गायत्री की अनुष्ठान एवं पुरश्चरण साधनाएँ

साधकों के लिये कुछ आवश्यक नियम

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गायत्री-साधना करने वालों के लिये कुछ आवश्यक जानकारियां नीचे दी जाती हैं—

1—  साधना के समय शरीर पर कम से कम वस्त्र रहने चाहिए। शीत की अधिकता हो तो कसे हुए कपड़े पहनने की अपेक्षा कम्बल आदि ओढ़कर शीत-
        निवारण कर लेना उत्तम है।

2—  साधना के लिये एकान्त, खुली हवा की एक ऐसी जगह ढूंढ़नी चाहिए, जहां का वातावरण शान्तिमय हो। खेत, बगीचा, जलाशय का किनारा, देव-
        मन्दिर इस कार्य के लिये उपयुक्त होते हैं, पर जहां ऐसा स्थान मिलने में असुविधा हो, वहां घर का कोई स्वच्छ और शान्त भाग भी चुना जा
        सकता है।

3—  उपासना के समय रीढ़ की हड्डी को सदा सीधा रखना चाहिए। कमर झुकाकर बैठने से मेरुदण्ड टेढ़ा हो जाता है और सुषुम्ना नाडी में प्राण का
        आवागमन होने में बाधा पड़ती है।

4—  बिना बिछाये जमीन पर साधना करने के लिये नहीं बैठना चाहिए। इससे साधना-काल में उत्पन्न होने वाली शारीरिक विद्युत जमीन पर उतर जाती
        है। घास या पत्तों से बने हुए आसन सर्वश्रेष्ठ हैं। कुश का आसन, चटाई, रस्सियों का बना फर्श सबसे अच्छे हैं। इनके बाद सूती आसनों का नम्बर है।
        ऊन के तथा चर्म के आसन तान्त्रिक कर्मों में प्रयुक्त होते हैं।

5—  माला, तुलसी या चन्दन की लेनी चाहिए। रुद्राक्ष, लाल चन्दन, शंख आदि की माला गायत्री के तांत्रिक प्रयोगों में प्रयुक्त होती है।

6—  माला जपते समय सुमेरु (माला के आरम्भ का सबसे बड़ा दाना) का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। एक माला पूरी करके उसे मस्तक तथा नेत्रों से
        लगाकर पीछे की तरफ उलटा ही वापिस कर लेना चाहिए। इस प्रकार माला पूरी होने पर हर बार उलट कर ही नया आरम्भ करना चाहिए।

7—  साधना के लिए चार बातों का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए:

        (अ)   चित्त एकाग्र रहे, मन इधर-उधर न उछलता फिरे। यदि चित्त बहुत दौड़े तो उसे माता की सुन्दर छवि के ध्यान में लगाना चाहिए।
        (ब)   माता के प्रति अगाध श्रद्धा और विश्वास हो। अविश्वासी और शंका शंकित मति वाले पूरा लाभ नहीं पा सकते।
        (स)   दृढ़ता के साथ साधना पर अड़े रहना चाहिए। अनुत्साह, मन उचटना, नीरसता प्रतीत होना, जल्दी लाभ न मिलना, अस्वस्थता तथा
                अन्य सांसारिक कठिनाइयों का मार्ग में आना साधना के विघ्न हैं। इन विघ्नों से लड़ते हुए अपने मार्ग पर दृढ़ता-पूर्वक बढ़ते चलना चाहिए।
        (द)    निरन्तरता साधना का आवश्यक नियम है। अत्यन्त कार्य होने या विषम स्थिति आ जाने पर भी किसी-न-किसी रूप में चलते-फिरते ही सही,
                 पर माता की उपासना अवश्य कर लेनी चाहिए। किसी भी दिन नागा या भूल नहीं करनी चाहिए। समय को रोज-रोज नहीं बदलना चाहिए।
                 कभी सवेरे, कभी दोपहर, कभी तीन बजे तो कभी दस बजे ऐसी अनियमितता ठीक नहीं। इन चार नियमों के साथ की गई साधना बड़ी
                 प्रभावशाली होती है।

