गायत्री की अनुष्ठान एवं पुरश्चरण साधनाएँ

चान्द्रायण तप की शास्त्रीय परम्परा

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गायत्री उपासना में 24 हजार मन्त्र जप के लघु अनुष्ठान की दृष्टि से जो महत्त्व नवरात्रि साधनाओं का है, सवा लक्ष मंत्र जप में वही महत्व चान्द्रायण व्रत का है। चान्द्रायण का अर्थ एक प्रकार से चन्द्रमा की कला के घटने बढ़ने के अनुपात से अपना आहार क्रम घटाना बढ़ाना होता है। अतएव यह प्रतिपदा से पूर्णिमा तक किया जाता है। आश्विन, श्रावण, चैत्र यह तीन महीने उसके लिये बहुत उत्तम माने गये हैं। सुविधानुसार अंग्रेजी तिथियों के अनुसार भी कभी भी चान्द्रायण व्रत किये जा सकते हैं। धर्मशास्त्र में पाप निवृत्ति और पुण्य प्रवृत्ति के दोनों उद्देश्यों को पूरा करने के लिए उपयुक्त साधन चान्द्रायण तप बताया गया है। इस पुण्य प्रक्रिया के पांच प्रमुख भाग यह हैं—

(1)  एक महीने तथा आहार के घटने-बढ़ने वाला उपवास
(2)  गुप्त पापों का प्रकटीकरण
(3)  आन्तरिक परिवर्तन कर सकने वाले वातावरण में निवास और अनुशासन का प्रतिपालन
(4)  अन्तःकरण को परिष्कृत करने वाला योगाभ्यास युक्त तप साधन।
(5)  दुष्कर्मों की क्षति-पूर्ति और पुण्य वर्धन की परमार्थ परायणता। इन्हें पूरा करने से चान्द्रायण तप सम्पन्न होता है। मात्र एक महीने का उपवास
       ही चान्द्रायण नहीं है।

एक महीने की निर्धारित साधना क्रम में इन पांचों का समन्वय है।

(1)  पूर्णिमा से पूर्णिमा तक एक महीने का उपवास रहता है। पूर्णिमा को पूर्ण आहार करके उसका चौदहवां अंश कृष्ण पक्ष में हर दिन घटाया जाता है।
      शुक्ल पक्ष में उसी क्रम से बढ़ाते रहते हैं। अनभ्यास लोगों को ‘शिशु’ चान्द्रायण कराया जाता है और मनस्वी लोगों को यति चान्द्रायण। यह
      स्वास्थ्य संवर्धन के लिए शारीरिक काया-कल्प जैसा प्रयोग है। इससे रोगों की जड़ें कटती हैं। परम सात्विक हविष्यान्न ही पेट में जाने से विचार
      परिष्कार और सद्भाव सम्वर्धन का उद्देश्य बड़ी अच्छी तरह पूरा होता है। पंचगव्य सेवन, गौ मूत्र से संस्कारित हविष्यान्न का आहार आदि के
      माध्यम से गौ सम्पर्क भी सधता रहता है। प्यास बुझाने के लिए मात्र गंगाजल पर ही निर्भर रहना पड़ता है।

(2)  गुप्त पापों का प्रकटीकरण मात्र ब्रह्म वर्चस् के कुलपति के सम्मुख करके चित्त की भीतरी पर्तों पर जमी हुई दुरव की जटिल ग्रन्थियों को खोला
      जाता है। मानसिक रोगों के निराकरण का यह बहुत ही उत्तम उपचार है। जो किया जा चुका उसके परिमार्जन के लिए क्या करना चाहिए यह
      परामर्श प्राप्त करना भी इसी प्रकटीकरण का अंग है। शीर्ष संस्कार इसी प्रयोजन के लिए है। पूर्ण मुण्डन तो नहीं कराया जाता, पर बाल थोड़े
      छोटे अवश्य हो जाते हैं। जिसका तात्पर्य है संचित दुष्ट विचारों का परित्याग। बच्चों का मुण्डन संस्कार भी जन्म-जन्मान्तरों की पशु प्रवृत्तियों
      को मस्तिष्क में से हटाने के उद्देश्य से ही किया जाता है। बाल छांटने के अतिरिक्त गोमूत्र, गोमय आदि मन्त्र विधान सहित शीर्ष संस्कार किया
      जाता है। साधक अनुभव करता है कि इस धर्म कृत्य के साथ-साथ उसके मनःसंस्थान में अति महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो रहा है।

