गायत्री की अनुष्ठान एवं पुरश्चरण साधनाएँ

सामूहिक साधना का उपयुक्त अवसर—नवरात्रि पर्व

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नवरात्रि पर्व पर एकाकी अथवा पारिवारिक साधनाओं की अपेक्षा सामूहिक रूप से अनुष्ठान सम्पन्न हों तो उनकी महत्ता बहुत अधिक होती है। प्राचीन काल में ऐसे आयोजनों की सर्वत्र परम्परा थी। कहीं-कहीं तो आज भी नवरात्रि पर्व गांव के गांव मिलकर सम्पन्न करते हैं। जहां यह परम्परा न चलती हो वहां भी नवरात्रि सामूहिक रूप से पंडाल बनाकर उसे सजाकर सम्पन्न की जानी चाहिये। सामूहिक हवन का क्रम प्रतिदिन चले तो अच्छा अन्यथा अन्तिम दिन तो रखा ही जायं।

कुछ काम ऐसे होते हैं जो नितान्त वैयक्तिक होते हैं। दूसरों की जानकारी या भागीदारी उनमें विक्षेप उत्पन्न करती है ऐसा कोई कार्य एकान्त में ही किया जा सकता है। पर अन्य सारे काम मिलजुल कर करने होते हैं। मनुष्य की संरचना ही ऐसी है जिसमें हर महत्वपूर्ण एवं उपयोगी कार्य मिल जुल कर ही करना उपयुक्त पड़ता है। मल-मूत्र का विसर्जन, स्नान, शयन, अश्लील आचरण जैसे कुछ ही कार्य हैं जो दूसरों को अरुचि कर लगते हैं वे एकान्त में ही किये जाते हैं। जिन जानकारियों को प्राप्त करके दूसरे अपनी हानि कर सकते हैं। ऐसे जमीन में धन गाढ़ने जैसे काम भी गोपनीय रखे जाते हैं। अच्छी योजनाएं तो सबको बताई जाती हैं और उसमें सलाह-परामर्श भी मांगे जाते हैं। किन्तु कोई दुरभिसन्धि रचनी हो, कुकृत्य करना हो तो उस षड़यन्त्र का दूसरों को पता नहीं चलने दिया जाता।

उपासना का एक स्तर ऐसा भी होता है जिसमें वैज्ञानिक प्रयोग परीक्षण की तरह एकान्त की आवश्यकता पड़ती है पर वह विशेष स्थिति विरले लोगों के लिए विशेष अन्वेषण के लिए कुछ ही समय के लिए आती है। सामान्यतया भौतिक और आत्मिक प्रगति के सभी प्रयोजन मिल-जुल कर पूरे करने पड़ते हैं उन्हीं में आनन्द भी आता है, उन्हीं में सफलता मिलती है और श्रेय-सम्मान भी ऐसे ही कार्यों में मिलता है, जो पारस्परिक सहयोग के साथ किये जाते हैं। उपासना के सम्बन्ध में भी यही बात है।

सामूहिक प्रार्थना को समस्त संसार में, समस्त धर्मों में सदा से महत्व दिया जाता रहा है। ईसाइयों की सामूहिक प्रार्थना रविवार के दिन गिरजे में होती है। मुसलमान मस्जिद में एकत्रित होते हैं और एक नियत समय पर, नियत विधि से मिल-जुलकर उस कृत्य को पूरा करते हैं। ईद-बकरीद जैसे पर्व सामूहिक पूजा प्रार्थना के रूप में ही सम्पन्न होते हैं। जो रोज मस्जिद नहीं जा सकते वे सप्ताह में एक बार शुक्र को तो वहां पहुंचने का प्रयत्न करते ही हैं। ईसाइयों में बड़े दिन जैसे पर्वों पर हंसी-खुशी अन्य अभिव्यक्तियों के साथ मिल-जुलकर बड़े रूप में उपासना कृत्य सम्पन्न किया जाता है। यदि यह कार्य सब लोग अलग-अलग बैठकर करें तो आनन्द मिलना तो दूर मन लगाना तक कठिन हो जायगा।