8—  प्रातःकाल की साधना के लिये पूर्व को मुंह करके बैठना चाहिए और शाम को पश्चिम को मुंह करके। प्रकाश की ओर, सूर्य की ओर मुंह करना उचित
       है।

9—  पूजा के लिये फूल न मिलने पर चावल या नारियल की गिरी को कद्दूकस पर कस कर उसके बारीक पत्रों को काम में लाना चाहिए। यदि किसी विधान
        में रंगीन पुष्पों की आवश्यकता हो तो चावल या गिरी के पत्रों को केशर, हल्दी, गेरू, मेंहदी के देशी रंगों से रंगा जा सकता है। विदेशी अशुद्ध चीजों से
        बने रंग काम नहीं लेने चाहिए।

10—  देर तक एक पालथी से, एक आसन में बैठे रहना कठिन होता है, इसलिये जब एक तरह से बैठे-बैठे पैर थक जावें, तब उन्हें बदला जा सकता है।
          इसे बदलने में दोष नहीं।

11—  मल—मूत्र त्याग या किसी अनिवार्य कार्य के लिये साधना के बीच में उठना पड़े तो शुद्ध जल से हाथ-मुंह धोकर तब दुबारा बैठना चाहिए और विक्षेप
          के लिये एक माला का अतिरिक्त जप प्रायश्चित स्वरूप करना चाहिए।

12—  यदि किसी दिन अनिवार्य कारण से साधना स्थगित करनी पड़े तो दूसरे दिन एक माला अतिरिक्त जप दण्डस्वरूप करना चाहिए।

13—  जन्म या मृत्यु के सूतक हो जाने पर शुद्धि होने तक माला आदि की सहायता से किया जाने वाला विधिवत् जप स्थगित रखना चाहिए। केवल
          मानसिक जप मन ही मन चालू रख सकते हैं। यदि इस प्रकार का अवसर जप के अनुष्ठान काल में आ जावे तो उतने दिनों अनुष्ठान स्थगित
          रखना चाहिए। सूतक निवृत्त होने पर उसी संख्या पर से आरम्भ किया जा सकता है, जहां से छोड़ा था। उससे विक्षेप काल की शुद्धि के लिये एक
          हजार जप विशेष रूप से करना चाहिए।

14—  साधक का आहार-विहार सात्विक होना चाहिए। आहार में सतोगुणी, सादा, सुपाच्य, ताजे तथा पवित्र हाथों से बनाये हुए पदार्थ होने चाहिए। अधिक
          मिर्च-मसाले वाले तले हुए पकवान, मिष्ठान्न, बासी, बुसे, दुर्गन्धित मांस, नशीले, अभक्ष्य, उष्ण, दाहक, अनीति-उपार्जित, गन्दे मनुष्यों द्वारा
          बनाये हुए, तिरस्कारपूर्वक दिये हुए भोजन से जितना बचा जा सके उतना ही अच्छा है।

15—  व्यवहार जितना भी प्राकृतिक, धर्म संगत, सरल एवं सात्विक रह सके, उतना ही उत्तम है। फैशनपरस्ती, रात्रि में अधिक जागना, दिन में सोना,
         सिनेमा, नाच रंग, अधिक देखना, परनिन्दा, छिद्रान्वेषण, कलह, दुराचार, ईर्ष्या, निष्ठुरता, आलस्य, प्रमाद, मद, मत्सर से जितना बचा जा सके,
         बचने का प्रयत्न करना चाहिए।

16—  साधना के उपरांत पूजा के बचे हुए अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, फूल, जल, दीपक की बत्ती, हवन की भस्म आदि को यों ही जहां तहां ऐसी जगह नहीं
          फेंक देना चाहिए जहां वह पैर तले कुचलती फिरें। किसी तीर्थ, नदी, जलाशय, देव-मन्दिर, कपास, जौ, चावल का खेत आदि पवित्र स्थानों पर
          विसर्जन करना चाहिए। चावल चिड़ियों के लिए डाल देना चाहिए। नैवेद्य आदि बालकों को बांट देना चाहिए। जल को सूर्य के सम्मुख अर्घ्य देना
          चाहिए।

