जिन देशों में भारतियों की संख्या अधिक है, धार्मिक साहित्य छापने का तन्त्र वहीं खड़ा करना चाहिए। लिखने की जिम्मेदारी भारत में उठाई जा सकती है पर छापकर वहां तक पहुंचाने में जो डाक खर्च लगता है उसे वहन कर सकना कठिन है। उस स्थिति में वह साहित्य बहुत महंगा पड़ेगा और लोकप्रिय न हो सकेगा। होना यह चाहिए कि प्रवासियों के उपयुक्त साहित्य यहां के मनीषी लिखें। उसकी थोड़ी-थोड़ी प्रतियां उन देशों के प्रकाशन तंत्र को भेजें। वे लोग इसकी ‘‘ऑफ सैट’’ प्रिंटिंग व्यवस्था कर लें। इस प्रकार प्रकाशित हुआ साहित्य सस्ता पड़ेगा, अधिकाधिक लोगों तक पहुंच सकेगा और उससे कुछ बचत होती होगी तो उस लाभ से उस संस्थान का खर्च भी चलता रह सकता है।
विदेशों में अंग्रेजी मुद्रण का तो प्रबन्ध है पर भारतीय भाषाओं के न तो टाइप मिलते हैं न कम्पोजीटर। ऐसी दशा में वहां मुद्रण का प्रबंध बन नहीं पड़ता। भारत में छपाया जाय तो मार्ग-व्यय पुस्तकों की लागत से भी महंगा पड़ता है। भारत से पुस्तकें ढूंढ़ी, मंगाई जायें तो इस प्रयोजन का व्यक्ति कदाचित ही कोई मिले जिससे प्रवासियों की जिज्ञासा एवं आवश्यकता का समाधान बन पड़े। यह कार्य भारतीय मनीषियों का है कि वे समय के अनुरूप धार्मिक साहित्य सृजें। उसकी आरंभिक प्रतियां भारत में छापने के उपरान्त भावी प्रकाशन का कार्य उन-उन देशों के प्रकाशन संस्थानों को सौंप दें। ‘‘आफ सेट’’ प्रिंटिंग में पृष्ठों की ज्यों की त्यों फोटो प्रति उतरती और सरलता पूर्वक छपती रह सकती हैं। जो साहित्य अंग्रेजी में छपे वह सामान्य टाइप प्रेस में भी मुद्रित होता रह सकता है। इस प्रक्रिया को अपनाने में निरत प्रवासी भारतियों को उसी प्रकार की सुविधा मिलने लगेगी जिस प्रकार की कि ईसाई मिशनों द्वारा संसार भर के ईसाइयों को उनकी आवश्यकता का साहित्य उन्हीं की भाषा में उपलब्ध कराया जाता है।