यहूदी, पारसी, बौद्ध आदि संसार के सभी धर्मों में उपासना पर्व मिल-जुलकर ही सम्पन्न किए जाते हैं। प्राचीन काल में योग विज्ञान के कुछ अन्वेषण अपने विशिष्ट प्रयोगों और अनुसंधानों के लिए एकान्त की आवश्यकता अनुभव करते थे और वन प्रदेशों एवं कन्दराओं में चले जाते थे पर यह प्रयोग सर्व साधारण के लिए कुछ विशेष व्यक्तियों के लिए ही आवश्यक होता है। शेष के लिए तो समूची अध्यात्म साधनायें भी मिल-जुलकर सम्पन्न होती थीं।

सूत शौनक सम्वादों में नैमिषारण्य आदि क्षेत्र में हजारों ऋषियों का एकत्रित होना और सत्संग क्रम चलना प्रसिद्ध है। पुराण चर्चा ऐसी ही ज्ञान-गोष्ठियों में सम्पन्न होती थी। वानप्रस्थों के लिए विशालकाय आरण्यक की व्यवस्था थी। जिस प्रकार गुरुकुल में विद्यार्थी मिल-जुलकर रहते और पढ़ते थे उसी प्रकार वानप्रस्थ संन्यासी भी इन आरण्यकों में निवास, अध्ययन, साधना का लाभ लेते थे। तीर्थों की रचना ही इस प्रयोजन के लिए हुई थी कि वहां पहुंचकर सामान्य व्यक्ति भी साधना एवं शिक्षण सत्र में सम्मिलित रहकर आत्म परिष्कार का अवसर प्राप्त कर सकें।

उपासना भी ऐसा ही कृत्य है जिसमें सामूहिकता अपनाने में कहीं अधिक आनन्द मिलता है और कहीं अधिक सफलता मिलती है। मन्दिरों में सामूहिक आरती की परम्परा आदि काल से चली आ रही है। पाठशालाओं में अध्ययन करने से पूर्व बालक सामूहिक प्रार्थना करते हैं। पर्वों का निर्माण ही उस उद्देश्य को लेकर हुआ है कि लोग मिल-जुलकर धर्म कृत्य करने का महत्त्व समझें। वसन्त पंचमी, शिवरात्रि, होली, रामनवमी, गंगा दशहरा, गुरुपूर्णिमा, श्रावणी, जन्माष्टमी, विजयादशमी आदि सभी पर्वों पर जगह-जगह अपने-अपने ढंग से उत्सव मनाये जाते हैं और एकत्रित लोग मिल-जुलकर परम्परागत धर्म कृत्यों को सम्पन्न करते हैं।

मेलों का रूप अब मनोरंजन प्रधान या व्यवसायिक भले ही बन गया हो पर उनके आरम्भ करने वालों का क्या प्रयोजन रहा है। तथा अभी भी उनके पीछे मूल उद्देश्य क्या छिपा हुआ है? इसका थोड़ी-सी गहराई में अन्वेषण करने पर एक ही तथ्य उभर कर आता है—धर्म धारणा को मिल-जुलकर प्रोत्साहित एवं परिपक्व करना।

सामूहिक प्रयत्नों से अधिक सुविधा व्यवस्था और सफलता मिलती ही हैं साथ ही सबसे बड़ी बात यह है कि मन लगा रहता है और उत्साह मिलता है। यह सोचना गलत है कि एकांत में मन लगता है। सच तो यह है कि चित्त उचटने की उसी में अधिक कठिनाई पड़ती है। समूह में तो अन्य मनों के साथ अपना मन भी रस्से में बंधा रहता है और झुण्ड में उड़ने वाले पक्षियों की तरह एक दिशा में उड़ता रहता है किन्तु एकाकी पखेरू—अकेला रहने वाला पशु जिस प्रकार खिन्न उद्विग्न दिखाई पड़ता है उसी तरह एकाकी मन भी उदास, नीरस, खिन्न बना रहता है।