17—  वेदोक्त रीति की यौगिक दक्षिण-मार्गी क्रियाओं में और तन्त्रोक्ति वाममार्गी क्रियाओं में अन्तर है। योगमार्गी सरल विधियां इस पुस्तक में लिखी
          हुई हैं, उनमें कोई विशेष कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं है। शापमोचन, कवच, कीलक, अर्गल, मुद्रा, अंग न्यास आदि कर्मकाण्ड, तान्त्रिक
          साधनाओं के लिये हैं। इस पुस्तक के आधार पर साधना करने वालों को उसकी आवश्यकता नहीं है।

18—  वेद-मन्त्रों का सस्वर उच्चारण करना उचित होता है। पर सब लोग यथाविधि सस्वर गायत्री का उच्चारण नहीं कर सकते। इसलिये जप इस प्रकार
          करना चाहिए कि कण्ठ से ध्वनि होती रहे, होंठ हिलते रहें, पर पास में बैठा हुआ मनुष्य भी स्पष्ट रूप से मन्त्र को न सुन सके। इस प्रकार किया
          गया जप स्वर-बन्धनों से मुक्त होता है।

19—  साधना की अनेकों विधियां हैं। अनेक लोग अनेक प्रकार से करते हैं। अपनी साधना विधि दूसरों को बताई जाय तो कुछ न कुछ मीन मेख निकाल
          कर सन्देह और भ्रम उत्पन्न कर देगा। इसलिये अपनी साधना विधि हर किसी को नहीं बतानी चाहिए। यदि दूसरे मतभेद प्रकट करें तो अपने
          साधना गुरु के आदेश को ही सर्वोपरि मानना चाहिए। यदि कोई दोष की बात होगी, तो उसका पाप या उत्तरदायित्व उस साधना-गुरु पर पड़ेगा।
          साधक तो निर्दोष और श्रद्धायुक्त होने से सच्ची साधना का ही फल पावेगा। बाल्मीकिजी उल्टा राम नाम का जप कर भी सिद्ध हो गये थे।

20—  गायत्री-साधना माता की चरण-वन्दना के समान है, यह कभी निष्फल नहीं होती। उल्टा परिणाम भी नहीं होता, भूल हो जाने से अनिष्ट होने की
          कोई आशंका नहीं। इसलिये निर्भय और प्रसन्न-चित्त से उपासना करनी चाहिए। अन्य मन्त्र अविधिपूर्वक जपे जाने पर अनिष्ट करते हैं, पर
          गायत्री में यह बात नहीं है। वह सर्वसुलभ, अत्यन्त सुगम और सब प्रकार सुसाध्य है। हां, तांत्रिक विधि से की गई उपासना पूर्ण विधि-विधान के
          साथ होनी चाहिए, उसमें अन्तर पड़ना हानिकारक है।

21—  अनुष्ठान काल में कुछ विशेष तपश्चर्याएं करनी होती हैं। तपश्चर्याओं का महत्व और स्वरूप इसी पुस्तक के भिन्न अध्याय में दर्शाया गया है। जप
          की तरह तप भी जितना किया जा सके शुभ ही है। किन्तु वर्तमान जीवन क्रम में अधिक कठोर तपश्चर्याएं अनुकूल नहीं पड़तीं। फिर भी अनुष्ठानों
          के साथ कुछ नियम तो बनाने ही चाहिए। आज की स्थिति में सर्वोपयोगी न्यूनतम तपश्चर्याओं के रूप में 5 नियम नीचे दिये जा रहे हैं—

     (क)   अनुष्ठान काल में ब्रह्मचर्य का पालन करना। यह आत्म-नियंत्रण की अंतःशक्ति को सुनियोजित करने के लिए है।

