प्रवासी भारतियों की संख्या प्रायः पौने तीन करोड़ है। वे संसार के प्रायः 91 देशों में न्यूनाधिक मात्रा में बिखरे हुए हैं। इन सभी से सम्पर्क साधने, भावना सूत्र जोड़ने का ‘युगान्तर चेतना’ मिशन ने अब निश्चय किया है। हृदय द्वारा शरीर के विभिन्न अवयवों में रक्त पहुंचाने का माध्यम धमनियां ही होती है। प्रवासी भारतियों में सांस्कृतिक चेतना जगाने और उनके माध्यम से उन क्षेत्रों में आलोक वितरण का प्रबन्ध करने की योजना का प्रथम चरण यही है कि धमनियों की शिथिलता और अशुद्धता दूर करके उन्हें प्रखर एवं सतत प्रवाहमान बनाया जाय। इसके लिए तीन कार्यक्रम बने हैं—(1) भारत से ऐसे प्रचारक भेजे जायें जो उन क्षेत्रों में सांस्कृतिक चेतना उभारने का उद्देश्य पूरा कर सकें। (2) ऐसा साहित्य विनिर्मित किया और पहुंचाया जाय जो प्रवासी समुदाय को वर्तमान मनःस्थिति एवं परिस्थिति से ताल-मेल बिठाते हुए अपनी महान परम्पराओं को अपनाने की प्रेरणा दे सके। (3) भारत में एक ऐसा प्रशिक्षण केन्द्र बनाया जाय जहां प्रवासी भारतीय समय-समय पर आकर रह सकें। तीर्थ यात्री मात्र पर्यटन का आनन्द ही नहीं सांस्कृतिक चेतना को हृदयंगम करने और आगे बढ़ाने का प्रकाश पा सके।
यह तीनों ही कार्य अपने ढंग के अनोखे होते हुए भी नितान्त आवश्यक हैं। इन्हें किए बिना यह प्रयोजन पूरा नहीं हो सकेगा, जिस में देव संस्कृति को प्राचीन काल की तरह विश्व के कोने-कोने में पहुंचाने का निर्धारण किया गया है। चूंकि इस निर्धारण में प्राथमिकता सरलता और आवश्यकता की दृष्टि से प्रवासी भारतियों को दी गई है। इसलिए उपयुक्त ताल-मेल बिठाने की दृष्टि से उन्हें उपरोक्त तीन कार्यक्रमों को आधारभूत निर्धारण मान कर ही चलना होगा।
गायत्री नगर—शान्तिकुंज, हरिद्वार, उत्तर प्रदेश में इतना स्थान साधन वातावरण एवं प्रखरता सम्पन्न लोक सेवी समुदाय विद्यमान है कि उपरोक्त योजना का सुव्यवस्थित रूप से क्रियान्वयन संभव हो सके। प्रथम प्रयास के रूप में प्रो. लोकेश ने सन् 1980 में प्रवासी भारतियों के बाहुल्य वाले प्रायः दो दर्जन देशों में दौरा किया और सम्पर्क साधा है। फलतः वह पृष्ठभूमि बनी है जिसके आधार पर उपरोक्त त्रिसूत्री योजना को मूर्त्त-रूप दे सकना अविलम्ब सम्भव हो सके। आलोक वितरण की यह प्रक्रिया आगे भी सतत रूप से चलती रहेगी।
यों इस संदर्भ में भारत में जब तब भाव-भरी चर्चा होती रहती है और कुछ करने की बात पर भी थोड़ा बहुत विचार मंथन हुआ करता है। कभी-कभी कुछ योजनाएं भी कागजों पर छपती और प्रचारित होती रहती हैं पर ऐसा देखने में नहीं आया कि कहीं कोई साहसिक कदम उठाये गये हों। किसी भी योजना के पीछे दूरदर्शिता एवं व्यापकता की एक बहुत बड़ी कमी रही है। छुट-पुट रूप से वैयक्तिक या तथाकथित संस्थाओं के माध्यम से योग साधन, धर्म प्रचार जैसे प्रयासों की गतिविधियां ही अपने बहिरंग स्वरूप में कहीं-कहीं कभी-कभी दृष्टिगोचर होती रहती हैं। ऐसा प्रयास जिसमें आदि से अन्त तक की बात विचार की गई हो और समग्र सुनियोजित कार्यक्रम बनाकर कुछ सक्रियता की बात विचारी गई हो, सुनिश्चित कदम बढ़ाये गये हों, अब तक बन नहीं पड़ा। इस महत् आवश्यकता को बड़ी तैयारी के साथ एक बड़े सशक्त तंत्र के माध्यम से पूर्ति करने का संकल्प ऐसा है जिसे विश्व-आकाश में देव संस्कृति का अरुणोदय, अभिनन्दनीय एवं उत्साहवर्धक प्रयोग ही कहा जा सकता है।