प्रकृति का अनुसरण

जल तत्व का प्रयोग

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मनुष्य शरीर में जल का अंश 90 प्रतिशत और अन्य तत्व 10 प्रतिशत हैं। इससे प्रतीत होता है कि अन्य तत्वों की अपेक्षा जल तत्व की सर्वोपरि आवश्यकता है। इसके कम हो जाने से देह सूखने लगती है, नाड़ियां जकड़ने लगती हैं, हड्डियां निकल आती हैं, खून गाढ़ा हो जाता है और दाह, प्यास, खुश्की आदि के अनेक उपद्रव होने लगते हैं।

जल शरीर को सींचता है। प्रतिदिन कई सेर पानी लोग पीते हैं ताकि शरीर में जल तत्व की स्थिरता रहे। ताजे जल में रहने वाले उपयोगी रासायनिक पदार्थों से शरीर का पोषण होता है। भीतरी अंगों में जो विकृतियां उत्पन्न होती हैं वे पसीना, मूत्र तथा अन्य मलों के साथ द्रव्य रूप में बाहर निकलती रहती हैं। जैसे वर्षा से पौधे प्रफुल्ल एवं चैतन्य होते हैं और पानी के अभाव में वे कुम्हलाते एवं सूखते हैं, वही हाल शरीर का है। पर्याप्त मात्रा में उचित विधि से यदि अंग-प्रत्यंगों को जल प्राप्त होता रहे तो शरीर की दृढ़ता एवं स्वस्थता ठीक प्रकार बनी रहती है।

जल द्वारा रोगों के निवारण में महत्वपूर्ण कार्य होता रहता है। स्नान को ही लीजिए, वह स्वास्थ्य को ठीक रखने में अनुपम सहायता देता है। हिन्दू धर्म में हर उत्तम कार्य से पहले स्नान करने का विधान है। तीर्थ स्नान, माघ स्नान, बैसाख स्नान, कार्तिक स्नान, पर्व स्नान आदि नाना विधि-विधानों में स्नान की महत्ता से लोगों को लाभ उठाने के अवसर, धर्म के नाम पर दिये गये हैं। स्नान करना दैनिक कृत्य समझा जाता है। हिन्दू बिना स्नान किये भोजन नहीं करते। दैनिक कार्यक्रम में प्रातःकाल के प्रारम्भिक कार्यों में शौच के बाद स्नान का ही नम्बर आता है। बिना भोजन किए रह सकते हैं, पर बिना स्नान किए नहीं रह सकते। हिन्दू धर्म एक वैज्ञानिक धर्म है, उसमें उन्हीं आचार-विचारों को स्थान दिया जाता है जो शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए उपयोगी एवं आवश्यक हैं।

हिन्दू धर्मशास्त्र अत्यन्त प्राचीनकाल से कहता आ रहा है कि ‘‘अद्भिर्गात्राणि शुद्धयन्ति’’ अर्थात् शरीर की शुद्धि जल से होती है। देह में जो विकार, दोष, विष भरे हुए हैं, उन अशुद्धियों को निकाल कर शुद्धता प्राप्त करनी है तो जल का उपयोग करो। इन शास्त्र वचनों पर लोग उतना ध्यान नहीं देते थे, पर जब साइन्स भी इस उपदेश का अनुकरण करने को बाध्य हुई तो लोगों का ध्यान इधर आकर्षित हुआ है। यूरोपीय ठण्डे देशों में स्नान का उतना प्रचलन नहीं है, ठण्ड के कारण वहां सब कोई रोज नहीं नहाते। उन्हें स्नान का महत्व भी मालूम न था, पर अब जब कि वहां हर बात की नये सिरे से, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परीक्षा हो रही है तब स्नान का महत्व भी उनके सामने आया है। इसके लाभों को देखकर वे दंग रह गये हैं। अब अनेक विद्वानों ने स्नान को जीवन मूरि बताया है और उसी के आधार पर जल चिकित्सा का आविष्कार करके स्नान द्वारा सम्पूर्ण रोगों का निवारण करने के विज्ञान पर बड़े-बड़े मोटे ग्रन्थ लिखे हैं। भारतवासी इस बात को निर्विवाद रूप से मानते आ रहे हैं कि स्नान स्वास्थ्य के लिए बहुत ही उपयोगी है। भारतवर्ष गर्म देश होने के कारण यहां उसके लाभ और भी अधिक हैं। स्नान के महत्व को व्यावहारिक रूप से स्वीकार किये बिना इस देश में कोई मनुष्य स्वस्थ नहीं रह सकता।

