गायत्री की अनुष्ठान एवं पुरश्चरण साधनाएँ

परम पवित्रतादायक चान्द्रायण तप

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धर्म-शास्त्रों में प्रायश्चित्तों के अनेकों विधि-विधान बताये हैं। उन सबमें उपवास की तपश्चर्या को प्रधानता दी गई है। गीता में ‘उपवास से विषयों की निवृत्ति होना’ बताया गया है। लिप्सा और लालसा, लोभ और मोह वासना और तृष्णा यही हैं वे आन्तरिक विष बीज जिनके कारण अनेक प्रकार के दुष्कर्म बन पड़ते हैं। इन्हीं आंतरिक दुष्ट उभारों को विषय कहा गया है विषयों की निवृत्ति के लिए उपवास का कठोर अनुशासन अपनाना पड़ता है और उसके उपरान्त आहार में सात्विकता का समावेश करना पड़ता है। मन की प्रवृत्तियों के निर्माण में अन्न ही बीज रूप होता है। आहार की सात्विकता से मन को शान्त और सुसंस्कारी बनाने में सफलता मिलती है। यह सारी प्रक्रिया उपवास मर्यादा के अन्तर्गत आती है। प्रायश्चित विधान का प्रथम चरण यही है। किन्तु बात इतने से ही समाप्त नहीं हो जाती।

प्रायश्चित के अगले चरण और भी हैं जिनमें-पाप का प्रकटीकरण—दूसरों को पहुंचाई गई क्षति की पूर्ति इनमें से प्रमुख हैं। जो किया गया था उसकी भविष्य में पुनरावृत्ति न करने की प्रतिज्ञा भी इसी विधान के अन्तर्गत आती है। यह सब तो हुआ दण्ड प्रकरण। यह प्रायश्चित का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष है श्रेष्ठता का साधना का समन्वय जिससे हटाये हुए कुसंस्कारों का रिक्त हुआ स्थान श्रेष्ठ संस्कार ग्रहण न कर सकें। इस पुण्य विधान को रचनात्मक प्रयोजन में लगाया जा सके। मात्र पाप बन्द कर देना या उनका दण्ड भुगत लेना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् जो प्रयत्न दुष्कर्मों की हानिकारक प्रक्रिया के लिए चल रहा था वही उलट कर श्रेष्ठता सम्पादन में लग पड़े तब समझना चाहिए कि प्रायश्चित प्रक्रिया पूर्ण हुई।

प्रायश्चित्त विधान में चान्द्रायण तपश्चर्या को प्रमुखता दी गई है। उसके दो पक्ष हैं—एक परिशोधन दूसरा अभिवर्धन। इस साधना से संचित पाप प्रवृत्तियों और कुसंस्कारों का जहां शमन होता है वहां आत्मोत्कर्ष के लिए प्रबल प्रयत्नों का भी साथ ही नियोजन होता है। अवांछनीयता का ध्वंस और उपयोगिता का सृजन यह दोनों ही कृत्य चान्द्रायण साधना से होते हैं इसलिए उसे दण्ड विधान नहीं, वरन् तप साधन की संज्ञा दी गई है। पाप निवारण भी उसका महत्वपूर्ण अंग है।

चान्द्रायण का सामान्य व्रत विधान—


शास्त्रों में प्रायश्चित प्रकरण में कई प्रकार के विधानों का वर्णन है। कृच्छ, अतिकृच्छ, तप्तकृच्छ, सौम्य कृच्छ, पाद कृच्छ, महा कृच्छ, कृच्छाति कृच्छ, पर्ण कृच्छ, सान्तापन, कृच्छ सान्तापन, महा सान्तापन, प्राजापत्य, पराक, ब्रह्मकूर्य आदि विधानों का उल्लेख है। इनमें चान्द्रायण व्रतों को तप में सर्व प्रमुख माना गया है। उनकी क्रिया-प्रक्रिया सर्वविदित है। मोटे नियम इस प्रकार हैं—

एकैकं ह्रासयेत्पिंड कृष्णे, शुक्ले च वर्द्धयेत् ।
          इन्दुक्षयेन पुंजीत एवचान्द्रायणो विधि ।। —वशिष्ठ

पूर्णमासी को पूर्ण भोजन करके एक-एक ग्रास घटाता जाय। चन्द्रमा ने दीखने पर अमावस्या और प्रतिपदा को निराहार रहे। पीछे एक-एक ग्रास बढ़ाकर शुक्ल पक्ष के 14 दिनों में पूर्ण आहार तक पहुंच जाय।

