पापों में तीन वर्ग के पापों की प्रधानता होती है—
( 1 ) निरपराध सताना, आक्रमण,
( 2 ) व्यभिचार-बलात्कार,
( 3 ) आर्थिक शोषण, अपहरण, चोरी, बेईमानी।
पाप कर्मों का प्रायश्चित्त करने में पश्चात्ताप वर्ग की पूर्ति, व्रत उपवास से—शारीरिक कष्ट सहने से तितीक्षा कृत्यों से होती है। किन्तु क्षति पूर्ति का प्रश्न फिर भी सामने रहता है। इसके लिए पुण्य कर्म करने होते हैं, ताकि पाप के रूप में जो खाई खोदी गई थी वह पट सके पुण्य-पाप का पलड़ा बराबर हो सके। दुष्प्रवृत्तियों को सत्प्रवृत्तियों से ही पाटा जा सकता है। इसलिए दुष्कर्म करके जो व्यक्ति-विशेष को हानि पहुंचाई गई—समाज में भ्रष्ट अनुकरण की परम्परा चलाई गई—वातावरण में विषाक्त प्रवाह फैलाया गया, उसको निरस्त तभी किया जा सकता है, जब सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन करने वाले पुण्य कर्म करके उसकी पूर्ति की जाय। समाज को सुखी और समुन्नत बनाने वाली सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन आवश्यक माना जाय। समाज को सुखी और समुन्नत बनाने वाली सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन आवश्यक माना जाय। इसके लिए समय, श्रम एवं मनोयोग लगाया जाय। धर्म प्रचार की पदयात्रा करके लोक प्रेरणा देने वाले तीर्थ यात्रा जैसे पुण्य कर्म किये जायं। जो घटना घट चुकी वह अनहोनी तो नहीं हो सकती। आक्रामक कुकर्मों की क्षति पूर्ति इसी में है कि लगभग उतने ही वजन के सत्कर्म सम्पन्न किये जायं।
व्यभिचारजन्य पापों का प्रायश्चित्त यही है कि नारी को हेय स्थिति से उबारने के लिए उसे समर्थ एवं सुयोग्य बनाने के लिए जितना पुरुषार्थ बन पड़े उसे लगाने के लिए सच्चे मन से प्रयत्न किया जाय।
आर्थिक अपराधों का प्रायश्चित यह है कि अनीति-उपार्जित धन उसके मालिक को लौटा दिया जाय अथवा सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के श्रेष्ठ कामों में उसे लगा दिया जाय। इस अर्थ दान को प्रायश्चित्त विधान का आवश्यक अंग इसलिए माना गया है कि अधिकांश पाप अर्थ लोभ से किये जाते हैं और उतने न्यूनाधिक मात्रा में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में भौतिक लाभ उठाने का उद्देश्य रहता है। यह अनीति उपार्जित धन अपने लिए और अपने परिवार वालों के लिए समयानुसार भयंकर विपत्तियां ही उत्पन्न करता है। भले ही तत्काल उससे कोई कमाई होने और सुविधा मिलने जैसा लाभ ही प्रतीत क्यों न होता हो।
