पाप निवृत्ति और पुण्य वृद्धि दोनों प्रयोजनों की पूर्ति के लिए
तीर्थयात्रा को शास्त्रकारों ने प्रायश्चित्त को तप साधना में सम्मिलित
किया है। तीर्थयात्रा का मूल उद्देश्य है धर्म प्रचार के लिए की गई
पदयात्रा। दूर-दूर क्षेत्रों में जन-सम्पर्क साधने और धर्म-धारणा को
लोक-मानस में हृदयंगम करने का श्रमदान तीर्थयात्रा कहलाता है। श्रेष्ठ
सत्पुरुषों के सान्निध्य में प्रेरणाप्रद वातावरण में—रहकर आत्मोत्कर्ष का
अभ्यास करना भी तीर्थ कहलाता है। यों गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने
के लिए किये गये प्रबल प्रयासों को भी तीर्थ कहा गया है। तीर्थ का तात्पर्य
है तरना। अपने साथ-साथ दूसरों को तारने वाले प्रयासों को तीर्थ कहते हैं।
प्रायश्चित्त विधान में तीर्थयात्रा की आवश्यकता बताई गई है।
आज की
तथाकथित तीर्थयात्रा मात्र देवालयों के दर्शन और नदी, सरोवरों के स्नान आदि
तक सीमित रहती है। यह पर्यटन मात्र है। इतने भर से तीर्थयात्रा का
उद्देश्य पूरा नहीं होता। सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन के लिए किया गया
पैदल परिभ्रमण ही तीर्थयात्रा कहलाता है। यह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य
संवर्धन के लिए श्रेष्ठ उपचार भी है। धर्म प्रचार के लिए जन-सम्पर्क साधने
का पैदल परिभ्रमण जन-समाज को उपयुक्त प्रेरणाएं प्रदान करता है। साथ ही उस
श्रमदान से कर्त्ता की सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन भी होता चलता है। ऐसे
ही अनेक कारणों को ध्यान में रखकर तीर्थयात्रा को ऐसा परमार्थ कहा गया है
जिसे कर सकना प्रत्येक श्रमदान करने में समर्थ व्यक्ति के लिए सम्भव हो
सकता है। तीर्थयात्रा का स्वरूप और माहात्म्य शास्त्रकारों ने इस प्रकार
बताया है—
नृणां पापकृतां तीर्थं पापस्य शमनं भवेत् ।
यथोक्त फलदं तीर्थ भवेच्छुद्धात्मनां नृणाम् ।।
पापी
मनुष्यों के तीर्थ में जाने से उनके पाप की शान्ति होती है। जिनका
अन्तःकरण शुद्ध है, ऐसे मनुष्यों के लिए तीर्थ यथोक्त फल देने वाला है।
तीर्थान्यनुसरन् धीरः श्रद्धायुक्तं समाहितः ।
कृतपापो विशुद्धश्चेत् किं पुनः शुद्ध कर्मकृत् ।।
जो
तीर्थों का सेवन करने वाला, धैर्यवान् श्रद्धायुक्त और एकाग्रचित्त है, वह
पहले का पापाचारी ही तो भी शुद्ध हो जाता है, फिर जो शुद्ध कर्म करने वाला
है, उसकी तो बात ही क्या है।
तीर्थानि च यथोक्तेन विधिना संचरन्ति ये ।
सर्वद्वन्द्वसद्धा धीरास्ते नराः स्वर्गगामिनः ।।
जो यथोक्त विधि से तीर्थयात्रा करते हैं, सम्पूर्ण द्वंद्वों को सहन करने वाले हैं वे धीर पुरुष स्वर्ग में जाते हैं।
यावत् स्वस्थोऽस्ति मे देहो यावन्नेन्द्रियविक्लवः ।
तावत् स्वश्रेयसा हेतुः तीर्थयात्रां करोम्यहम् ।।
जब
तक मेरा शरीर स्वस्थ है, जब तक आंख, कान आदि इन्द्रियां सक्रिय हैं, तब तक
श्रेय प्राप्ति के लिए तीर्थयात्रा करते रहने का निश्चय करता हूं।
तीर्थ
परम्परा भारतीय संस्कृति का प्राण रही है। पर उसे तप के रूप में ही
प्रयुक्त किया गया है। आज तो यात्राएं पर्यटन तथा मनोरंजन के लिये होती
हैं। उनसे पाप परिशोधन तो कुछ होता नहीं उल्टे पाप वृद्धि ही होती है। अपनी
सांस्कृतिक परम्पराओं का आर्ष स्वरूप बनाये रखने की दृष्टि से इस मिशन
द्वारा 24 गायत्री शक्तिपीठों (तीर्थों) की स्थापना हुई है। तीर्थ सेवन के
इच्छुक परिजन इन स्थापनाओं का पुण्य लाभ लेकर चान्द्रायण तप सम्पन्न कर
सकते हैं।
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*समाप्त*