गायत्री की अनुष्ठान एवं पुरश्चरण साधनाएँ

दो नवरात्रियां - गायत्री उपासना के दो अयाचित वरदान

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गायत्री उपासना का सामान्य समय तो हर दिन, हर घड़ी है, उसे रात में भी जपा जा सकता है दिन में भी। दिन में उपांश अर्थात् उंगलियों में अथवा माला से गणना का क्रम चलाते हुए मुंह से मद्धिम उच्चारण करते हुए जप करने का विधान है और रात में मानसिक जप। मंत्र लेखन भी एक प्रकार का मानसिक जप ही है वह रात में हो सकता है। गायत्री की तन्त्र साधनायें भी रात में सम्पन्न की जा सकती हैं। अस्वास्थ्य और आपत्ति कालीन स्थिति में राह चलते या बिस्तर पर लेटे-लेटे भी मानसिक जप किया जा सकता है इन सब में कोई विधि निषेध नहीं है पर यदि कहीं मुहूर्त की बात आती हो तो गायत्री उपासना के लिए जितना उपयुक्त अवसर नवरात्रियों का होता है उतना दूसरा नहीं। वर्ष की दो नवरात्रियों को गायत्री माता के दो अयाचित वरदान ही कहा जा सकता है। इस अवधि में उनका कोमल प्राण धरती पर प्रवाहित होता है। वृक्ष-वनस्पति नवपल्लव धारण करते हैं, जीव-जन्तुओं में नई चेतना इन्हीं दिनों आती है विधिपूर्वक सम्पन्न नवरात्रि-साधना से स्वास्थ्य की नीवें तक हिल सकती हैं। असाध्य बीमारियां तक नवरात्र अनुष्ठान से दूर होती हमने स्वयं देखी हैं।

विभिन्न धानों के बोने के अपने-अपने समय होते हैं। इन दिनों इन्हें बोया जाय तो किसान का परिश्रम अधिक सफल होगा और अधिक अच्छी फसल मिलेगी। यों तो कोई भी अनाज किसी भी समय बोया जा सकता है और उसमें से अंकुर भी निकल ही आते हैं। पर ऋतु अनुकूल न होने से उसकी अभिवृद्धि वैसी नहीं होती जैसी होनी चाहिए। गर्भाधान का ऋतुकाल कुछ विशेष समय तक ही रहता है। उसके बाद वह स्थिति चली जाती है। वसन्त का प्रकृति प्रवाह ऐसा होता है जिसमें-पेड़ पौधों पर, पशु-पक्षियों पर अनायास ही मस्ती छाई रहती है। इनमें फूलने-फलने का उत्साह बिना किसी बाहरी प्रयत्न के भीतर से ही उमड़ता है। माली इन्हीं दिनों सबसे अधिक व्यस्त रहते हैं। उद्यान की साज-सम्भाल के लिए वही दिन सबसे अधिक सतर्कता के होते हैं। प्राणियों में से अधिकांश का गर्भाधान काल वसन्त ऋतु ही होता है। प्रकृति प्रेरणा के कुछ ऐसे प्रवाह समय पर आते रहते हैं जो विभिन्न प्रयोजनों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त रहते हैं। उस अनुकूलता की स्थिति में किये हुए प्रयत्न अपेक्षाकृत अधिक सफल भी रहते हैं। हवा का रुख पीठ पीछे हो तो यात्रा सरल पड़ेगी, सामने होने पर श्रम और समय भी लग जायगा। गायत्री की विशेष उपासना के लिए दोनों नवरात्रियों का महत्व अत्यधिक है। निषेध किसी भी समय का नहीं है किन्तु विशिष्टता की दृष्टि से वह अधिक उपयुक्त अवसर है। अनुष्ठान पुरश्चरण जैसी साधनाओं के लिए यह समय अधिक अनुकूल माना जाता रहा है। जो लोग अन्य समय साधना नहीं कर पाते वे भी यह प्रयत्न करते हैं कि नवरात्रि का पर्व खाली न जाने पाये। उस समय तो कुछ न कुछ करने के लिए—किसी न किसी प्रकार व्यस्त व्यक्ति भी समय निकाल लेते हैं।

भगवान का नाम कभी भी लिया जा सकता है उसके लिए कोई रोक-टोक नहीं है पर प्रातः सायं का संध्या काल इसके लिए अधिक उपयुक्त माना गया है। सन्ध्या-वन्दन के नित्यकर्म का नामकरण ही उसके लिए निर्धारित समय को प्रधानता देते हुए किया गया है। दिन और रात्रि के मिलन की बेला जिन दो समयों पर आती है उसे सन्धि काल कहते हैं। सन्धि काल में जो पूजा-प्रार्थना की जाय सो ‘संध्या’। संध्या का पुण्य और प्रभाव अन्य समय में की गई उपासना की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक ही माना गया है। दिन-रात के मिलन काल की तरह ही ऋतुओं का मिलन काल भी कई प्रयोजनों के लिए अधिक उपयोगी माना गया है। ऋतुएं यों तो छह या तीन भी गिनी जाती हैं पर वस्तुतः वे हैं दो ही। एक सर्दी और दूसरी गर्मी। इन दोनों का मिलन काल आश्विन और चैत्र की नवरात्रि में दो बार आता है। उन्हें ऋतु संध्या कहते हैं। शास्त्रों में वर्णन है कि जिस प्रकार ऋतुकाल में नारी के गर्भधारण की सम्भावना अधिक रहती है उसी प्रकार ऋतुओं की उमंग का नवरात्रि काल आध्यात्मिक साधनाओं के लिए विशेष रूप से फल-प्रद होता है।

