गायत्री की अनुष्ठान एवं पुरश्चरण साधनाएँ

गायत्री की उद्यापन साधना

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गायत्री एक अत्यन्त ही उच्च कोटि का आध्यात्मिक विज्ञान है। उसके द्वारा अपने मानसिक दोष-दुर्गुणों को हटाकर अन्तःकरण को निर्मल बनाया जाता है और यह हर किसी के लिए बहुत ही सहज है। इसके अतिरिक्त यदि गहरे आध्यात्मिक {क्षेत्र में उतरा जाये तो अनेक प्रकार की चमत्कारी ऋद्धि-सिद्धियां उपलब्ध हो सकती हैं। भौतिक दृष्टि से सकाम कामनाओं के लिए, सांसारिक कठिनाइयों का समाधान करने तथा सुख-सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए भी महत्त्वपूर्ण सहायता ली जा सकती है। इन साधनाओं में से बहुत का उल्लेख पिछले पृष्ठों पर किया जा चुका है।

विशेष आत्मिक शक्ति अर्जित करने के लिए अधिक समय लगाना पड़ता है। कई व्यक्तियों की स्थिति ऐसी होती है कि वे थोड़ा भी समय नहीं निकाल पाते। उनका जीवन-क्रम बड़ा अस्त-व्यस्त होता है और वे सदा कार्य-व्यस्त रहते हैं। व्यावहारिक जीवन की कठिनाइयां उन्हें चैन नहीं लेने देतीं। जीविका कमाने में, सामाजिक व्यवहारों को निभाने में, पारिवारिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने में, उलझी हुई परिस्थितियों को सुलझाने में, कठिनाइयों के निवारण की चिन्ता में उनके समय और शक्ति का इतना व्यय हो जाता है कि जब फुरसत मिलने की घड़ी आती है तब वे अपने को थका-मांदा, शक्तिहीन, शिथिल और परिश्रम के भार से चकनाचूर पाते हैं। उस समय उनकी एक ही इच्छा होती है कि उन्हें चुपचाप पड़े रहने दिया जाय, कोई उन्हें छेड़े नहीं ताकि वे सुस्ताकर अपनी थकान उतार सकें। कई व्यक्तियों का शरीर एवं मस्तिष्क अल्पशक्ति वाला होता है, मामूली दैनिक कार्यों के श्रम में ही वे अपनी शक्ति खर्च कर देते हैं फिर उनके हाथ-पैर शिथिल हो जाते हैं।

साधारणतः सभी आध्यात्मिक साधनाओं के लिए और विशेषकर गायत्री-साधना के लिए उत्साहित मन एवं शक्ति-सम्पन्न शरीर की आवश्यकता होती है ताकि स्थिरता, दृढ़ता, एकाग्रता और शान्ति के साथ मन साधना में लग सके। इसी स्थिति में की गई साधनायें सफल होती हैं। परन्तु कितने लोग हैं जो ऐसी स्थिति को उपलब्ध कर पाते हैं। अस्थिर, अव्यवस्थित चित्त किसी प्रकार साधना में जुटाया जाय तो उससे वैसा परिणाम नहीं निकल पाता, जैसा कि निकलना चाहिए। अधूरे मन से की गई उपासना भी अधूरी होती है और उसका फल भी वैसा ही अधूरा मिलता है।

ऐसे स्त्री-पुरुषों के लिये एक अति सरल एवं बहुत महत्त्वपूर्ण साधना ‘‘गायत्री-उद्यापन’’ है। इसे बहुधन्धी काम-काजी और कार्य व्यस्त व्यक्ति भी कर सकते हैं। कहते हैं कि बूंद-बूंद जोड़ने से धीरे-धीरे घड़ा भर जाता है। थोड़ी-थोड़ी आराधना करने से कुछ समय में एक बड़े परिमाण में साधना शक्ति जमा हो जाती है।

प्रतिमास अमावस्या और पूर्णमासी दो रोज उद्यापन की साधना करनी पड़ती है। किसी मास की पूर्णिमा से इसे आरम्भ किया जा सकता है। ठीक एक वर्ष बाद इसी पूर्णमासी को उसकी समाप्ति करनी चाहिए। प्रति अमावस्या और पूर्णमासी को निम्न कार्यक्रम होना चाहिए और इन नियमों का पालन करना चाहिए।

(1)   गायत्री उद्यापन के लिये कोई सुयोग्य ,सदाचार, गायत्री-विद्या का ज्ञाता ब्राह्मण वरण करके उसे ब्रह्मा नियुक्त करना चाहिए।

(2)   ब्रह्मा को उद्यापन आरम्भ करते समय अन्न, वस्त्र, पात्र और यथा सम्भव दक्षिणा देकर इस यज्ञ के लिये वरण करना चाहिए।

