प्रकृति में वास्तविक सुन्दरता है। आजकल के फैशन के भार से युक्त पुरुष या
स्त्री को लोग सुन्दर समझते हैं उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते। यह
भ्रम-मात्र है। वास्तविक सौन्दर्य तो पूर्ण रूप से विकसित, परिपुष्ट और
स्वस्थ शरीर में है। प्रत्येक पुट्ठे और मांसपेशी में स्वाभाविक सौन्दर्य
है। जिस युवक या युवती के शरीर में लाल-लाल रक्त प्रवाहित होता है, जिसके
शरीर में स्वाभाविक लालिमा वर्तमान है, जिनका डीलडौल संतुलित है, न कोई अंग
पतला है, न कोई मोटा, न बादी न चर्बीयुक्त, न पेट ही बढ़ा हुआ है, नेत्र
सुन्दर और चमकदार हैं, त्वचा कोमल और लाल है। फेफड़े परिश्रम सहन कर लेते
हैं और गहरी नींद और आराम देते हैं, शुद्ध जल से (सोडा, लेमन, शराब, चाय,
शरबत से नहीं) जिनकी प्यास शान्त हो जाती है, चूरन-चटनी पर जिनकी जिह्वा
नहीं लपलपाती, जिनके स्वभाव में न चिड़-चिड़ापन है, न क्रोध, न उतावलापन,
उदासी या निरुत्साह है, ऐसे स्वस्थ मनुष्य को ही पूर्ण सुन्दर कहना युक्ति
संगत है।
एक प्रकृति प्रेमी के शब्दों में ‘‘मोर के नीले हरे पंख, सिंह की अयाल,
बारहसिंगा के उलझे हुए लम्बे सींग, सांड के चौड़े कंधे, मुर्गे की कलंगी,
सांप का चौड़ा फन, बिलाव की लम्बी मूंछ को सुन्दर मानने से कौन इन्कार कर
सकता है? पशु-पक्षियों में सारी सुन्दरता नर-वर्ग को मिली है। प्रकृति ने
जहां नर वर्ग को सुन्दरता प्रदान की वहां शक्ति भी दी। वस्तुतः पुरुष का
सौन्दर्य उसकी शक्ति में निहित है। उसका सौन्दर्य उसकी शक्ति द्वारा
प्रस्फुटित होता है।’’
पुरुष हो या स्त्री- वह पूर्ण स्वस्थ और सुन्दर बना रहना चाहता है, या
कुरूप से सुरूप होना चाहता है तो उसे प्रकृति का आश्रय ग्रहण करना होगा।
प्रकृति के नियमों का पालन करना होगा। व्यायाम और प्राकृतिक भोजन के
द्वारा, शरीर की प्रत्येक मांसपेशी को संतुलित रूप में विकसित करना होगा,
शक्ति का अर्जन करना होगा- तभी हम सुन्दर बन सकेंगे। प्रकृति में ही
वास्तविक सुन्दरता विद्यमान है।
चेहरे पर लाल रंग, पाउडर, क्रीम पोतने से क्या लाभ? वह तो पानी से धुल
जायेगा। यदि शरीर में मांस, स्वस्थ रक्त, उत्तम स्वास्थ्य और आरोग्य नहीं
तो उसे रेशमी कपड़ों या आभूषणों से अलंकृत करने से क्या सौन्दर्य प्राप्त
हो सकेगा? वास्तविक सौन्दर्य, जो चिरस्थायी है, जिसमें ईश्वरत्व प्रकट होता
है, वह प्राकृतिक सौन्दर्य ही है।
प्रकृति हमारी भूलें सुधारती है
हमारे शरीर की रचना ही कुछ ऐसी बनाई गई है कि प्रकृति अवांछनीय विजातीय
द्रव्यों, संचित विषों, गंदी वस्तुओं या विषैले पदार्थों को भिन्न-भिन्न
द्वारों से निकालकर बाहर करती रहती है। हमारी छोटी-मोटी भूलों, जैसे
खान-पान का असंयम, अत्यधिक थकान, चलते-फिरते, उठते-बैठते जीवन शक्तियों की
न्यूनता इत्यादि को प्रकृति स्वयं दुरुस्त करती है और प्रायः प्रकृति के इस
उपयोगी कार्य का हमें पता भी नहीं चलता। सृष्टि के सभी जीव-जन्तु इन्हीं
प्राकृतिक क्रियाओं से स्वस्थ रहते हैं। प्रकृति ने प्रत्येक शरीर में
ऐसे-ऐसे गुप्त द्वार रक्खे हैं जिनके द्वारा विषैले पदार्थ स्वयं निकलते
रहते हैं और हमारी आकृति में यथोचित सुन्दरता को अक्षुण्ण रखते हैं। यदि
प्रकृति इस महान कार्य को अपने आप स्वाभाविक गति से सम्पन्न न करती, तो
हमारे शरीर बेढंगे हो जाते, अंगों में भद्दापन और विषमता उत्पन्न हो जाती,
हम लोग रोज ही अपच, कब्ज, स्थूलता, सूजन, फोड़े-फुन्सी, गठिया, प्रमाद, सिर
दर्द या अन्य ऐसे ही छोटे-मोटे रोगों के शिकार रहा करते। भाग्यवश ऐसा नहीं
है। हमारे शरीर के अन्दर व्याप्त प्रकृति इन विषैले पदार्थों से निरन्तर
संघर्ष करती रहती है, अनावश्यक पदार्थों को शरीर में ठहरने नहीं देती और
हमारे साधारण शारीरिक विकारों को दुरुस्त करती है।