जो कमाया गया है उसे बगल में दबाकर रखा जाय। अनीति उपार्जित सुविधाओं का परित्याग न किया जाय। मात्र घड़ियाल के आंसू बहाकर व्रत, उपवास जैसी लकीर पीट दी जाय तो उतने भर से कुछ बनेगा नहीं। व्रत, उपवास तो अनीति अपनाने से आत्मा पर चढ़ी कषाय-कल्मषों की परत धोने भर के लिए है। क्षति पूर्ति का प्रश्न तो फिर भी जहां का तहां रहता है। जो अनीति बरती है उसकी हानि की भरपाई कर सकना वर्तमान परिस्थितियों में जितना अधिक से अधिक सम्भव हो उसके लिए उदार साहस जुटाना चाहिए। घटनाओं की क्षति पूर्ति अर्थ दण्ड सहने से भी हो सकती है। रेल दुर्घटना आदि होने पर मरने वालों के घर वालों को सरकार अनुदान देती है। उसमें क्षति पूर्ति के लिए आर्थिक प्रावधान को भी एक उपाय माना गया है। प्रायश्चित्त विधानों में क्षति पूर्ति की दृष्टि से दान को महत्त्व दिया गया है। दानों में गौ दान, अन्न दान, उपयोगी निर्माण आदि के कितने ही उपाय सुझाये गये हैं। वे जिससे जितने बन पड़ें उन्हें वे उतनी मात्रा में करने चाहिए। कुछ भी न बन पड़े तो श्रमदान, सत्कर्मों में योगदान तो किसी न किसी रूप में हर किसी के लिए सम्भव हो सकता है। शास्त्र कहता है—
सर्वस्व दानं विधिवत्सर्व पाप विशोधनम् ।
—कूर्म पुराण
अनीति से संग्रह किये हुए धन को दान कर देने पर ही पाप का निवारण होता है।
दत्वै वापहृतं द्रव्यं धनिकस्याभ्यु पापतः ।
प्रायश्चित्तं ततः कुर्यात् कलुषस्य पापनुत्तये ।।
—विष्णु स्मृति
जिसका जो पैसा चुराया हो उसे वापिस करे और उस चोर कर्म का प्रायश्चित्त करे।
वापिसी सम्भव न हो तो अनीति उपार्जित साधनों का बड़े से बड़ा अंश श्रेष्ठ सत्कर्मों में लगा देना चाहिए।
प्रायश्चित्त में उपवास की तरह दान भी आवश्यक है। दोनों एक दूसरे के साथ परस्पर जुड़े हुए हैं।
प्राज्ञः प्रतिग्रहं कृत्वा तद्धनं सद्गति नयेत् यज्ञाद्वा पतितोद्धार पुण्यात् न्याय रक्षणेवापी कूप तड़ागेषु ब्रह्मकर्म समत्सृजेत् ।
—अरुण स्मृति
अनुचित धन जमा हो तो उसे यज्ञ, पतिद्वार, पुण्य कर्म, न्याय रक्षण, बावड़ी, कुंआ, तालाब आदि का निर्माण एवं ब्रह्म कर्मों में लगा दें। अनुचित धन की सद्गति इसी प्रकार होती है।
तेनोदपानं कर्त्तव्यं रोपणीयस्तथ वटः ।
—शाता.
सच्छास्त्र पुस्तकं दद्यात् विप्राय स दक्षिणाम् ।
—पाराशर
वापी कूप तडागादि देवता यतनानि च ।
पतितान्युद्धरेद्यस्तु व्रत पूर्ण समाचरित् ।।
—यम
सोपि पाप विशुद्ध्यर्थं चरेच्चान्द्रापण व्रतम् ।
व्रतान्ते पुस्तकं दद्यात् धेनु वत्स समन्वितम् ।।
—शातायन
सुवर्ण दानं गोदानं भूमिदानं तथैवच ।
नाशयन्त्याशु पापानि अन्यजन्म कृतान्यपि ।।
—सम्वर्त
इन अभिवचनों में सत्साहित्य वितरण—विद्यादान—वृक्षारोपण—कुंआ, तालाब, देवालय आदि का निर्माण—यज्ञ, दुःखियों की सेवा—अन्याय पीड़ितों के लिए संघर्ष आदि अनेक शुभ कर्मों में क्षति की पूर्ति के रूप में अधिक से अधिक उदारता पूर्वक दान देने का विधान है। इस दान श्रृंखला में गौ दान को विशेष महत्त्व दिया गया है। गौ की गरिमा को शास्त्रों में अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। इसलिए गौ दान की महिमा बताते हुए प्रायश्चित्त व्रतों के साथ उसे भी जोड़कर रखा गया है। यथा—