दैनिक स्नान ‘हर हर गंगे’ करके दो लोटे सिर और पीट पर लुढ़का लेने के साथ समाप्त न कर देना चाहिए। यह तो स्नान का एक उपहास होगा। बेगार टालने के लिए नहीं, वरन् शरीर अशुद्धताओं के निवारण और देह सिंचन पोषण के लिए स्नान होना चाहिए। कुआं, नदी, नहर, झरना, सोता या ताजा पानी उत्तम है। उन बड़े तालाबों का पानी भी ठीक है जिन्हें मनुष्य या पशुओं द्वारा गंदला नहीं किया जाता या जिनमें कोई हानिकारक पदार्थ न पड़ते हों। बहने वाले ताजे पानी में जो तत्व होते हैं, वह रुके हुए, बर्तनों में भर कर रखे हुए पानी में नहीं रहते। बीमारों की विशेष आवश्यकता को छोड़कर साधारणतः सबको सह्य ताप के ठण्डे ताजे जल से स्नान करना चाहिए। हर ऋतु के लिए ऐसा पानी ठीक है। जरूरत हो तो धूप में रखकर उसमें थोड़ी गर्मी लाई जा सकती है। सिर पर गरम पानी डालना तो आंखों को नुकसान पहुंचाता है। बहुत तेज हवा में नहाना अच्छा नहीं। इसके लिए ऐसा स्थान रखना चाहिए जहां तेज हवा के झोंके न लगते हों। क्योंकि ठण्डे शरीर पर हवा की तेजी हर ऋतु में खराब असर डालती है।

स्नान करते समय मोटे खुरदरे तौलिए से त्वचा को धीरे-धीरे खूब रगड़ना चाहिए, जिससे चमड़ी लाल हो जाय। इस प्रकार घर्षण करने से देह के भीतर की गर्मी को उत्तेजना मिलती है, जैसे लोहे को गरम करके पानी में डाल कर लुहार लोग उसे मजबूत बना लेते हैं, उसी प्रकार घर्षण द्वारा गर्मी बढ़ाकर ठण्डे जल से स्नान करने पर शरीर मजबूत होता है। दूसरे जो त्वचा में जो बारीक छिद्र हैं वे साफ हो जाते हैं और पसीना ठीक प्रकार निकलता है। त्वचा पर जमा हुआ मैल छूट जाने से बदबू, चिपचिपाहट, आलस्य और उदासी दूर हो जाती है। पीठ, रीढ़ की हड्डी, गरदन, कन्धे, जंघाएं, गुप्त इन्द्रिय आदि कुछ स्थान ऐसे हैं जिनकी स्वच्छता पर स्नान के समय उचित ध्यान नहीं दिया जाता, यह ठीक नहीं, हर एक अंग की सफाई पर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। स्नान में जल्दबाजी से काम नहीं लेना चाहिए। धीरे-धीरे प्रसन्नता पूर्वक हर अंग की उचित सफाई करते हुए नहाना चाहिए। स्नान के बाद शरीर को कपड़े से सुखा डालना चाहिए। जाड़े के दिनों में एक बार और अन्य ऋतुओं में सुबह-शाम, दो बार स्नान करना चाहिए।

स्नान की नियमित और उचित रीति से व्यवस्था रखने पर रोगों के आक्रमण से बहुत बड़ी रक्षा होती रहती है, छोटे-मोटे रोग तो बिना जाने ही इस उपचार से अपने आप अच्छे होते रहते हैं। फुहारें के नीचे बैठकर स्नान करने से क्रीड़ा मनोरंजन और शीतलता अधिक प्राप्त होती है। नदी-तालाब में तैर कर नहाना कई दृष्टियों से बहुत अच्छा है। दो-चार मेह पड़ जाने के बाद वर्षा में स्नान करना भी बड़ा आनन्ददायक होता है। मेह में ऐसी जगह नहाना चाहिए जहां कि मकान, छप्पर आदि के गन्दे छींटे न आते हों। इसके लिए मैदान या घर की सबसे ऊपर वाली छत ठीक रहती है।
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