नवरात्रि-पर्व शक्ति-पर्व कहलाता है ब्राह्मी शक्ति एक ही है ‘गायत्री’। उसी त्रिपदा की तीन धारायें सरस्वती; लक्ष्मी, दुर्गा, के नाम से प्रख्यात हैं। शक्ति साधना की प्राचीन परम्परा गायत्री उपासना की है। मध्यकाल में सम्प्रदायों द्वारा उनके अन्यान्य रूप भी चल पड़े और शक्ति देवियों के नाम पर अनेकों नाम रूप सामने आये। फिर भी प्रधानता गायत्री की ही रही है। सनातन परम्पराओं की पूरी तरह अवमानना, सांप्रदायिक अन्धेरों के उभार में भी न हो सकी। शक्ति के अनेक रूप अपने-अपने क्षेत्रों और सम्प्रदाओं में चलते रहे फिर भी उच्चस्तरीय परम्परा गायत्री उपासना की ही रही है। दोनों नवरात्रियों को गायत्री की विशिष्ट उपासनाओं के लिए सबसे उपयुक्त समय माना जाता रहा है।

शक्ति-की उपासना के विभिन्न प्रचलन विभिन्न रूपों में समस्त भारत वर्ष में देखे जा सकते हैं। इसके लिए सभी जगह नवरात्रियां ही उपयुक्त पर्व के रूप में मनाई जाती हैं। बंगाल में दुर्गा पूजा—गुजरात में अम्बा गरबा—राजस्थान में गणगौर का उत्सव गांव-गांव घर-घर व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों ही रूपों में मनाया जाता है। यहां तक कि छोटी लड़कियां भी झांसी के नाम से शतमुख जाति के रूप में उसकी पूजा-प्रतिष्ठा करती और व्रत उपवास रखती हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश में विजयादशमी तक राम-लीलाएं होती हैं। शस्त्र पूजन और दुर्गावंदन के रूप में वही पर्व बहुत समारोह पूर्वक मनाया जाता है। योद्धाओं का यही सैन्य पर्व है। दुर्गा सप्तशती पाठ इन्हीं दिनों किये-कराये जाते हैं। इन दिनों कितनी ही जगह बड़े-बड़े मेले भरते हैं और उनमें किसी न किसी रूप में शक्तिपूजा प्रधान रहती है। भारत में अनेकों छोटे-बड़े शक्तिपीठ हैं। उनमें दुर्गा एवं अन्यान्य देवियों के रूप में भगवती की प्रतिष्ठापना है इन सब में विशेष पूजा-प्रतिष्ठा समारोह एवं पूजन-वन्दन प्रायः नवरात्रि के समय ही होता है। लंका विजय वस्तुतः सीता विजय है। रामलीलाएं भी इसी कारण इन्हीं दिनों सम्पन्न होती हैं।

आश्विन और चैत्र के शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से नवमी तक नौ दिन का यह पर्व मनाया जाता है। इनका सम्बन्ध तिथियों की घट बढ़ से नहीं वरन् नौ रात्रियों से है। इसलिए उपासना क्रम पूरे नौ दिन का बनाया जाता है। तिथियों की घट−बढ़ से उसमें आगा-पीछा नहीं होता। इसलिए साधना के परिणाम में भी सदा समस्वरता बनी रहती है। समारोह प्रचलनों की दृष्टि से आश्विन नवरात्रि का महत्व कुछ बढ़ गया है पर तात्विक दृष्टि से चैत्र नवरात्रि का भी ठीक वैसा ही महत्व है। इतना अवश्य है कि जो वर्ष में दो बार साधना नहीं कर पाते वे अश्विन को ही प्रधानता देते हैं। वैसे नवीन सम्वत्सर और रामनवमी पर्व का समावेश रहने से चैत्री नवरात्रि का महत्व किसी प्रकार कम नहीं है।

