प्रकृति का अनुसरण

स्वास्थ्य-रक्षा का सर्वश्रेष्ठ मार्ग

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इसमें सन्देह नहीं कि जो लोग प्राकृतिक नियमों के अनुसार अपना रहन-सहन रखते हैं उनका स्वास्थ्य सदैव उत्तम रहता है और यदि कभी किसी घटनावश कोई रोग हुआ तो वह साधारण उपचार से अथवा बिना उपचार के ही शीघ्र अच्छा हो जाता है। भारत के प्राचीन निवासी प्रायः प्रकृति के संसर्ग में रहकर ही जीवन व्यतीत करते थे। उस समय के ऋषि-मुनि तो प्रायः बस्तियों से दूर वनों और जंगलों में रहते ही थे, जहां प्रकृति-विरुद्ध जीवन की कोई सामग्री मिल नहीं सकती थी। फिर यहां की ग्रामीण जनता भी सब तरह से स्वावलम्बी थी और अपनी आवश्यकताओं की सीधी-सादी वस्तुएं स्वयं ही तैयार कर लेती थी। इसलिए उसके जीवन में भी कृत्रिमता और आडम्बर को कोई स्थान न था। केवल बड़े नगरों में, जिनकी संख्या नगण्य थी, विलास की कुछ सामग्री मिल सकती थी और वहीं थोड़े-बहुत प्रकृति के विपरीत आचरण करने वाले और फलस्वरूप बीमार व्यक्ति मिल सकते थे। आजकल परिस्थिति बहुत कुछ बदल गई है और आबादी के बढ़ने तथा तरह-तरह के औद्योगिक आविष्कारों के कारण जलवायु में पहल के समान शुद्धता नहीं रही है, तो भी हम यदि प्रकृति का अनुसरण करें और खान-पान तथा रहन-सहन में से कृत्रिमता को त्याग दें तो हमारा स्वास्थ्य इस समय से कई गुना उत्तम बन सकता है। पिछले पृष्ठों में पांचों तत्वों का जो उपयोग बतलाया गया है, अगर उस पर ध्यान दें और आवश्यकता पड़ने पर उन्हीं विधियों का प्रयोग करें तो हमारे स्वास्थ्य में बहुत कुछ सुधार हो सकता है। इससे भी आवश्यक बात यह है कि जिससे स्वास्थ्य स्थिर रहे और बीमार होने की नौबत ही न आये ऐसी कुछ बातों का सारांश संक्षिप्त रूप में हम नीचे देते हैं—

(1) प्रातःकाल शौच जाने के पूर्व एक गिलास पानी पिया कीजिए, इससे दस्त साफ होता है और रात का बिना पचा हुआ भोजन पचने में भी सहायता मिलती है।

(2) आपके लिए हल्का व्यायाम आवश्यक है। सुबह शाम तेज चाल से, दोनों हाथों को हिलाते हुए, सीना निकालकर काफी दूर तक टहलने जाया करें। यह टहलना इतना होना चाहिए कि शरीर में गर्मी काफी बढ़ जाय और थोड़ा पसीना तक झलक आवे। कमजोर आदमियों के लिए यह सर्वोत्तम व्यायाम है। इससे समस्त रक्त का दौरा तेज होता है, शरीर के कल-पुर्जे ठीक प्रकार से काम करने लगते हैं।

(3) प्रातःकाल की सह्य धूप शरीर पर लिया करें। इससे रोगों के कीटाणु नष्ट होते हैं और जीवनी शक्ति प्राप्त होती है।

(4) स्नान से पूर्व शरीर पर धीरे-धीरे तेल मालिश किया करें। गर्मी के दिनों में सरसों का और जाड़े में तिल का तेल प्रयोग करना चाहिए। तेल मालिश एक बड़ा ही उपयोगी व्यायाम है।

(5) आप ऐसे स्थान में स्नान किया करें जहां खुली हवा के झोंके न लगते हों। एक मोटे खुरदरे तौलिए को पानी में भिगो कर उससे धीरे-धीरे बहुत देर तक सारे शरीर को रगड़ते रहें, त्वचा लाल हो जाय और शरीर के सारे छिद्र खुल जावें इससे शरीर के भीतर की विषैली गर्मी बाहर निकल आती है और त्वचा तथा मांसपेशियों का व्यायाम हो जाता है। बीमार आदमी चारपाई पर पड़े-पड़े भी गरम पानी से तौलिया भिगोकर और बिना भिगोये हुए भी घर्षण स्नान कर सकते हैं।

(6) नाश्ता करना छोड़ दें। करना ही हो तो दूध, मट्ठा, नींबू का शरबत आदि कोई पतली चीज थोड़ी मात्रा में ले लें। दोपहर और शाम दो बार ही नियत समय पर भोजन किया करें। भूख से कम खावें। प्रत्येक ग्रास को इतना चबाये कि वह खूब पिसे। पेट को एक चौथाई खाली रखना चाहिए। ठूंस-ठूंस कर खाने और दिन भर बकरी की तरह मुंह चलाने वाले अपने दांतों से अपनी कब्र खोदते हैं। भोजन के साथ कम पानी पीना चाहिए।

(7) सुपाच्य, स्वादिष्ट फल, शाक तथा हरे अन्न हमारी सर्वोत्तम खुराक हैं। जो कच्चे नहीं खाये जा सकते उन्हें तथा पत्ती के हरे शाकों को उबाल कर खाना चाहिए। मेवाएं भी पौष्टिक हैं। अन्नों को दलिया या खिचड़ी के रूप में उबालकर रसीला बना लिया जाय तो वह रोटी की अपेक्षा हलके रहते हैं। दूध, दही, मट्ठा तीनों ही उपयोगी हैं। तले हुए पूड़ी, पकवान, मिठाइयां, चाट, पकौड़ी, जली-भुनी या अधिक घी, तेल, मावा, मिर्च, मसाले पड़ी हुई चीजें सर्वथा हानिकारक हैं। भोजन ताजा होना चाहिए और स्वच्छता पूर्वक बनाना अथवा खाना चाहिए।