सुख और दुःख मिल-बांटकर ही भोगे जा सकते हैं। करोड़पति और समस्त साधना सम्पन्न व्यक्ति को भी यदि एकाकी रहने दिया जाय तो उन समस्त साधनों के रहते हुए भी उस पर उदासी ही छाई रहेगी। बिना दूसरों के सहयोग के प्रसन्नता की अनुभूति अत्यन्त कठिन है। जंगलों में कभी-कभी कोई जानवर झुण्ड से अलग होकर एकाकी रहने लगते हैं, तो इस दुष्प्रवृत्ति को अपनाते ही उन्हें अपने समाज की सौम्य परम्पराओं से भी हाथ धोना पड़ता है। वनवासी जानता है कि इकट्ठे अकेले रहने वाले पशु कितने खतरनाक होते हैं वे अकारण मनुष्यों तथा दूसरे पशुओं पर हमला बोलते हैं। देखते ही वनवासी उनसे पीछा छुड़ाने का काम हाथ में लेते हैं। मनुष्यों में भी इक्कड़ प्रवृत्ति जहां भी मिलेगी वहां उन लोगों में संकीर्णता, स्वार्थपरता, अनुदारता, निष्ठुरता जैसी दुष्प्रवृत्तियां भरी दिखाई देंगी। न वे किसी के काम आ रहे होंगे और न कोई उन्हें सहयोग दे रहा होगा। फलतः उन्हें सबसे और सबको उनसे शिकायत ही बनी रहेगी।

नवरात्रि पर्व सामूहिक उपासना का पर्व है। साधना के लिए प्रकृतिगत अनुकूलता एवं सूक्ष्म जगत में उन दिनों विशिष्टता का ध्यान रखते हुए इन दिनों अधिक साधना रत होने की परम्परा चली आती है। यह प्रयत्नशीलता और परिस्थिति का भली प्रकार तालमेल मिलना है।

नवरात्रि साधना में प्रकृतिगत-अनुकूलता की बात जितनी महत्वपूर्ण है उतनी ही उपयोगिता सामूहिक साधना के प्रचलन की भी है। यह पर्व सर्वत्र स्नेह सहयोग के वातावरण में मिल-जुलकर ही मनाया जाता है। सब उत्साह और आनन्द के ज्वार-भाटे सहकारिता के चुम्बकत्व भरी पवन से ही उत्पन्न होते हैं। हर कोई अलग-अलग ही टंट-घण्ट करता रहे तो उतने भर से उमंगों और भावभरी गुदगुदी का कहीं दर्शन भी न हो सकेगा।

नवरात्रि में रामलीला, रासलीला रामायण, सप्तशती पाठ—भागवत् पाठ—अखंड कीर्तन जैसे सामूहिक धर्मानुष्ठान चलते रहते हैं। इनसे जो वातावरण बनता है उससे जनमानस को एक दिशा विशेष में प्रभावित होने का सहज अवसर मिलता है। रामलीला के मेले में हनुमान, काली आदि के मुखौटे और तीर कमान बिकते हैं बच्चे उन्हें बड़े चाव से खरीदते हैं और राम-लक्ष्मण जैसे तीर चलाने, हनुमान-काली जैसी उछलकूद करने का अभिनय करते हैं। यह आचरण किसी के कहने से नहीं अनुकरण की मानव प्रकृति के प्रभाव से स्वतः ही सम्पन्न होते हैं। ठीक इसी प्रकार अन्यान्य धर्मानुष्ठानों से भी उनके साथ जुड़ी हुई प्रेरणाओं का प्रभाव पड़ता है। जन मानस को प्रभावित करने और उसे श्रेष्ठता की दिशा में प्रभावित करने के विशेष लाभ को ध्यान में रखते हुए ही तत्व दर्शकों ने धर्मानुष्ठान की परम्परा में सामूहिकता का उल्लास जोड़ा है। यह परम्परा हर दृष्टि से दूर दर्शिता पूर्ण और उपयोगी देखकर ही आरम्भ की गई है।

नवरात्रि के पावन पर्व प्राचीन काल में गायत्री उपासना का ही एक मात्र प्रसंग मिलता है। विभिन्नताएं तो साम्प्रदायिक उन्माद की देन हैं। सनातन संस्कृति में तो पूरी तरह एक रूपता, एक निष्ठा, एक दिशा, एक लक्ष्य का ही निर्धारण था। ज्ञान और विज्ञान के आधार थे। वेद और उपासना का समूचा तत्वज्ञान और विधि-विधान गायत्री उपासना की धुरी पर परिभ्रमण करता था। उन दिनों सर्व साधारण के लिए दैनिक संध्यावन्दन के रूप में गायत्री मन्त्र ही उपासना का मेरुदण्ड था। विशिष्ट साधकों के लिए इसी कल्प वृक्ष के नीचे अभीष्ट सफलताओं की साधना का उपयुक्त आश्रय मिलता था। योगी और तपस्वी इसी अवलम्बन के सहारे अपना महालक्ष्य प्राप्त करते थे। देवताओं और अवतारों के लिए भी शक्ति का स्रोत यही महायज्ञ था। तब और कुछ न तो सोचने की गुंजाइश थी और न भटकाने वाली भूल-भुलैया ही तब तक रची गई थी। ऐसी दशा में सामान्य अथवा विशिष्ट उपासना में रुचि रखने वाले एक ही मार्ग पर धीमी या तेज गति से चलते थे। नवरात्रि पर्व पर जहां जैसी साधना-योजना बनती थी उससे गायत्री मन्त्र को केन्द्र और सामूहिक आयोजन को प्रक्रिया का अवलम्ब बनाया जाता था।