गोदानं च तथा तेषु कर्त्तव्यं पाप शोधनम् ।
—वृद्ध सूर्यारुण
‘यत्र यावत् संख्यया’ प्राजापत्या न्यावर्तनीयानि भवन्ति तत्र तावत् संख्यया गोदान्यावर्तनीयानि ।
—सूर्यारूपा
जिस प्रायश्चित्त में जितने प्राजापत्यादि व्रतों की संख्या का निर्धारण हो उनमें उतनी ही गौओं के दान का भी समावेश समझा जाना चाहिए।
दिलीप और उनकी पत्नी ने महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में रहकर गौर चराने का व्रत लिया था। गौ सम्पर्क में जो प्रभाव रहता है उससे भी सात्विकता की वृद्धि और पापों की निवृत्ति में बहुत योगदान मिलता है।
चान्द्रायण व्रत और गौ सम्पर्क
चान्द्रायण व्रत के साथ गौर सम्पर्क जुड़ा हुआ है। इस तपश्चर्या के अनेक कार्य ऐसे हैं जिनमें गौर को किसी न किसी प्रकार साथ लेकर चलना पड़ता है।
मुख में कोई अन्य वस्तु जाने देने से पहले चान्द्रायण व्रत कर्ता को ‘पंचगव्य’ ग्रहण करना होता है। इसके उपरान्त ही अन्य कोई वस्तु मुंह में जानी चाहिए। पंचगव्य गाय के दूध, दही, घृत, गोमूत्र, गोमय के सम्मिश्रण को कहते हैं। उसमें तुलसी पत्र और गंगाजल भी मिलाया जाता है।
तत्राप्यशक्ता चैकेन पंचगव्यं पिबेत्ततः ।—आपस्तंव
पंचगव्येन शुध्यति ।
—आपस्तंव
शुध्यते पंच गव्येन पीत्वा तोयमकामतः ।
—सम्वर्त
मृत्तिका शोधनं स्नानं पंचगव्यं विशोधनम् ।—अंगिरा
गोमूत्रं, गोमयं, क्षीरं, दधि, घृतं कुशोदकम् ।
निदिष्ट पंचगव्यन्तु पवित्रं पापनाशनम् ।।—सम्वर्त
पतितं प्रेक्षितं वापि पंचकव्येन शुध्यति ।
—अत्रि
श्रृणु पाण्डव तत्वेन, सर्व पापं प्राणशनम् ।
पापिनो येन शुद्ध्यन्ति तत्ते वक्ष्यामि सर्वशः ।।
यथावत्कर्तु कामोयस्तस्य यं प्रथमंनु यः ।
शोधयेत्तु शरीरं स्वं पंचगत्ये पवित्रतः ।।
—वृद्ध गौतम
यह चान्द्रायण व्रत समस्त पापों का शमन करने वाला है कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। उसे आरम्भ करते हुए शरीर को पंचगव्य से पवित्र बनाना चाहिए।
धर्म-प्रचार की पदयात्रा-तीर्थयात्रा—
पाप निवृत्ति और पुण्य वृद्धि दोनों प्रयोजनों की पूर्ति के लिए तीर्थयात्रा को शास्त्रकारों ने प्रायश्चित्त को तप साधना में सम्मिलित किया है। तीर्थयात्रा का मूल उद्देश्य है धर्म प्रचार के लिए की गई पदयात्रा। दूर-दूर क्षेत्रों में जन-सम्पर्क साधने और धर्म-धारणा को लोक-मानस में हृदयंगम करने का श्रमदान तीर्थयात्रा कहलाता है। श्रेष्ठ सत्पुरुषों के सान्निध्य में प्रेरणाप्रद वातावरण में—रहकर आत्मोत्कर्ष का अभ्यास करना भी तीर्थ कहलाता है। यों गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने के लिए किये गये प्रबल प्रयासों को भी तीर्थ कहा गया है। तीर्थ का तात्पर्य है तरना। अपने साथ-साथ दूसरों को तारने वाले प्रयासों को तीर्थ कहते हैं। प्रायश्चित्त विधान में तीर्थयात्रा की आवश्यकता बताई गई है।
