देव संस्कृति व्यापक बनेगी सीमित न रहेगी

विश्व को देवमानवों के अजस्र अनुदान

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भारत भूमि की परम्परागत महानता इतने तक सीमित नहीं थी कि यहां के निवासी समर्थ, समृद्ध एवं सुसंस्कृत भर थे। यदि बात इतनी छोटी होती तो इस प्रकार के उदाहरण अन्यत्र भी खोजे जा सकते थे। अपनी-अपनी परिधि में अपने ढंग से सभी उत्कर्ष अभ्युदय के प्रयत्न करते और योग्यता एवं परिस्थिति के अनुरूप सफल भी होते रहते थे। कौन कितना सफल हुआ अन्तर मात्र इतने भर का ही तो रहा। परिणामों में इस अनुपात से अन्तर तो रहेगा ही, पर तथ्य एवं प्रयत्न को असाधारण या अनुपम नहीं कहा जा सकता। भारत भूमि को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ इसीलिए कहा जाता है कि उसके अपने कुछ मौलिक निर्धारण एवं प्रयास थे। इनमें सर्वोपरि यह था कि जो पाया जाय उसे बिना अपने पराये का भेद-भाव किए बांटा बिखेरा जाय। इस विभाजन वितरण में विशेष तथा अधिक जरूरतमंदों को प्राथमिकता देने की नीति का पूरा-पूरा समावेश किया गया।

स्वर्गलोक के निवासियों की सम्पदा उन्हीं के काम आती है। धरती वाले उस वैभव का लाभ कहां उठा पाते हैं। देवताओं में देने को प्रवृत्ति तो है पर साथ ही इस स्तर की कि जो अनुनयपूर्वक मांगे उसी को अनुग्रह पूर्वक दिया जाय। बिना मांगे-स्वतः विपन्नता को तलाश करना और बिना याचना के इस विषमता को निरस्त करने के लिए जा पहुंचना यह विशेषता धरती के देवमानवों में ही पाई जाती है। व्यवहार में इसे तब उभरते देखा जाता है जब कभी भूकम्प, दुर्भिक्ष, बाढ़, अग्निकांड, महामारी, दुर्घटनाएं सामने आती हैं। अनेकों भावनाशील उस समय अपनी सहायता लेकर संकटग्रस्तों की सहायता को दौड़ते हैं। यह विशेष अवसर की विशेष बात हुई। उसे स्वभाव में जीवन क्रम में सम्मिलित रखा जाय – निरन्तर बरता जाय तो फिर इसे देवताओं से भी विशिष्ट कहा जायेगा। यही कारण है कि देवमानवों की मनःस्थिति एवं जीवनचर्या को सुरदुर्लभ कहा गया है। उस आनन्द से वंचित रहने के कारण देवता धरती पर उतरते और मनुष्य जन्म लेकर अपने को कृत-कृत्य करते हैं। भारत-भूमि को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ इसी दृष्टि से कहा जाता रहा है कि इस पर जन्मे और बढ़े व्यक्ति सदा से यह ध्यान रखते रहे कि उन्हें हर स्तर का वैभव प्रचुर परिमाण में कमाना तो है पर अकेले खाना नहीं है। जो हस्तगत होगा उसे अधिक अभाव ग्रस्तों को प्राथमिकता देते हुए व्यापक क्षेत्र में वितरण करते रहेंगे।
अतीत के विभूतिवानों-देवमानवों की इस विशेषता का सर्वविदित प्रमाण यह भी है कि उनने अपने देश के कौने-कौने में सुसंस्कारिता का वैभव बढ़ाने में कमी न रखी। इसके अतिरिक्त समस्त वसुधा को अपना कुटुम्ब मानकर कष्ट साध्य यात्रायें करते हुए वहां जा पहुंचे जहां पिछड़ेपन का अनुपात अपेक्षाकृत अधिक था। इतिहास साक्षी है कि अभ्युदय का वातावरण बनाने के लिए विश्व के कोने-कोने में इस भूमि की प्राणवान आत्मायें पहुंचती और वहां सर्वतोमुखी प्रगतिशीलता का वातावरण बनाती रही हैं। बादलों के ऐश्वर्य की गरिमा इसीलिए है कि वे जहां भी पहुंचते हैं, सरसता का उपहार देते हैं। सूर्य की वन्दना इसीलिए है कि उनका सम्पर्क क्षेत्र गर्मी और रोशनी से रहित रह ही नहीं सकता। भारत के देवमानवों ने समस्त विश्व को जो अजस्र अनुदान दिए हैं उनका कृतज्ञतापूर्वक अनन्तकाल तक स्मरण किया जाता रहेगा।
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