनाया था अगणित प्राणवान इस निर्धारण को सफल बनाने में भारी योगदान देते और कृत-कृत्य होते रहे हैं। इन दिनों निर्धारणों की उत्कृष्टता ही न रही तो फिर सहयोग भी किसका मिले? क्यों मिले? इस विपन्नता के रहते हुए भी इस परिवार ने अपने देश को सुधारने की बात को प्रमुखता देते हुए भी उतने तक सीमित न रहने का निश्चय किया है और समूचे विश्व-परिवार में सांस्कृतिक उत्कृष्टता की भावभरी उमंगें उभारने का कार्यक्रम बनाया है। इस परिवार के इस विश्वस्तरीय स्वरूप को विचारधारा और कार्य-पद्धति को एक शब्द में समझना हो तो उसे ‘‘आप्त-निर्धारणों का सार, संक्षेप एवं सामयिक परिस्थितियों से तालमेल बिठा सकने वाला सुनियोजन’’ कह सकते हैं। सागर को गागर में देखना हो तो अतीत की सुविस्तृत सांस्कृतिक परम्पराओं को पुनर्जीवित करने वाले इस छोटे प्रयत्न किन्तु महान प्रयोजन को सूक्ष्म दृष्टि से देखा और गहराई में प्रवेश करके समझा जा सकता है। साधनों परिस्थितियों की अनुकूलता न रहने से स्वरूप छोटा हो सकता है पर उस उद्देश्य में रत्ती भर भी कमी नहीं रखी गई है जिसके आधार पर देव-मानवों ने उत्कृष्टता की संस्कृति को सृजा-पोषा और विश्व-वसुधा के प्रत्येक घटक को लाभान्वित करने का व्रत निभाया था। इस मिशन की ‘‘विश्व निर्माण योजना’’ उसी आप्त परम्परा को छोटी किन्तु यथावत् क्रियान्वित होने वाली प्रक्रिया है।
इस योजना के अनेकों पक्ष हैं जिन्हें प्रायः दूसरे मिशनों द्वारा किए जा रहे व्यापक प्रयत्नों से मिलता-जुलता समझा जा सकता है। उन बहुमुखी प्रयत्नों में से इन पंक्तियों में जिसकी चर्चा की जा रही है वह है—प्रवासी भारतीय-बन्धुओं को देव-संस्कृति के प्रभाव में उसी स्तर पर रखे रहना जैसा कि उन्हें रहना चाहिए। भारतीय मूल के अंश-वंश वाले लोगों से यह प्रयत्न आरंभ किया जा रहा है कि उनकी रक्त परम्परा से जुड़ी हुई दैवी सम्पदा को उभारने और परिपुष्ट करने का काम हाथ में लिया जाय और देखा जाय कि इस उर्वर भूमि में प्रस्तुत प्रयत्नों को कितनी सफलता मिली। मोर्चे पर भेजने से पहले शस्त्रों की क्षमता और प्रयोक्ताओं की दक्षता जानी जाती है। विश्व-सुधार का महान लक्ष्य सर्वप्रथम इस प्रयोगशाला में जाना परखा जा रहा है कि भारतीय मूल के लोगों की सुरुचि उभारने और परिपक्व करने में कितनी सफलता मिली
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