समस्त प्राकृतिक तत्वों में वायु बहुत सूक्ष्म है। पृथ्वी, जल, अग्नि की
अपेक्षा वायु की सूक्ष्मता अधिक है। इसलिए उनका गुण और प्रभाव भी अधिक है।
अन्न और जल के बिना कुछ समय मनुष्य जीवित रह सकता है, पर वायु के बिना एक
क्षण भर काम नहीं चल सकता। शरीर में अन्य तत्वों के विकार उतने खतरनाक नहीं
होते जितने कि वायु के विकार। जिस स्थान पर वायु विकृत होगी वही अंग तीव्र
वेदना का अनुभव करेगा और अपनी सारी शक्ति खो बैठेगा। वायु प्राण है इसलिए
प्राण वायु पर जीवन की निर्भरता मानी जाती है। सांस रुक जाय या पेट फूल जाय
तो मृत्यु में कुछ देर नहीं लगती। लोग वायु सेवन के लिए जरूरी काम छोड़कर
समय निकालते हैं। जहां की हवा खराब हो जाती है, वहां नाना प्रकार की
बीमारियां, महामारियां फैलती हैं। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति वहां रहना पसन्द
करते हैं जहां की वायु अच्छी हो। प्राणायाम करने वाले जानते हैं कि
विधिपूर्वक वायु साधना करने से उन्हें कितना लाभ होता है। निस्संदेह वायु
का स्वास्थ्य से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है और वायु के प्रयोग द्वारा अपनी
बिगड़ी हुई तन्दुरुस्ती को ठीक कर सकते हैं।
चिकित्सा जितनी स्थूल होती है उतना ही कम प्रभाव डालती है। चूर्ण, चटनी,
अवलेह आदि के रूप में ली हुई दवा पहले पेट में जाती है, वहां पचती है तब
रक्त बन कर समस्त शरीर में फैलती और अपना असर दिखाती है। यदि पाचन न हुआ तो
वह दवा मल मार्ग से निकल जाती है और अपना असर नहीं दिखाती। जिनकी पाचन
शक्ति ठीक नहीं होती उन्हें ‘पुष्टाई के पाक’ कुछ भी फायदा नहीं करते,
क्योंकि दवाएं बिना पचे मल द्वारा बाहर निकल जाती हैं। ऐसी दशा में पतली
पानी के रूप में तैयार की हुई दवाएं अधिक काम करती हैं क्योंकि फल आहार की
अपेक्षा जल जल्दी पच जाता है। इन्जेक्शन द्वारा खून में मिलाई हुई दवाएं और
भी जल्दी शरीर में फैल जाती हैं। हवा का नम्बर इससे भी ऊंचा है। वायु
द्वारा सांस के साथ शरीर में पहुंचाई गई हवा बहुत जल्द असर करती है। जुकाम
जैसे रोगों में सूंघने की दवाएं दी जाती हैं। क्लोरोफार्म सुंघाने से जितनी
जल्दी बेहोशी आती है उतनी जल्दी खाने में नहीं आ सकती।
इन सब बातों का ध्यान रखते हुए भारतीय ऋषि-मुनियों ने यज्ञ-हवन की बड़ी ही
सुन्दर वैज्ञानिक विधि का आविष्कार किया है। हवन में जलाई हुई औषधियां नष्ट
नहीं होतीं वरन् सूक्ष्म रूप धारण करके अनेक गुनी प्रभावशाली हो जाती हैं
और अनेकों को आरोग्य प्रदान करती हैं। लाल मिर्च के एक टुकड़े को जब आग में
छाला जाता है तो वह सूक्ष्म होकर हवा में चारों ओर मिलकर चारों ओर फैलता
है और दूर तक बैठे हुए लोगों को खांसी आने लगती है। इससे प्रकट होता है कि
जलने पर कोई वस्तु नष्ट नहीं होती, वरन् सूक्ष्म होकर वायु में मिल जाती है
और उस वायु के सम्पर्क में आने वालों पर उस वायु का असर पड़ता है। हवन के
धार्मिक रूप को छोड़ दें तो भी अग्निहोत्र की रोग निवारण सम्बन्धी महत्ता
स्वीकार करनी ही पड़ती है।
बाजार में कृमि नाशक फिनायल की भांति की एक अंग्रेजी दवा फार्मेलिन मिलती
है। इससे बीमारियों के कीड़े नष्ट हो जाते हैं। यह दवा फार्मिका आलडी हाइड
गैस से बनती है। फ्रांस के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉक्टर ट्रिले ने बताया है
कि उपरोक्त गैस लकड़ियां जलाने या खाण्ड जलाने से उत्पन्न होती है। जो काम
बहुत कीमत खर्च करने पर फार्मेलिन जैसी दवाओं से होता है वह कार्य
अग्निहोत्र द्वारा अधिक उत्तमता से हो जाता है। दवा तो वहीं असर करती है
जहां छिड़की जाती है पर अग्निहोत्र द्वारा तो वह कार्य वायु द्वारा बड़े
पैमाने पर हो जाता है। इस दृष्टि से हवन को वायु चिकित्सा कहें तो कुछ
अनुचित न होगा।
हवन जहां एक धार्मिक कृत्य है वहां वह मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान
करने वाला भी है। यज्ञ में लोक कल्याण के लिए समष्टि आत्मा-परमात्मा की
उपासना के लिए अपनी वस्तुओं का त्याग-समर्पण, होम करने से परमार्थ, त्याग,
उदारता एवं पवित्रता की मनोभावनाएं उत्पन्न होती हैं। ऐसी भावनाओं का उदय
होना अनेक प्रकार के मानसिक रोगों को निर्मूल करने के लिए सर्वश्रेष्ठ
उपचार है ‘डाया कार्बन गैस’ बढ़ने से वर्षा की अधिकता द्वारा संसार की
समृद्धि बढ़ती और आवहवा शुद्ध होती है। स्वस्थता प्रदान करने वाली और
रोगनाशक औषधियां अग्नि की सहायता से सूक्ष्म रूप धारण करके शरीर में
व्याप्त हो जाती है और निरोगता की स्थापना में बड़ा महत्वपूर्ण कार्य करती
हैं। फेफड़े और मस्तिष्क के रोगों के लिए तो हवन द्वारा पहुंची हुई औषधि
मिश्रित वायु बहुत ही हितकर सिद्ध होती है।