प्रकृति का अनुसरण

अग्नि तत्व का प्रयोग

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अग्नि तत्व जीवन का उत्पादक है। गर्मी के बिना कोई जीव या पौधा न तो उत्पन्न हो सकता है और न विकसित होता है। चैतन्यता जहां कहीं भी दिखाई पड़ती है उसका मूल गर्मी है। गर्मी समाप्त होते ही क्रियाशीलता समाप्त हो जाती है, शरीर की गर्मी का अन्त हो जाय तो जीवन का भी अन्त ही समझिये। अग्नि तत्व को सर्वोपरि समझते हुए आदि वेद ऋग्वेद में सर्वप्रथम मंत्र का सर्व प्रथम शब्द ‘अग्नि’ ही आया है। ‘अग्नि मीले पुरोहितं’ मंत्र में वेद भगवान ने ईश्वर को अग्नि नाम से पुकारा है। सूर्य अग्नि तत्व का मूर्तिमान प्रतीक है। इसीलिए सूर्य को जगत् की आत्मा माना गया है। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि जिन पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं को धूप पर्याप्त मात्रा में मिलती है वे स्वस्थ और निरोग रहते हैं। इसके विपरीत जहां धूप की जितनी कमी होती है वहां उतनी ही अस्वस्थता रहती है। अंग्रेजी में एक कहावत है कि ‘‘जहां धूप नहीं जाती वहां डॉक्टर जाते हैं।’’ अर्थात् प्रकाश रहित स्थानों में बीमारियां रहती हैं।

भारतीय तत्ववेत्ता अति प्राचीनकाल से सूर्य के गुणों से परिचित हैं, इसलिए उन्होंने सूर्य-उपासना की नाना विधि व्यवस्थाएं प्रचलित कर रखी हैं। अब पाश्चात्य भौतिक विज्ञानवादी भी सूर्य के अद्भुत गुणों से परिचित होते जा रहे हैं। सूर्य की सप्त किरणों में अल्ट्रा वायलेट और अल्फा वायलेट किरणें स्वास्थ्य के लिए बड़ी उपयोगी साबित हुई हैं। मशीनों द्वारा कृत्रिम रूप से भी यह किरणें पैदा की जाने लगी हैं, पर जितना लाभ सीधे सूर्य से आने वाली किरणों से होता है उतना मशीन द्वारा निर्मित किरणों से नहीं होता।

यूरोप अमेरिका में अब रोगियों को धूप के उपचार द्वारा अच्छा करने का विधान बड़े जोरों से चलने लगा है। वहां बड़े-बड़े अस्पताल केवल सूर्य शक्ति से बिना किसी औषधि के रोगियों को अच्छा करते हैं। क्रोमोपैथी नामक एक स्वतंत्र चिकित्सा पद्धति का आविष्कार हुआ है। जिसमें रंगीन कांच की सहायता से सूर्य की अमुक किरणों को आवश्यकतानुसार रोगी तक पहुंचाया जाता है। रोग कीटाणुओं का नाश करने की जितनी क्षमता धूप में है उतनी और किसी वस्तु में नहीं होती। क्षय के कीड़े जो बड़ी मुश्किल से मरते हैं, सूर्य के सम्मुख रखने से कुछ मिनटों में ही मर जाते हैं। अनेक उच्चकोटि के सुप्रसिद्ध डाक्टरों ने अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थों में सूर्य किरणों की सुविस्तृत महिमा गाई है और बताया है कि सूर्य से बढ़कर किसी भी औषधि में रोग निवारक शक्ति नहीं है। सूर्य किरणों में निरोग और रोगी सभी को समान रूप से फायदा होता है, इसलिए यदि नित्य नियमित रूप से निम्न विधि से सूर्यस्नान किया जा सके तो स्वास्थ्य सुधार में आश्चर्यजनक सहायता मिल सकती है।

सूर्य स्नान के लिए प्रातःकाल का समय सबसे अच्छा है। उससे घटिया दर्जे का समय संध्याकाल है। इसके लिए हलकी किरणें ही उत्तम हैं। तेज धूप में न बैठना चाहिए। सूर्य स्नान आरम्भ में आधा घण्टे करना चाहिए। लज्जा निवारण का एक बहुत छोटा हल्का, ढीला वस्त्र कटि प्रदेश में रखकर अन्य समस्त शरीर को नंगा रखना चाहिए। यदि एकान्त स्थान हो तो कटि वस्त्र को भी हटाया जा सकता है। सूर्य स्नान करते समय सिर को रूमाल या हरे पत्तों से ढक लेना चाहिए। केला या कमल जैसा बड़ा और शीतल प्रकृति का पत्ता मिल जाय तो और भी अच्छा अन्यथा नीम की पत्तियों का एक बड़ा-सा गुच्छा लिया जा सकता है, जिससे सिर ढक जाय।
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