मध्यकाल के अन्धकार युग ने इस ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ भारत भूमि की सारी विशेषताओं का अपहरण कर लिया। पतन और पराभव ही पल्ले रह गया। अब हम दानी नहीं याचक भर बनकर रह गए हैं। शासन, अर्थ, शिक्षा, विज्ञान आदि भौतिक क्षेत्रों में ही नहीं संस्कृति की दृष्टि से भी भारत वर्ष झाया तक भर है। निर्यातक बनने की स्थिति तो अभी तक नहीं बन पाई। इस दृष्टि से ईसाई-मिशन निर्यातक होने का गौरव प्राप्त करते हैं। इस देश के साधुबाबा, धर्म प्रचारक और दूसरे लोग कभी विदेश जाते हैं तो लालच की आंखें और याचना की झोली भर लेकर बाहर पहुंचते हैं। बहाने बनाने के हजार रास्ते हैं। मांगने के लिए भी अनेकों सच्चे झूठे कारण एवं पाखण्ड खड़े किये जा सकते हैं। दृष्टि तो वही रही, जिसके कारण उनके प्रति जन-साधारण को श्रद्धा घटती और प्रभावोत्पादक सामर्थ्य मिटती है।
यहां चर्चा समर्थ देशों से राजनैतिक, वैज्ञानिक, आर्थिक याचना के होते रहने वाले प्रयत्नों की नहीं हो रही वह दूसरे लोगों के सोचने की बात है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक एवं राजनैतिक सामंजस्य एवं सन्तुलन के निर्धारण का दायित्व एक वर्ग-विशेष पर है, इन पंक्तियों में उस सांस्कृतिक दरिद्रता का ऊहापोह चल रहा है जिसके कारण पूर्वजों की भांति भारत-भूमि के देव पुत्र विश्व मानव को वह भी नहीं दे पाते जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती है। जब कि इस गई गुजरी स्थिति में भी दे सकने योग्य उनके पास बहुत कुछ है।
सर्व विदित है कि भौतिकवादी दृष्टिकोण और सम्पन्नता के दुरुपयोग ने नैतिक मूल्यों का बुरी तरह ह्रास किया है। फलतः पारस्परिक स्नेह सहयोग में भारी कमी आई है। स्वार्थपरता और निष्ठुरता बढ़ने से सारा प्रचलन ही उलट गया है और विषाक्त वातावरण ने जनजीवन को अनिश्चित, अशान्त और आतंकित करके रख दिया है। इन दिनों समृद्धि तो निश्चित रूप से बढ़ी है पर साथ ही यह भी स्पष्ट है कि पूर्वजों को स्वल्प साधन वाली स्थिति की तुलना में वह अत्यन्त तुच्छ और कष्ट कारक बन कर रह रही है। इस व्यापक विपन्नता को दूर करने के लिए भारत अभी भी इस स्थिति में है कि पूर्वजों के प्रतिपादनों और निर्धारणों से अवगत कराते हुए, विश्वमानस को यह सुझाये कि विनाश के कगार पर खड़ी सभ्यता को पीछे लौटने और शांति पूर्वक जीने का क्या तरीका हो सकता है।