प्रकृति का अनुसरण

प्राकृतिक रूप से स्वस्थ मनुष्य की पहिचान

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प्रकृति ने मनुष्य को विश्व का सबसे सुन्दर, शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक शक्तियों से सम्पन्न, स्वस्थ, सशक्त, सुडौल, दीर्घजीवी प्राणी बनाया है। आरोग्य और उत्तम स्वास्थ्य का मार्ग उसे बड़ा सरल और सीधा रक्खा है। मनुष्य तो क्या अल्पबुद्धि वाले पशु-पक्षी भी उसे भली-भांति समझ सकते हैं। प्राकृतिक जीवन की आधारशिला क्या है इसके लिए कुछ ज्ञातव्य बातें यहां दी जाती हैं—

(1) डीलडौल- स्वस्थ मनुष्य का आकार संतुलित होना चाहिए। न कद काफी ऊंचा हो, न शरीर पतला-दुबला अस्थिपंजरवत् हो, न भरी-भरकम मांस से लटकता हुआ, थुल-थुला हो। प्रत्युत संतुलित रूप से प्रत्येक अंग विकसित हो, शरीर की मशीन का प्रत्येक कलपुर्जा ठीक काम करता हो। प्रशस्त उन्नत ललाट, चमकदार नेत्र, माथे व गालों पर स्वाभाविक रक्त की लालिमा हो, सिकुड़न का नाम तक न हो। पांव व जांघ मजबूत और शरीर का भार वहन कर सकने वाली हों। शरीर श्रम व मौसम के परिवर्तनों को सम्हाल सके, रोग से लड़ सके, आमाशय अपना कार्य उचित रीति से करता रहे।

(2) आन्तरिक अवस्था- पाचन क्रिया अपना कार्य ठीक से करे, शुद्ध लाल खून निर्मित हो, शरीर से मल-विसर्जन कार्य अपनी स्वाभाविक गति से होता रहे। जो भोजन खाया जाय, वह शरीर को परिपुष्ट एवं स्वस्थ रक्खे, अपच या दस्त से निकल न जाय। कभी अपच, कभी कब्ज, दस्त, पेट में दर्द इत्यादि न हों। खाया हुआ भोजन चार-पांच घण्टे में पच जाय। खाना खाते समय रुचि एवं स्वाद स्वास्थ्य के सूचक हैं। भोजन के उपरान्त आलस्य या नींद नहीं आनी चाहिए। चटपटी चीजों पर मन न चले, साधारण भोजन में ही मजा आये।

(3) हृदय या फेफड़े- शरीर के दो महत्वपूर्ण अंग हृदय तथा फेफड़े हैं। स्वस्थ मनुष्यों में ये दोनों की बड़े मजबूत होने अनिवार्य हैं। तेज भागने में आप हाँफ न जाय, मुख में से श्वांस न लेने लगें। यह स्वस्थ फेफड़ों की पहचान है। सुषुप्तावस्था में मुंह में से श्वांस न लेने लगें। यह स्वस्थ फेफड़ों की पहचान है। सुषुप्तावस्था में मुंह से श्वांस लेने की आदत कमजोर फेफड़ों की निशानी है। स्वस्थ फेफड़े बाहर से स्वच्छ वायु अन्दर लेकर रक्त की सफाई में सहायता करते हैं और अशुद्ध वायु को बाहर निकालते हैं। हृदय दूषित रक्त की सफाई निरन्तर किया करता है।

(4) मल विसर्जन कार्य- शरीर में जो कूड़ा-करकट या गंदगी एकत्रित होती रहती है, उसे निकालने के लिए प्रकृति ने कई द्वारा बन रक्खे हैं। मलमार्ग, मूत्रमार्ग, यकृत, त्वचा, फेफड़ों के अतिरिक्त हमारे नेत्र और कान भी स्वास्थ्य के शत्रु-शरीर के अंग-प्रत्यंगों में उत्पन्न हुए विकारों को निकाला करते हैं। जब तक हमारे शरीर के ये विकार स्वाभाविक गति से स्वयं बाहर निकलते रहें, तब तक हम अपनी मल-विसर्जन इन्द्रियों को स्वस्थ नहीं कह सकते।