(3)  वातावरण का मनुष्य पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। व्यक्तित्व के परिवर्तन प्रयास में वातावरण का परिवर्तन आवश्यक माना गया है। ब्रह्मवर्चस्
      आरण्यक में वैसी समुचित सुविधा उपलब्ध है। परिमार्जन, संरक्षण और अभिवर्धन के तीनों उद्देश्य पूरे करने वाली त्रिवेणी यहां विद्यमान है।
      दिनचर्या में स्वाध्याय सत्संग, मनन, चिन्तन के चारों तत्व गुंथे हुए हैं। शारीरिक और मानसिक संयम अनुशासन की कठोर विधि व्यवस्था का
      पालन करना पड़ता है। प्रवचन और परामर्श का दैनिक लाभ मिलता है। दिनचर्या, इतनी अनुशासित और व्यवस्थित रहती है कि उस ढर्रे में ढल
      जाने वाला भविष्य में अपने आपको सर्वतोमुखी प्रगति में सहायक ढांचे में ही ढाल लेता है। वातावरण का प्रभाव अभिनव परिवर्तन के रूप में
      निरंतर अनुभव होता रहता है। इस तरह का वातावरण अन्यत्र मिले तो वहां भी करने में कुछ हर्ज नहीं।

(4)  अन्तःकरण में दैवी संस्कारों की जड़ जमाने वाले योगाभ्यास और तप साधन चान्द्रायण के साथ-साथ ही करने होते हैं। सवा लक्ष्य गायत्री
      पुरश्चरण अनिवार्य रूप से आवश्यक है। गायत्री यज्ञ नित्य नहीं तो अन्तिम दिन अवश्य सम्पन्न किया जाना चाहिए।

(5)  पापों की क्षति पूर्ति एवं पुण्य सम्पदा की अभिवृद्धि के लिए चान्द्रायण व्रत की पूर्णाहुति के रूप में कुछ अवांछनीयताओं का परित्याग और कुछ
      परमार्थों को अपनाने का संकल्प करना होता है। संग्रह का अंशदान तीर्थयात्रा के रूप में धर्म प्रचार का श्रमदान, पुण्य प्रयोजनों में सहकार,
      सत्सृजन में योगदान जैसे कुछ कदम ऐसे उठाने के लिए परामर्श दिया जाता है जिनके सहारे अन्तःकरण पर परिवर्तन को व्यवहार में उतारने
      की छाप प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगे। आन्तरिक काया-कल्प—चान्द्रायण तपश्चर्या का उद्देश्य है। यह कल्पना क्षेत्र तक ही सीमित बनकर न
      रह जाय वरन् व्यवहार में भी परिलक्षित होने लगे। इसके लिए कुछ क्रियात्मक कदम उठाने के लिए वैसा परामर्श मिलता है जो प्रस्तुत
      परिस्थितियों में सफलता-पूर्वक शक्य हो सके। उपलब्ध सुसंस्कार परिपक्वता के लिए—दूसरों के सम्मुख परिवर्तन का प्रमाण प्रस्तुत करने
      के लिए कुछ साहसिक कदम उठाने पड़ते हैं। यही चान्द्रायण की पूर्णाहुति है।

शास्त्रों, पुराणों में चान्द्रायण तप की महत्ता स्थान-स्थान पर प्रतिपादित की गई है। जीवन में हुई भूलों के अन्तःकरण में छाये मल-अवसाद के परिमार्जन की दृष्टि से उसे अमोध साधना माना गया था। वह प्रतिपादन इस प्रकार है।


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