आज की तथाकथित तीर्थयात्रा मात्र देवालयों के दर्शन और नदी, सरोवरों के स्नान आदि तक सीमित रहती है। यह पर्यटन मात्र है। इतने भर से तीर्थयात्रा का उद्देश्य पूरा नहीं होता। सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन के लिए किया गया पैदल परिभ्रमण ही तीर्थयात्रा कहलाता है। यह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य संवर्धन के लिए श्रेष्ठ उपचार भी है। धर्म प्रचार के लिए जन-सम्पर्क साधने का पैदल परिभ्रमण जन-समाज को उपयुक्त प्रेरणाएं प्रदान करता है। साथ ही उस श्रमदान से कर्त्ता की सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन भी होता चलता है। ऐसे ही अनेक कारणों को ध्यान में रखकर तीर्थयात्रा को ऐसा परमार्थ कहा गया है जिसे कर सकना प्रत्येक श्रमदान करने में समर्थ व्यक्ति के लिए सम्भव हो सकता है। तीर्थयात्रा का स्वरूप और माहात्म्य शास्त्रकारों ने इस प्रकार बताया है—
नृणां पापकृतां तीर्थं पापस्य शमनं भवेत् ।
यथोक्त फलदं तीर्थ भवेच्छुद्धात्मनां नृणाम् ।।
पापी मनुष्यों के तीर्थ में जाने से उनके पाप की शान्ति होती है। जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, ऐसे मनुष्यों के लिए तीर्थ यथोक्त फल देने वाला है।
तीर्थान्यनुसरन् धीरः श्रद्धायुक्तं समाहितः ।
कृतपापो विशुद्धश्चेत् किं पुनः शुद्ध कर्मकृत् ।।
जो तीर्थों का सेवन करने वाला, धैर्यवान् श्रद्धायुक्त और एकाग्रचित्त है, वह पहले का पापाचारी ही तो भी शुद्ध हो जाता है, फिर जो शुद्ध कर्म करने वाला है, उसकी तो बात ही क्या है।
तीर्थानि च यथोक्तेन विधिना संचरन्ति ये ।
सर्वद्वन्द्वसद्धा धीरास्ते नराः स्वर्गगामिनः ।।
जो यथोक्त विधि से तीर्थयात्रा करते हैं, सम्पूर्ण द्वंद्वों को सहन करने वाले हैं वे धीर पुरुष स्वर्ग में जाते हैं।
यावत् स्वस्थोऽस्ति मे देहो यावन्नेन्द्रियविक्लवः ।
तावत् स्वश्रेयसा हेतुः तीर्थयात्रां करोम्यहम् ।।
जब तक मेरा शरीर स्वस्थ है, जब तक आंख, कान आदि इन्द्रियां सक्रिय हैं, तब तक श्रेय प्राप्ति के लिए तीर्थयात्रा करते रहने का निश्चय करता हूं।
तीर्थ परम्परा भारतीय संस्कृति का प्राण रही है। पर उसे तप के रूप में ही प्रयुक्त किया गया है। आज तो यात्राएं पर्यटन तथा मनोरंजन के लिये होती हैं। उनसे पाप परिशोधन तो कुछ होता नहीं उल्टे पाप वृद्धि ही होती है। अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं का आर्ष स्वरूप बनाये रखने की दृष्टि से इस मिशन द्वारा 24 गायत्री शक्तिपीठों (तीर्थों) की स्थापना हुई है। तीर्थ सेवन के इच्छुक परिजन इन स्थापनाओं का पुण्य लाभ लेकर चान्द्रायण तप सम्पन्न कर सकते हैं।