भारतीय संस्कृति की महानता को देखते हुए विज्ञ समुदाय की यह मान्यता दिन-दिन सुदृढ़ होती जा रही है कि अगले दिनों समस्त विश्व की एक समन्वित संस्कृति होगी और उसका निर्धारण भारतीय संस्कृति के सिद्धान्तों एवं प्रचलनों के आधार पर होगा। ऐसी स्थिति में इस महान परम्परा के अनुयायियों का धर्म कर्तव्य हो जाता है कि वे न केवल उसके दर्शन, स्वरूप, व्यवहार, प्रयोग-उपयोग आदि से सर्वसाधारण को परिचित करें वरन् स्वयं इस प्रकार की जीवनचर्या भी अपनायें जिससे सिद्धान्त एवं व्यवहार दोनों का समन्वय हो, प्रतिपादन एवं अनुगमन के दोनों ही क्षेत्र गौरवान्वित हो सकें।
इस संदर्भ में एक ऐसा सशक्त तंत्र खड़ा होना चाहिये जो भारत भूमि को इस बात के लिए बाधित करे कि वह अपना पयपान प्रवासी बालकों को पिलाते रहने का उपक्रम करे और साथ ही प्रवासी भारतीयों में अनुदान से लाभान्वित होने की आकांक्षा जगाये। ईसाई देशों के मिशन एशिया, अफ्रीका के अनेक देशों में अपनी सामर्थ्य का बढ़ा चढ़ा उपयोग ईसाई संस्कृति के विस्तार में करते हैं। प्रवासी देव पुत्रों से इतना तो न सही, इतना तो बन पड़ना ही चाहिये कि स्वयं में भावनात्मक कुण्ठा पनपने की स्थिति न आ पाये। विश्वास किया जाना चाहिए कि ऐसा प्रयास तंत्र खड़ा होगा तो विश्व के कौने-कौने में बसे हुए भारत भूमि के संस्कृति प्रेमी उसका स्वागत ही नहीं, सहयोग भी करेंगे।
पिछले दिनों भारत से धर्म-प्रचारकों के रूप में अर्थ लोलुप ही जाते रहे हैं। योग शिक्षा से लेकर आश्रम मंदिर आदि बनाने के बहाने चन्दा एकत्र करना और उसे समेट-बटोर कर ले आना। यही एक धंधा उन लोगों का रहा है जो प्रवासी भारतियों में धर्मप्रचार का लबादा ओढ़कर पहुंचते रहे हैं। स्वभावतः इससे अश्रद्धा बढ़ी है और इस प्रकार के प्रचारकों का आगमन आशंका और अविश्वास की दृष्टि से देखा जाने लगा है। यदि इस गंदगी को साफ कर ईसाई चर्च जैसा रचनात्मक कार्यक्रम लेकर आगे बढ़ा जा सके तो निस्सन्देह एक बड़ा काम हो सकता है। प्रवासी भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि से न केवल स्वयं समर्थ सम्पन्न हो सकते हैं, वरन् अपने सम्पर्क क्षेत्र में असंख्यकों को प्रभावित कर सकने वालों का सफल सार्थक तंत्र खड़ा कर सकते हैं।
बौद्धकाल में नालन्दा तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय प्रधानतया इसी प्रयोजन में निरत रहते थे कि देव संस्कृति से विश्व के कोने-कोने को लाभान्वित कर सकने वाले व्यक्तित्वों के ढाला जाय। इससे पूर्व वानप्रस्थों और संन्यासियों की परम्परा प्रव्रज्या अपना कर बादलों की तरह सुदूर क्षेत्रों में पहुंचती और बरसती रही है। आज की स्थिति में दुहरा प्रयत्न हो सकता है कि भारत के लोग वहां संभालने पहुंचे और वहां के लोग भारत में प्रशिक्षण प्राप्त करने आये जिसके सहारे विभिन्न देशों में बसे हुए भारतीय अपने समुदाय को सांस्कृतिक दृष्टि से न केवल प्रौढ़ परिपक्व बना सकें वरन् उन क्षेत्रों में देव संस्कृति के अग्रदूत कन कर आलोक वितरण की समर्थ भूमिका निभा सकें।