(8) चाय, दूध आदि कोई चीज गर्म नहीं लेनी चाहिए और न बर्फ या बर्फ मिश्रित अधिक ठण्डी चीजें सेवन करनी चाहिए, इससे दांत और आंत दोनों में ही विकार भी उत्पन्न होते हैं।

(9) पानी खूब पिया कीजिए। जाड़े के दिनों में 5-6 गिलास पानी और गर्मी के दिनों में 8-10 गिलास तो कम से कम पीना ही चाहिए। पानी एक साथ सड़ाके से नहीं पिया जाना चाहिए वरन् घूंट-घूंट करके पियें जिससे मुंह की लार उसमें काफी मात्रा में मिल जाय। दूध, मट्ठा आदि अन्य पेय पदार्थ भी इसी प्रकार पीने चाहिए।

(10) चाय, तमाखू, भांग, अफीम, गांजा, शराब आदि नशीली चीजों से, हींग, गरममसाला, मिर्च, लहसुन आदि उत्तेजक गरम पदार्थों से तथा मांस मछली आदि अभक्ष वस्तुओं से बचते रहना चाहिए। यह चीजें स्वास्थ्य को बिगाड़ने वाली हैं। इनका पूर्णतया त्याग करना न बन पड़े तो भी जितना कम किया जा सके करते चलना चाहिए।

(11) कपड़े जहां तक हो सके कम ही पहिना करें। जो पहनें वे कसे हुए न हों। शरीर से सदा वायु का स्पर्श होते रहना चाहिए, मुंह ढक कर न सौवें। बिस्तर को धूप में सुखाते रहना चाहिए। जिनमें पसीना लगता है ऐसे शरीर का स्पर्श करने वाले कपड़ों को नित्य धोना चाहिए।

(12) कमजोर और बीमारों को ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए ताकि शक्ति संचय हो। जितना कम काम सेवन किया जाय उतना ही अच्छा है।

(13) रात्रि को जल्दी सो जावें, सबेरे जल्दी उठें। अधिक रात्रि तक जागना और नेत्रों पर जोर डालने वाले काम करते रहना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

(14) आलस्य और अति परिश्रम दोनों ही बुरे हैं। अत्यधिक दिमागी काम करना स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालता है। चिन्ता, क्रोध, भय, निराशा, शोक, बेचैनी, घबराहट, ईर्ष्या, द्वेष, छल, कष्ट आदि मनोविकारों से बचना चाहिए, क्योंकि यह जिसके मस्तिष्क में रहते हैं उसका स्वास्थ्य चौपट कर देते हैं।

(15) सप्ताह में एक दिन उपवास करना चाहिए। निराहार रहना सबसे अच्छा है। न हो सके तो एक समय फल, दूध आदि हलकी चीजें स्वल्प मात्रा में लेना भी उपवास है। यह भी न हो सके तो एक समय दलिया, खिचड़ी, साबूदाना आदि पानी में पकाये हुए अन्न ले सकते हैं। उपवास के दिन पानी खूब पीना चाहिए। यदि इच्छा हो तो पानी में नींबू, सोडा, नमक या शहद मिला सकते हैं।

(16) एक एनिमा यन्त्र बाजार से खरीद लीजिए या किसी वैद्य डॉक्टर के यहां से मांग लिया कीजिए। उपवास के लिए प्रातःकाल शौच जाने के उपरान्त थोड़े गुनगुने एक सेर पानी को एनिमा द्वारा पेट में चढ़ाइए। सब पानी पेट में चला जावे तब दस पांच मिनट उसे रोकना चाहिए। इसके बाद शौच जाना चाहिए। इस विधि से पेट की सफाई बड़ी अच्छी तरह हो जाती है। रोगों की जड़ पेट में होती है। पेट साफ हो जाने से बीमारी तुरन्त घट जाती है और उपचार करने पर शीघ्र ही जड़-मूल से दूर हो जाती है।

(17) कमजोर और बीमार को कुछ समय पूर्ण विश्राम करने के लिए समय निकालने का प्रयत्न करना चाहिए। नित्य के कामों में काफी शक्ति खर्च होती रहती है। उसे बचा लिया जाय तो वह बची हुई शक्ति रोग दूर करने में सहायता करती है।

(18) खुली हवा और खुले प्रकाश में रहना चाहिए। रहने का मकान ऐसा हो जिसमें धूप और हवा भली प्रकार पहुंच सके। अच्छी जलवायु के स्थान में रहने से बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य भी सुधर जाता है। शरीर, मन, वस्त्र, घर, भोजन पात्र तथा उपयोग में आने वाली अन्य वस्तुओं की सफाई पर पूरा ध्यान रखना चाहिए। गन्दगी स्वास्थ्य की शत्रु है और सफाई मित्र है।

(19) चित्त को प्रसन्न, चेहरे को हंस-मुख, मस्तिष्क को शान्त रखने का बार-बार प्रयत्न करना चाहिए। दिन में कई बार ऐसा प्रयत्न किया जाय तो प्रसन्न रहने की आदत पड़ जाती है, जो कि स्वास्थ्य के लिए बहुत उपयोगी है।

(20) अब तक जन मिथ्या आहार-विहारों की आदत रही हो अब उनको दृढ़तापूर्वक छोड़ देने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए और नित्य प्रति परमात्मा से सच्चे हृदय से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह उन प्रतिज्ञाओं को पूरा करने में सहायता प्रदान करें।
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