ग्रास से तात्पर्य मुर्गी के अण्डे जितना तथा मुंह में जितना आहार एकबार में आ सके उतना है—

          कुक्कुटाण्ड प्रमाणं स्याद् यावद् वास्य मुखे विशेत् ।
            एतग्रासं विजानीयुः शुद्धयर्थे काय शोधनम् ।। —अत्रि

‘‘मुर्गी के अण्डे के बराबर या जितना सुविधापूर्वक मुख में आ सकता हो उतना बड़ा ग्रास चान्द्रायण में ग्रहण करना चाहिए।’’ ग्रास परिमाण के झंझट में पहुंचने की अपेक्षा यह उत्तम है कि पूर्णिमा वाले आहार का चौदहवां अंश कृष्ण पक्ष में घटाता जाय और शुक्ल पक्ष में उसी अनुपात से हर दिनों बढ़ाते चला जाय।

                                                                      नित्य स्नायी मिताहारी गुरुदेव द्विजार्चकः ।
                                                                      पवित्राणि जपेच्चैव गुहुयाच्चैव शक्तितः ।।
                                                                      ब्रीहिणाष्टिक मुद्गाश्च गोधूम सतीला यवाः ।
                                                                      चरुभैक्ष्यं सक्तुव्रणाः शांवांघृत दधि पयः ।।     —अग्नि पुराण

नित्य स्नान करें, भूख से कम खायें, गुरु, देव, ब्रह्म परायणों का अभिवादन करें, पवित्र रहें, जप करें, हवन करें।

जौ, चावल, मूंग, गेहूं, तिल, हविष्यान्न, सत्तू, शाक, दूध, दही, घृत पर निर्वाह करें। चान्द्रायण के भेद हैं (1) पिपीलिका (2) यव मध्य (3) यति (4) शिशु। इन चारों के अन्य नियम समान हैं, पर आहार सम्बन्धी कठोरता, न्यूनाधिक है। यदि तपश्चर्या अधिक कठिन है और शिशु व्रत साधन में शरीर और मन की स्थिति को देखते हुए सरलता रखी गई है।

पाप पर से पर्दा हटाया जाय—

पापों के प्रकटीकरण की प्रक्रिया का एक स्वरूप तो मुण्डन कराने—बाल कटवाने के रूप में प्रतीक चिन्ह की तरह है। दूसरा चरण है प्रकटीकरण। यह मात्र किसी सत्पात्र के सम्मुख ही हो सकता है। सार्वजनिक घोषणा कर सकने का किसी में साहस हो तो और भी उत्तम। पर इस प्रकटीकरण में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि व्यभिचार जैसी प्रक्रियाओं में साथी का नाम, पता आदि प्रकट न किया जाय।

पापों पर पड़े हुए पर्दे को उइाने और प्रकटीकरण की विधा पूरी करने के लिए शास्त्र निर्देश इस प्रकार है—

                                                                     यथा यथा नरोऽधर्मं स्वयं कृत्वाऽनुभाषते ।
                                                                     तथा तथा त्वचेवाहि स्तेनाधर्मेण मुच्यते ।। —मनुस्मृति

जैसे-जैसे मनुष्य अपना अधर्म लोगों में ज्यों का त्यों प्रकट करता है, वैसे वैसे ही वह अधर्म से उसी प्रकार मुक्त होता है जैसे केंचली से सांप।

                                                                     समत्वे सति राजेन्द्र तयोः सुकृत पापेया।
                                                                     गूहितस्य भवेद् वृद्धि कीर्तितस्य भवत् क्षयः ।। —महाभारत

राजेन्द्र जब पुण्य-पाप दोनों समान होते हैं, तब जिसको गुप्त रखा जाता है, उसकी वृद्धि होती है और जिसका वर्णन कर दिया जाता है उसका क्षय हो जाता है।

                                                                     तस्मात् प्रकाशयेत् पापं स्वधर्म सततं चरेत् ।
                                                                     क्लीवा दुःखी च कुष्ठी च सप्त जन्मानि वै नरः ।। —पाराशर स्मृति

पाप को छिपाने से मनुष्य, सात जन्मों तक कोढ़ी दुःखी, नपुंसक होता है। इसलिए पाप को प्रकट कर देना ही उत्तम है।