(3)   प्रत्येक अमावस्या व पूर्णमासी को साधक की तरह ब्रह्मा भी अपने निवास स्थान पर रहकर यजमान की सहायता के लिए उसी प्रकार की साधना
        करें। यजमान और ब्रह्मा को एक समान नियमों का पालन करना चाहिए, जिससे उभयपक्षीय साधनायें मिलकर एक सर्वांगपूर्ण साधना प्रस्तुत हो।

(4)   उस दिन ब्रह्मचर्य से रहना आवश्यक है।

(5)   उस दिन उपवास रखें। अपनी स्थिति और स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए एक बार एक अन्न का आहार, फलाहार, दुग्धाहार या इनके मिश्रण के
        आधार पर उपवास किया जा सकता है। तपश्चर्या एवं प्रायश्चित प्रकरण में इस सम्बन्ध में विस्तृत बातें लिखी जा चुकी हैं।

(6)   तपश्चर्या प्रकरण में जो नियम, व्रत पालन किये जा सकें, उनका यथा सम्भव पालन करना चाहिए। उस दिन पुरुषों को हजामत बनाना, स्त्रियों
        को सुसज्जित चोटी गूंथना वर्जित है।

(7)    उस दिन प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत्त होकर स्वच्छता पूर्वक साधना के लिए बैठना चाहिए। गायत्री सन्ध्या करने के उपरान्त गायत्री की प्रतिमा
         (चित्र या मूर्ति) का पूजन धूप, दीप, चावल, पुष्प, चन्दन, रोली, जल, मिष्ठान से करें। तदुपरान्त यजमान इस उद्यापन के ब्रह्मा का ध्यान करके
         मन-ही-मन उसे प्रणाम करें और ब्रह्मा यजमान का ध्यान करते हुए उसे आशीर्वाद दे। इसके पश्चात् गायत्री मन्त्र का जप आरम्भ करे। एक हजार
         मन्त्र का जप करने के लिये दस मालायें फेरनी चाहिए। एक मिट्टी के पात्र में अग्नि रखकर उसमें घी में मिली हुई धूप डालता रहे, जिससे यज्ञ जैसी
         सुगन्ध उड़ती रहे। साथ ही घी का दीपक जलता रहे।

(8)    जप पूरा होने पर कपूर या घृत की बत्ती जलाकर आरती करे। आरती के उपरान्त भगवती को मिष्ठान्न का भोग लगावें और उसे प्रसाद की
         तरह समीपवर्ती लोगों में बांट दें।

(9)     पात्र के जल को सूर्य के सम्मुख अर्च्यरूप से चढ़ा दें।

(10)    यह सब कृत्य लगभग दो घण्टे में पूरा हो जाता है, पन्द्रह दिन बाद इतना समय निकाल लेना कुछ कठिन बात नहीं है। जो अधिक कार्य व्यस्त
          व्यक्ति हैं वे दो घण्टे तड़के उठकर सूर्योदय तक अपना कार्य समाप्त कर सकते हैं। सन्ध्या को यदि समय मिल सके तो थोड़ा बहुत उस समय
          भी साधारण रीति से कर लेना चाहिए। सन्ध्या पूजन आदि की आवश्यकता नहीं। प्रातः और सायं का एक समय पूर्व निश्चित होना चाहिए,
          जिस पर यजमान और ब्रह्मा साथ-साथ साधना कर सकें ।

(11)  यदि किसी बार बीमारी, सूतक, आकस्मिक कार्य आदि के कारण साधना न हो सके तो दूसरी बार दूना करके क्षति पूर्ति कर लेनी
      चाहिए या यजमान का कार्य ब्रह्मा या ब्रह्मा का कार्य यजमान पूरा कर दे ।

(12)  अमावस्या, पूर्णमासी के अतिरिक्त भी गायत्री का जप चालू रखना चाहिए, अधिक न बन पड़े तो स्नान के उपरान्त या स्नान
      करते समय कम से कम चार मंत्र मन ही मन अवश्य जप लेना चाहिए ।

(13)  उद्यापन पूरा होने पर उसी पूर्णमासी को गायत्री पूजन, हवन तथा जप और कन्या भोजन कराना चाहिए । लोगों को गायत्री
      सम्बन्धी छोटी या बड़ी पुस्तकें दक्षिणा में देना चाहिए । द्रव्य दान की अपेक्षा ज्ञान दान का पुण्य फल सौ गुना अधिक है । इस
      युग में तो दान के उपयुक्त पात्र बहुत कम मिलते हैं । अधिकांश प्राप्त दान का दुरुपयोग करते हैं अत: ज्ञान दान ही सर्वोपरि
      माना जाना चाहिए ।



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