शास्त्रों में प्रायश्चित प्रकरण में कई प्रकार के विधानों का वर्णन है। कृच्छ, अतिकृच्छ, तप्तकृच्छ, सौम्य कृच्छ, पाद कृच्छ, महा कृच्छ, कृच्छाति कृच्छ, पर्ण कृच्छ, सान्तापन, कृच्छ सान्तापन, महा सान्तापन, प्राजापत्य, पराक, ब्रह्मकूर्य आदि विधानों का उल्लेख है। इनमें चान्द्रायण व्रतों को तप में सर्व प्रमुख माना गया है।
उनकी क्रिया-प्रक्रिया सर्वविदित है। मोटे नियम इस प्रकार हैं—
एकैकं ह्रासयेत्पिंड कृष्णे, शुक्ले च वर्द्धयेत् ।
इन्दुक्षयेन पुंजीत एवचान्द्रायणो विधि ।। —वशिष्ठ
पूर्णमासी को पूर्ण भोजन करके एक-एक ग्रास घटाता जाय। चन्द्रमा ने दीखने पर अमावस्या और प्रतिपदा को निराहार रहे। पीछे एक-एक ग्रास बढ़ाकर शुक्ल पक्ष के 14 दिनों में पूर्ण आहार तक पहुंच जाय।
ग्रास से तात्पर्य मुर्गी के अण्डे जितना तथा मुंह में जितना आहार एकबार में आ सके उतना है—
कुक्कुटाण्ड प्रमाणं स्याद् यावद् वास्य मुखे विशेत् ।
एतग्रासं विजानीयुः शुद्धयर्थे काय शोधनम् ।। —अत्रि
‘‘मुर्गी के अण्डे के बराबर या जितना सुविधापूर्वक मुख में आ सकता हो उतना बड़ा ग्रास चान्द्रायण में ग्रहण करना चाहिए।’’
ग्रास परिमाण के झंझट में पहुंचने की अपेक्षा यह उत्तम है कि पूर्णिमा वाले आहार का चौदहवां अंश कृष्ण पक्ष में घटाता जाय और शुक्ल पक्ष में उसी अनुपात से हर दिनों बढ़ाते चला जाय।
नित्य स्नायी मिताहारी गुरुदेव द्विजार्चकः ।
पवित्राणि जपेच्चैव गुहुयाच्चैव शक्तितः ।।
ब्रीहिणाष्टिक मुद्गाश्च गोधूम सतीला यवाः ।
चरुभैक्ष्यं सक्तुव्रणाः शांवांघृत दधि पयः ।। —अग्नि पुराण
नित्य स्नान करें, भूख से कम खायें, गुरु, देव, ब्रह्म परायणों का अभिवादन करें, पवित्र रहें, जप करें, हवन करें।
जौ, चावल, मूंग, गेहूं, तिल, हविष्यान्न, सत्तू, शाक, दूध, दही, घृत पर निर्वाह करें।
चान्द्रायण के भेद हैं
(1) पिपीलिका
(2) यव मध्य
(3) यति
(4) शिशु।
इन चारों के अन्य नियम समान हैं, पर आहार सम्बन्धी कठोरता, न्यूनाधिक है। यदि तपश्चर्या अधिक कठिन है और शिशु व्रत साधन में शरीर और मन की स्थिति को देखते हुए सरलता रखी गई है।