यदि मल विसर्जन कार्य में किसी भी प्रकार की पीड़ा होती है, तो आप स्वस्थ नहीं हैं। यदि मल या मूत्र के साथ रक्त आता है, तो उसके दो कारण हो सकते हैं। (1) शरीर के उस भाग में कुछ चोट, घाव या सूजन आ गई है अथवा (2) आन्तरिक रूप से कुछ विकार हो गया है। मलमूत्र करने के पश्चात एक प्रकार से शान्ति होनी चाहिए। यदि रक्त या पीव आवे मल-मार्ग से कीड़े आवें तो आन्तरिक विकारों के सूचक हैं।

(5) मानसिक स्थिति- स्वस्थ मनुष्य मधुर, तृप्त और उत्साही ही होता है, चिन्ताएं उसे नहीं सतातीं, चिड़चिड़ापन, क्रोध, उतावलापन, उदासी, निरुत्साह ये सब शरीर से संचित नाना प्रकार के विकारों के द्योतक हैं। अशान्त चित्त, विशुद्ध विचारों से युक्त मन, अतृप्त काम वासना से भरा हुआ अन्तःकरण मानसिक विक्षुब्धता के प्रतीक हैं। अहंकार एक प्रकार की मानसिक बीमारी है, चित्त की व्यग्रता, अतृप्त वासनाएं, विघ्न-बाधाओं से मिथ्या डर, कुत्सित कल्पनाएं, कायरता आदि सब गिरे हुए स्वास्थ्य की निशानी हैं। इसके विपरीत निर्बल शरीर में भवबाधा, भूतप्रेत के भय, विकार, काम वासनाएं, क्रोध, ईर्ष्या, मोह इत्यादि भरे पड़े रहते हैं।

स्वास्थ्य से पवित्र विचार आते हैं, मन प्रसन्न और शुभ कल्पनाओं, मधुर विचारों से परिपूर्ण रहता है। काम में जी लगता है, आलस्य या उदासी नहीं सताती, हृदय मुस्कुराते हुए पुरुषों को देखकर प्रफुल्ल होता है, चमचमाते हुए तारक-वृन्द को देखकर चमचमाता है। हम प्राकृतिक दृश्यों को देखकर मोहित हो जाते हैं। प्रकृति का सन्देश हमें हर फूल, पत्ती और पुष्प सुनाता है।

यदि आप प्रकृति के नियमों का अतिक्रमण न करें, प्रकृति के परिवार के अन्य सदस्यों की भांति सच्चाई और ईमानदारी से उनका पालन करते रहें, तो स्वाभाविक रूप से आप पूरी आयु का आनन्द ले सकेंगे। प्रकृति ने आपको बहुत उच्चकोटि का जीव बनाया है प्रसन्नता का स्रोत आपके हृदय में प्रवाहित होना चाहिए। आनन्द से आपका निकट सम्बन्ध होना अनिवार्य है। यदि आप प्रकृति के निकट रह सकें, तो निश्चय जानिए आपका स्वभाव सदैव शान्त और गंभीर रहेगा, आपका हृदय आन्तरिक आह्लाद से भरा रहेगा और आप जीवन का स्वर्गीय आनन्द लूट सकेंगे।

स्वामी शिवानन्द जी के शब्दों में, ‘‘प्रकृति का स्वभाव अत्यंत कठोर और दयालु है। वह अत्यन्त न्यायप्रिय है, वह न्याय में क्षमा नहीं करना जानती। सदाचारियों के लिए प्रकृति परम प्यारी माता है और दुराचारियों के लिए वह पूरी राक्षसी है। वह स्वयं राक्षसी कदापि नहीं है। वह परम दयालु जगतमाता है। केवल दुराचारियों को (जो प्रकृति के नियम तोड़कर अस्वाभाविक जीवन व्यतीत करते हैं) वह राक्षसी प्रतीत होती है। दण्ड में भी प्रकृति हमें सुधारने का काम करती है। ठोकर खाने पर ही मनुष्य सावधान होता है।’’
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