सांस्कृतिक पुनरुत्थान के इस पुण्य प्रभात में हमें अपनी विस्मृत परम्पराओं को फिर से खोज निकालने और सजीव करने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से जागृत आत्माओं को नवरात्रि पर्व और गायत्री उपासना का सामूहिक उपक्रम मिला देने का प्रबल प्रयत्न करना चाहिए। विलगाव और भटकाव के जंजाल में से निकलकर निर्धारित लक्ष्य की ओर चल पड़ने का यही एक उपाय है।

नवरात्रि के साथ दुर्गावतरण की कथा जुड़ी हुई है। असुरों से संत्रस्त देवता प्रजापति के पास जाते हैं और पूछते हैं कि हम सद्गुणों से सम्पन्न होते हुए भी दुष्ट असुरों से हारते क्यों हैं? ब्रह्मा जी ने सीधा उत्तर दिया। संगठन और पराक्रम के अभाव में अन्य गुण निष्प्राण ही बने रहते हैं। संकट से छूटने और वर्चस्व पाने के लिए संगठित और पराक्रमी बनने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। देवता सहमत हुए। योजना बनी और संगठित पराक्रम की देवी दुर्गा का अवतरण संभव हुआ। उन्हीं के प्रहार से तत्कालीन असुर-दानवों का पराभव संभव हुआ। आज भी वही स्थिति है। देवत्व को हारते और दैत्य को जीतते पग-पग पर देखते हैं। उसमें दैत्य की वरिष्ठता कारण नहीं वरन् तथ्य यह है कि देव पक्ष ने न तो संगठित होने की आवश्यकता समझी और न पराक्रम के हाथ दिखाये इस भोलेपन को दैत्यों ने दुर्बलता समझा और आक्रमण का खंग निर्द्वन्द होकर चलाना शुरू कर दिया। संक्षेप में आज की विभीषिकाओं के मूल में यही एक कारण है। इसका निराकरण भी तब तक संभव न होगा जब तक कि दुर्गावतरण की पुनरावृत्ति न होगी। गायत्री जयन्ती पर उस महाशक्ति का पतित पावनी गायत्री-गंगा शक्ति का अभिनन्दन किया जाता है। नवरात्रि में उसका उत्तरार्ध सम्पन्न किया जाना चाहिए। असुरनिकन्दिनी के प्रचण्ड भर्ग को जीवित, जागृत और सक्रिय करने का ठीक यही समय है। नवरात्रि को दुर्गा पूजा से आत्म साधना के साधकों को ब्रह्मवर्चस की प्रेरणा उपलब्ध करनी चाहिए।

सामूहिकता की शक्ति से बाल, वृद्ध, विज्ञ, अज्ञ सभी परिचित हैं। सींकों से मिलकर बुहारी, धागों से मिलकर रस्सा, ईंटों से मिलकर भवन की बात सर्व विदित है। सिपाहियों का समूह, सेना मनुष्यों का समूह समाज कहलाता है इसे कौन नहीं जानता। बिखरे हुए धर्म-प्रेमियों को एक झण्डे के नीचे इकट्ठे और संगठित करने का प्रयास नवरात्रि की सामूहिक साधना के माध्यम से भली प्रकार सम्पन्न किया जा सकता है। बिखराव को संगठन में, उदासी को पराक्रम में बदलने की प्रेरणा नवरात्रि के नवदुर्गा के पुरातन इतिहास का अविच्छिन्न अंग है। पुरातन को अर्वाचीन में प्रत्यावर्तित करने के लिए नवरात्रि के साथ जुड़े हुए दुर्गावतरण के कथा प्रसंग को भली प्रकार उभारा जा सकता है। यह इसीलिए आवश्यक नहीं कि हमें अतीत की महानता उपलब्ध करनी है इसलिए भी अभीष्ट है कि संगठन और पराक्रम के बिना युग की समस्याओं का समाधान भी संभव न हो सकेगा।

