निस्सन्देह भारत बहुत कुछ खो चुका उसके पास जो बचा है अस्त व्यस्त और नष्ट-भ्रष्ट है। फिर भी उसके कुछ टुकड़े ऐसे हैं जिन्हें अभी भी डूबते को तिनके के सहारे की तरह प्रयुक्त किया जा सकता है। जैसे संयुक्त-परिवार पद्धति, पतिव्रत धर्म, जीवित और मृतक पूर्वजों के लिए चरण स्पर्श, श्राद्ध तर्पण जैसे माध्यमों से कृतज्ञता ज्ञापन, परलोक पर विश्वास से नीति नियन्त्रण, परमार्थ के लिए अंशदान, प्राणियों के प्रति करुणा, स्वल्प-सन्तोष, अतीन्द्रिय क्षमताओं का क्षेत्र जैसे अनेकों प्रचलन ऐसे हैं कि उन्हें विश्व प्रचलन में स्थान देने की बात नये सिरे से नये प्रयत्नों से उठाई जा सके तो भारत वैसा ही श्रेयाधिकारी हो सकता है जैसा कि इन दिनों समर्थ देश अपने शस्त्र एवं साधन देकर वर्चस्व प्राप्त कर रहे हैं। आवश्यकता मात्र समर्थता एवं प्रभुत्व की परिभाषाएं बदलने की है। यह पुरुषार्थ वर्तमान प्रतिकूल परिस्थितियों में ही किया जाना है। यह असम्भव नहीं पूर्ण रूपेण सम्भव है।
वैभव न सही, दिशा दे सकने वाला आलोक अभी भी पूर्वजों की तिजोरियों में भरा पड़ा है और उसका प्रमाण परिचय अभी भी टूटे झोंपड़ों में अपने अस्तित्व को ज्यों का त्यों करके जीवित रखे हुए है। यह बपौती भी इतनी मूल्यवान है कि इसे संसार की मण्डी में प्रस्तुत किया जा सके तो विचारशीलता उसका महत्व समझे बिना न रहेगी। इतना ही नहीं उसे अपनाए जाने की भी पूरी-पूरी संभावना है क्योंकि उस महान अनुसरण के विकल्प में एक ही मार्ग बच रहा है मनुष्य-समुदाय द्वारा सामूहिक आत्महत्या का वरण किया जाना।
परिस्थितियों ने सभी की चेतना को झकझोरा है। इस संदर्भ में भारत की सांस्कृतिक गरिमा ने भी करवट बदली है और समय की मांग को पूरा करने के लिए उन कर्त्तव्यों को अपनाने का निश्चय किया है जिसके लिए पूर्वजों की आत्माएं कहती-कचोटती ही नहीं, धिक्कारती भी रही है। समृद्धि ही सब कुछ नहीं है। संस्कृति का महत्व परोक्ष होते हुए भी इतना अधिक है कि उसके बिना भौतिक उपलब्धियां आकर्षक होते हुए भी परिणाम में अभिशाप ही बनकर रहती हैं। सम्पदा का अपना महत्व है संस्कृति का अपना। दोनों की उपयोगिता तो है पर समता नहीं। संस्कृति मनुष्यता का प्राण है और सम्पदा कलेवर। कलेवर के न रहने पर भी प्राण का अस्तित्व रह सकता है पर प्राण के बिना कलेवर की तत्काल दुर्गति आरंभ हो जाती है। वैभव उपार्जन में पिछड़े होने पर भी भारत विश्व को सांस्कृतिक अनुदान-आध्यात्मिक दृष्टिकोण एवं शालीनता से भरी-पूरी परम्पराओं का निर्यात कर सकता है। इन अनुदानों से विश्व संकट को विनाशोन्मुख विभीषिका के समापन में उतनी राहत मिल सकती है कि मानवी अस्तित्व को संतोष की सांस लेने का उज्ज्वल भविष्य के पूर्ण दर्शन कर सकने का अवसर मिल सके।