कोई बात कितनी ही महान क्यों न हो, यदि वह व्यवहार में न उतरे, चिन्तन पर छाई न रहे तो पुस्तकों में सीमाबद्ध रहने पर भी वह उपेक्षित होते होते विस्मृति के गर्त्त में जा गिरेगी और अपना अस्तित्व गंवा देगी। देव संस्कृति के उत्तराधिकारियों के कंधों पर यह विशेष जिम्मेदारी है कि यदि इन्हें पूर्वजों की थाती पर गर्व अनुभव होता हो तो उतना साहस भी जुटायें कि उसे अपनी जीवनचर्या में समाविष्ट रहने का अवसर मिलता रहे। भावी पीढ़ियों को, पड़ौसी-स्नेही संबन्धियों को किसी संस्कृति का महत्व तथा उपयोग तभी विदित हो सकता है जब वे उसे प्रत्यक्ष व्यवहार में क्रियान्वित होते देखेंगे।
तत्वदर्शन अन्तराल की गहराई में घुसा होता है। वह प्रत्यक्षतः दिखाई नहीं देता। परिचय मिलने और प्रभाव पड़ने की स्थिति तब बनती है जब किसी परिपाटी को आंखों से देखने और कान से सुनने का अवसर मिलता है। देवमानवों द्वारा युग−युगों के अनुसंधान और तप साधन से उपार्जित सम्पदा एक ही है ‘‘उनके द्वारा निर्धारित, प्रतिपादित भारतीय संस्कृति’’! उसे उपेक्षा के गर्त्त में गिर कर नष्ट होते हुए मूकदर्शक की तरह देखते रहना इस बात का परिचायक है कि अब हम भावनाशून्य हो चले। श्रद्धा और कृतज्ञता का उत्तराधिकार के साथ कंधों पर आने वाली जिम्मेदारी का हमें भान ही नहीं रह गया। यह ऐसी स्थिति है, जिसे अनास्था जन्य दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है। वह यदि पनपे तो भावनाशीलों का कर्त्तव्य है कि समय रहते स्थिति को सुधारें।
अगले दिनों भारत में जन्मी देव संस्कृति ही विश्व संस्कृति बनेगी। उसकी गरिमा को समय रहते इतना उभार देना चाहिये कि बिना कठिनाई के उसे श्रद्धा अर्जित करने का भूतकाल जैसा अवसर मिल सके। इस प्रयास में एक महत्वपूर्ण कड़ी यह हो सकती है कि भारत-भूमि और प्रवासी भारतियों के बीच सांस्कृतिक आदान प्रदान अधिक सुनियोजित ढंग से तत्काल आरम्भ हो सके। ‘युगान्तर चेतना’ के माध्यम से भारत वर्ष से इस कार्य का शुभारंभ किया जा रहा है।