एक समय में एक उद्देश्य के लिए एक मन से जो काम किये जाते हैं उनका प्रभाव और प्रतिफल असाधारण होता है। कोई भारी चट्टान, छप्पर आदि उठाते समय मजूर एक साथ मिलकर जोर लगाने के लिए ‘हईन्शा’ जैसा कोई नारा लगाते हैं। सामान्य प्रयत्नों से सामान्य गति से काम करने की अपेक्षा इस प्रकार के काम अधिक सरलता पूर्वक सम्पन्न हो जाते हैं। एक साथ जोर लगाने का परिणाम शक्ति विज्ञान का हर विद्यार्थी भली प्रकार जानता है। नवरात्रि के एक ही पर्व पर प्रातःकाल एक ही इष्ट के प्रेमीजन जब एक ही विधि से एक ही उपासना करते हैं तो इसका परिणाम सामान्य क्रम की अपेक्षा कहीं अधिक श्रेयस्कर होता है।

पुलों पर चलती हुई सेना को कदम मिलाकर चलने से मनाकर दिया जाता है। एक ही समय में एक ही क्रम से बनने वाली पदयात्रा की शब्द तरंगें इतनी विचित्र होती हैं कि उनके प्रभाव से वह पुल फट या टूट तक सकता है। सामूहिक उपासना में एक ही क्रम का शब्द प्रवाह हर दृष्टि से उपयोगी होता है।

अन्यान्य धर्मों में भी इस समय साधना का बहुत महत्व दिया गया है। नमाज में समय पालन पर बहुत जोर दिया गया है। दौज के चन्द्रमा के दर्शन को विशेष महत्व दिया गया है। इसमें एक ही समय पर एक ही मनोवृत्ति को उभारने का प्रयत्न है। भक्ति भाव के प्रभाव में इस भौतिक समावेश का भी लाभ जुड़ जाता है तो उसकी प्रतिक्रिया सूक्ष्म जगत में बहुत ही अनुकूल होती है। वातावरण बनता है और उसके प्रभाव से हर प्राणी और पदार्थ प्रभावित होता है।

सदुद्देश्य के लिए सामूहिक प्रयत्नों की शक्ति को तत्व दर्शियों ने सदा स्वीकार किया है। अवतारों तक ने उसे अपने साथ लिया है। राम ने रीछ-वानरों और गिद्ध-गिलहरियों के सहयोग का संचय किया था। गोवर्धन उठाने में कृष्ण को भी जन-शक्ति को साथ लेकर चलना पड़ा था। बुद्ध और गांधी की सफलताओं में जन-सहयोग का प्रत्यक्ष परिचय है। ऋषियों ने रक्त संचय करके घट भरा था और उसके द्वारा असुरों का विनाश करने की सूत्र संचालिनी सीता का जन्म हुआ था। युग परिवर्तन भी ऐसा ही अवतारी प्रयोजन है इसमें धर्म प्रिय जागृत आत्माओं द्वारा सामूहिक साधना किये जाने की आवश्यकता है। इसकी संयुक्त से अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में असाधारण सहायता मिलेगी। नवरात्रि सामूहिक उपासना में ऐसे ही प्रक्रिया का समावेश समझा जा सकता है।

प्रातःकाल पक्षी मिल-जुलकर चहचहाते और अरुणोदय का अभिवन्दन करते हैं। मेघ गरजने पर सभी मेघ मिलकर उनके स्वागत का जयघोष करते हैं। वसन्त में प्रायः सभी मोर गूंजते हैं और सभी कोयलें कूकती हैं। नवयुग के इस वासन्ती प्रभाव में युग शक्ति के अवतरण का स्वागत भी जागृत आत्माओं को मिल-जुलकर ही करना चाहिए। साधना ही पुरुषार्थ है। नल-नील की तरह हमें भी युग सेतु बांधना है उसके पत्थर और पेड़ जमा करने में हममें से किसी को भी पीछे नहीं रहना चाहिए। नवरात्रि का पुण्य पर्व इस प्रयोजन के लिए सब में महत्वपूर्ण और उपयुक्त समय है। उसमें सामूहिक साधना के रूप में हम सबको अपने आध्यात्मिक पुरुषार्थ का समन्वय करना ही चाहिए।

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