     (ख)   उपवास का कोई क्रम अपनाना। पेय पदार्थों पर रहना, फल, शाक तक सीमित रहना, एक समय आहार का क्रम, अस्वाद व्रत का पालन जैसे व्रतों
             को इस क्रम में अपनी शक्ति एवं श्रद्धा के अनुसार अपनाया जाय।

     (ग)   चारपाई पर न सोना, तख्त या धरती पर सामान्य कपड़े बिछा कर सोना। यह तितीक्षा वृत्ति के विकास की दृष्टि से है।

     (घ)   अपने शरीर की सेवायें स्वयं करना। दाढ़ी बनाना, वस्त्र धोना, आदि क्रम स्वयं करना। दूसरों से न कराना। यह स्वावलम्बन एवं सेवावृत्ति
             के विकास के लिए साधना चाहिए। अपने शरीर एवं वस्त्रों का स्पर्श यथा साध्य दूसरों से न होने देना भी उचित है।

     (ड़)   चमड़े के जूतों का उपयोग न करना। अनुष्ठान काल में अधिक समय नंगे पैर नहीं चलना चाहिए। किन्तु चमड़े के जूतों का प्रयोग न करें।
             अधिकतर चमड़ा हत्या द्वारा प्राप्त किया जाता है। उसमें क्रूरता के संस्कार रहते हैं। साधक को सद्भावना एवं संवेदना के वातावरण में रहना
             चाहिए। सार्वभौम आत्मीयता की दृष्टि से यह साधना अपनायी जाती है।

22—  तप और हवन की तरह अनुष्ठानों के साथ दान की परम्परा भी जुड़ी है। दान देवत्व का प्रतीक है। दान किसी को कुछ भी दे देना नहीं है। किसी
          व्यक्ति के हित की—कल्याण की भावना से प्रेरित होकर विचार पूर्वक दिया गया दान ही ‘दान’ कहला सकता है। दानों में धनदान की अपेक्षा जल
          दान, अन्नदान, वस्त्रदान आदि का महत्व अधिक है। किन्तु इन सबसे अधिक फलप्रद ज्ञानदान है।

गायत्री साधना के साथ दान परम्परा में जोड़ने योग्य उपयोगी प्रक्रिया है लोगों को इस परम कल्याणकारी धारा से जोड़ना—गायत्री उपासना जैसे महान कल्याण कारक साधन को लोग भूल बैठे हैं इसका मूल कारण गायत्री के महत्व, माहात्म्य एवं विज्ञान की जानकारी न होना है। जानकारी को फैलाने से ही पुनः संसार में गायत्री माता का दिव्य प्रकाश फैलेगा और असंख्यों हीन दशा में पड़ी हुई आत्मायें महापुरुष बनेंगी। इसलिए गायत्री का ज्ञान फैलाना भी अनुष्ठान की भांति ही महान् पुण्य कार्य है। इस प्रकार साधना का नाम ‘अनुज्ञान’ है।

जैसे गायत्री की सस्ती पुस्तकें या अन्य अनेक बड़े प्रकाशनों में से अपनी श्रद्धानुसार 24, 108, 240, 1008, 2400 की संख्या में धार्मिक प्रकृति के मनुष्यों को पढ़वाना, दान देना या खरीदवाना ‘अनुज्ञान’ है। मकर संक्रान्ति पर, नवरात्रियों में गायत्री जयन्ती, गंगा दशहरा, अपना जन्म दिन, पूर्वजों के श्राद्ध, पुत्र जन्म, विवाह, सफलता, उन्नति, व्रत, त्यौहार, उत्सव आदि के शुभ अवसरों पर ऐसे ‘अनुज्ञान’ करते रहना एक उच्चकोटि की माता को प्रसन्न करने वाली श्रद्धाञ्जलि है। अन्नदान की अपेक्षा ब्रह्मदान का फल हजार गुना अधिक माना गया है।


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