समुचित शिक्षा के लिए कितने ही प्रवासी अपने बालकों को भारत में भेजना चाहते हैं। विशेषतया कन्याओं के बारे में वहां की सहशिक्षा उन्हें प्रतिकूल ही पड़ती है। अपने बालकों को अशिक्षित कौन रखना चाहे? फिर उस वातावरण में झोंकने के अतिरिक्त और कोई चारा रह नहीं जाता जिसमें घुसने के बाद पढ़ाई पूरी करते-करते वे आधे ईसाई बन जाते हैं। दोनों ही स्थिति उनके लिए असह्य पड़ती हैं। न अशिक्षित रखते बनता है और न पैसा खर्च कर विधर्मी बनाने के कृत्य पर संतोष होता है। ऐसी दशा में असंख्यों प्रवासी अपने बालकों को भारत में जहां-तहां पढ़ने भेजते हैं। पर यहां भी वह अपेक्षा पूरी नहीं होती जो अभिभावकों ने सोची थी। ऐसी दशा में एक उपाय यह होना चाहिए कि भारत में ऐसे विद्यालय न सही छात्रावास तो बन ही जायें जहां उनके अभिभावक निश्चिन्तता पूर्वक यह अनुभव कर सकें कि उनके बच्चे न केवल उपयुक्त शिक्षा ही पा रहे होंगे वरन् उन्हें सुसंस्कारिता दे सकने वाला उच्च स्तरीय संरक्षण भी मिल रहा होगा।