आश्विन में कार्तिकी फसल पकती है और चैत्र में बैसाखी फसल कटती है। मक्का, बाजरा, धान, आदि बरसाती अनाज प्रायः इन्हीं दिनों घर में आते हैं। चैत्र में गेहूं, जौ, चना, मटर, आदि धान्य अरहर, उड़द आदि दालें और तिल, सरसों आदि तिलहन इन्हीं दिनों उपलब्ध होते हैं। प्रकृति के अनुदानों की अन्य अनेकों सम्पदाओं का उपहार भी इन्हीं दिनों मनुष्य के हाथ में आता है। जड़ी-बूटियों की फसल इन्हीं दिनों अपनी प्रौढ़ावस्था में होती है। फूलों का बाहुल्य इन्हीं दो अवसरों पर जितने बड़े परिमाण में उपलब्ध होता है उतना वर्ष के अन्य महीनों में दृष्टिगोचर नहीं होता वन्य प्रदेशों और मनुष्यकृत उद्यानों में अधिकांश फूल इन्हीं दो फसलों पर खिलते हैं। वृक्षों को फलों से लदा हुआ इन्हीं दिनों देखा जा सकता है।  शहद के छत्ते इन दिनों जितना मधुरस प्रदान करते हैं अन्य महीनों में नहीं। कन्दों की फसल भी इन्हीं दिनों उपजती है। गाजर, मूली, प्याज, आलू, शकरकन्द आदि का बाहुल्य जितना नवरात्रियों में रहता है उतना अन्य किसी समय नहीं। भूगर्भवेत्ता बताते हैं कि खनिज सम्पदा धरती के अन्तराल में सदा एक समान नहीं बनती-उमगती उनके विकास परिवर्तन के ज्वारभाटे प्रायः इन्हीं महीनों में आते हैं जिन दिनों कि नवरात्रियां होती हैं।

दबी हुई बीमारियों को मानवी रक्त, निकाल बाहर करने के लिए इन्हीं दिनों जोर मारता है। अतएव बुखार, खांसी, जुकाम, खुजली आदि का दौर जितना इन दिनों रहता है उतना और किसी समय नहीं। आयुर्वेद से शरीर शोधन की कल्प चिकित्सा वर्ष में इन्हीं दो अवसरों पर होती थी, पेट और रक्त की खराबियों को दूर करने के लिए यूनानी चिकित्सा में जुलाब का एक कोर्स होता है। चिकित्सकों का कथन है कि रोगों को जड़ से काटने के लिए शरीर शोधन के पंचकर्म, वमन, विरेचन, स्वेदन, स्नेहन, आदि में जितनी सफलता इन दिनों मिलती है उतना फिर कभी वैसा अवसर नहीं आता। आकाश भी इन दिनों अधिक निर्मल रहता है फलतः खगोल वेत्ता अपने प्रत्यक्ष गृह गणित के लिए इसी समय की प्रतीक्षा करते रहते हैं और सारे काम छोड़कर आकाशस्थ ग्रह-नक्षत्रों पर ही नजर गड़ाये बैठे रहते हैं।

आध्यात्मिक साधनाओं के लिए नवरात्रियों से बढ़कर और कोई विशिष्ट अवसर हो ही नहीं सकता। स्थूल प्रकृति जिस तरह भौतिक प्रगति अनुकूलतायें उगलती है ठीक उसी तरह सूक्ष्म प्रकृति में चेतनात्मक उपलब्धियों के लिए भी इन दिनों विशिष्ट अनुकूलतायें रहती है। साधना पर रोक कभी नहीं रहती है। सभी दिन ईश्वर के हैं और सभी उत्तम हैं पर आत्मशोधन और आत्मोत्कर्ष के दोनों प्रयोजन पूरा करने के लिए साधना पथ पर साधक के दोनों चरण जितनी तेजी और सफलता पूर्वक उठते हैं वैसा अवसर सदा सर्वदा नहीं बना रहता है। यही कारण है कि साधना की सफलता में रुचि रखने वाले वर्ष में दो ही बार आने वाले उन पुण्य पर्वों को हाथ से नहीं जाने देते। उसकी प्रतीक्षा और तैयारी पहले से ही करते रहते हैं।

नवरात्रि उपासना में भी अनुष्ठान में सामान्यतः 24 हजार मंत्र जप लघु अनुष्ठान वाले नियमोपनियमों का ही पालन करना होता है। पर संभव हो तो इस अवधि में उपवास के नियमों का पालन कड़ाई से किया जावे। चूंकि इस अवधि में शरीर में नई चेतना कस संचार होता है इसलिए वैसे ही शरीरगत नाड़ी गुच्छक सक्रिय रहते हैं। आहार की अनियमितता से उनकी चंचलता बढ़ती है जिससे अनुष्ठान में ब्रह्मचर्य रहने वाली अनिवार्य शर्त टूट सकती है अतएव इस अवधि में नियम में से कोई भी उपवास क्रम अपनाया जा सकता है।

   1—  एक समय फल, एक समय दूध अथवा केवल फल और दूध पर।
   2—  एक समय मीठा भोजन दूसरे प्रहर रसदार फल या थोड़ा-सा दूध-छाछ जो भी तरल पेय उपलब्ध हो सके।
   3—  दोनों समय हल्का, सुपाच्य बिना नमक का भोजन।
   4—  नमक और मीठा रहित अस्वाद भोजन।

इनमें से कोई भी संगति अपने लिए बनाई जा सकती है। अनुष्ठान के अन्तिम दिन सामूहिक हवन, प्रसाद वितरण और कन्या-भोजन अवश्य कराया जाना चाहिये भले ही अनुष्ठान एकाकी क्यों न किया गया हो। ब्रह्मभोज की परम्परा का निर्वाह गायत्री का प्रसाद साहित्य बांटकर किया जावे। ऐसा साहित्य गायत्री तपोभूमि मथुरा से मंगाया जा सकता है।

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