देव संस्कृति व्यापक बनेगी सीमित न रहेगी

अनेकता में एकता – देव संस्कृति की विशेषता

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यहां एक बात और याद रखनी चाहिए कि संस्कृति माता की तरह अत्यंत विशाल हृदय है। धर्म सम्प्रदाय उसके छोटे-छोटे बाल-बच्चों की तरह हैं, जो आकृति-प्रकृति में एक दूसरे से अनमेल होते हुए भी माता की गोद में समान रूप से खेलते और सहानुभूति, स्नेह, सहयोग पाते हैं। भारत एक विचित्र देश है। इसमें धर्म, सम्प्रदायों की, जाति बिरादरियों की, प्रथा परंपराओं की बहुलता है। भाषायें भी ढेरों बोली जाती हैं। इनके प्रति परम्परागत रुझान और प्रचलनों का अभ्यास बना रहने पर भी सांस्कृतिक एकता में कोई अन्तर नहीं आता। इसी लिए एक ही धर्म संस्कृति के लोग मात्र प्रान्त, भाषा, सम्प्रदाय, प्रथा प्रचलन जैसे छोटे कारणों को लेकर एक दूसरे से पृथक अनुभव करें उदासीनता बरतें और असहयोग दिखायें तो इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है।

यह एक शोचनीय बात है कि देव संस्कृति की गरिमा को उसके उत्तराधिकारी ही उपेक्षा के गर्त में धकेलते चले जा रहे हैं। जबकि अन्यत्र धर्म संस्कृतियों में वैसी अवमानना दृष्टिगोचर नहीं होती। संस्कृति को प्रथा प्रचलन की परिपाटी भर मान बैठना भूल है। उसके साथ एक महान परम्परा को दिव्यधारा प्रवाहित होती है। उसे यदि सही रूप से समझाया और अपनाया जा सके तो अतीत जैसे गौरव, वातावरण और वैभव का पुनर्जीवित हो उठना सुनिश्चित है। अस्तु प्रयत्न यह होना चाहिए कि देव संस्कृति के दर्शन, स्वरूप, प्रचलन, प्रतिपादन को जानने, अपनाने का अवसर संसारभर के मनुष्य समुदाय को मिलता रहे। यदि वर्तमान परिस्थितियों में वैसा न बन पड़े तो कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि जो लोग भारतीय संस्कृति पर विश्वास करते हैं वे उसके स्वरूप को भली प्रकार समझें और जितना संभव हो, उतना अपनाए रहने का सच्चे मन से प्रयास करें।

यह आवश्यकता भारत व बाहर बसे प्रत्येक देव संस्कृति के अनुयायी को अनुभव करनी चाहिए कि मध्यकालीन कुरीतियों, अन्धविश्वासों एवं धर्म क्षेत्र में घुस पड़ी अनेकानेक विकृतियों को बुहारने के उपरांत जो शाश्वत और सत्य बच जाता है उसे न केवल मान्यता देने का, वरन् जन-जन को अवगत कराने तथा व्यवहार में सुस्थिर बनाए रहने का भाव भरा प्रयास किया जाय।

प्रवासी भारतियों को भिन्न परिस्थितियों, भिन्न वातावरण में एवं भिन्न प्रकार के व्यक्तियों के बीच निर्वाह करना पड़ता है। स्वभावतः बहुसंख्यक लोगों का प्रभाव अल्प संख्यकों पर पड़ता है। इन दिनों भारतीय संस्कृति की अवहेलना उसके अनुयायियों द्वारा हो की जाने के कारण विदेशों में उनका पक्ष और भी अधिक कमजोर पड़ता है। स्थिरता एवं प्रोत्साहन का आधार न मिलने और सामने ईसाइयत जैसे प्रचलनों का दबाव पड़ने से गाड़ी स्वभावतः उसी पटरी पर घूमने लगती है। प्रवासी भारतियों को हर पीढ़ी अपने पूर्वजों की तुलना में देवसंस्कृति के लिये कम रुचि दिखाती और अधिक उपेक्षा बरतती देखी जा सकती है। प्रवाह इसी दिशा में बहता रहा तो वह दिन दूर नहीं, जब प्रवासी भारतीय अपनी सांस्कृतिक आस्थाओं से विरत होते-होते किसी दिन उसे पूर्णतया तिलांजलि दे बैठेंगे।
होना यह चाहिए था कि प्रवासी भारतीय अपने-अपने देशों में अपने राष्ट्र के प्रति पूरी निष्ठ रखते हुए वहां भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि बनकर रहते-अपनी स्थिति संगठित एवं प्रभावोत्पादक बनाते अपरिचित लोगों को इस गरिमा से परिचित एवं प्रभावित करते। ऐसा बन पड़ा होता तो शताब्दियों से बसे प्रवासी भारतीय उन-उन देशों में से असंख्य लोगों को इस महान परम्परा का अनुयायी बनाने में सफल हो चुके होते। किन्तु होता उल्टा रहा है। बढ़ना तो दूर, वे घटे ही हैं, जब कि सर्वत्र जनसंख्या वृद्धि की बाढ़ सी आयी है।
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