आचक्षाणेनतत्पापमेतत्कर्म्मास्मिशाधिमाम् ।

वह अपने किये हुए पाप को भी मुंह से कहता हुआ दौड़े कि मैं ऐसे कर्म के करने वाला हूं मुझे दण्डाज्ञा प्रदान कीजिए।

कृत्वा पापं न गूहेत् गुह्यमानं विवर्द्धते ।
         स्वल्पं वाथ प्रभूतं वा धर्मविद्ध्यो निवेदयेत ।।
        ते हि पापे कृते वेद्या हन्तारश्चैव पाप्मनाम् ।
                                व्याधितस्य यथा वैद्या बुद्धिमन्तो रुजापहाः ।। —पाराशर स्मृति

पाप कर्म बन पड़ने पर उसे छिपाना नहीं चाहिए। छिपाने से वह बहुत बढ़ता है। पाप छोटा हो या बड़ा उसे किसी धर्मज्ञ से प्रकट अवश्य कर देना चाहिए। इस प्रकार उसे प्रकट कर देने से पाप उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे चिकित्सा करा लेने पर रोग नष्ट हो जाते हैं।

रहस्यं प्रकश्यं च । —प्रायश्चितेन्दु शेखर पापं नश्यति कीर्तनात् ।

—धर्म सिन्धु रहस्य के पर्दे को उठा देना चाहिए। पाप के प्रकटीकरण से वे धुल जाते हैं।

तस्मात् पापं न गुह्येत् गुहमानं विवर्धयेत् ।
                कृत्वातत् साधुरवमेयतेतत् शमयन्त्युत ।। —महा. अनु.

अतः अपने पाप को न छिपावे, छिपाया हुआ पाप बढ़ता है। यदि कभी पाप बन गया हो तो उसे साधु पुरुषों से कह देना चाहिए। वे उसकी शान्ति कर देते हैं।

तद् यदिह परुषस्य पाप कृतम्भवति तदा निष्करोति यदि है न दपि रहसीव कूर्वन्मन्यतेथ हैन दाविरेव करोति । तस्याद्वाव पापं न कुर्यात् । —जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण                

जब मनुष्य में दिव्य वाणी प्रकट होती है तब वह अपने पाप प्रकट करती है। मनुष्य ने जो पाप नितान्त गोपनीय रखे थे उन्हें भी वह प्रकट कर देती है। दुष्कर्मों के कितने ही बुरे प्रभाव अन्तः क्षेत्र पर पड़ते हैं। वे कुकृत्य चेतना की गहराई में पहुंच कर कुसंस्कारों के रूप में जड़ जमा कर बैठ जाते हैं और धुन की तरह उस क्षेत्र की गरिमा को नष्ट करते चले जाते हैं। उनके दुष्परिणाम समय-समय पर आधि-व्याधि और आकस्मिक दुर्घटनाओं के रूप में सामने आते रहते हैं।

मनोविज्ञान शास्त्र के अनुसार अन्तः भूमि को क्षत-विक्षत करने वाला सबसे बड़ा कारण है दुराव। दुष्कर्मों के करते समय भी सामने वाले से छल करना पड़ता है। वस्तुस्थिति जान लेने पर तो आक्रमण सफल ही न हो सकेगा। इसके उपरान्त राज दण्ड तथा समाज दण्ड से बचने के लिए उन कुकृत्यों को छिपा कर रखा जाता है। किसी पर प्रकट नहीं होने दिया जाता। यह दुराव हजम तो होता नहीं। पारा खा लेने पर वह पचता नहीं, वह फूट-फूटकर शरीर में से फोड़े और घाव बनकर निकलता रहता है। ठीक इसी प्रकार कुकृत्यों का दुराव भी अनेकों प्रकार के मानसिक और शारीरिक रोग उत्पन्न करता और आजीवन कष्ट देता रहता है। अन्तर्द्वन्द तब तक चलता ही रहता है जब तक उसका प्रकटीकरण और प्रायश्चित करके परिशोधन न कर दिया जाय।

परिशोधन प्रक्रिया में प्रकटीकरण भी एक उपचार है। जो कुकृत्य बन पड़े हैं उनका प्रकटीकरण आवश्यक है। पर वह होना उन्हीं के सामने चाहिए जो इतना उदार हो कि चिकित्सक की करुणा से अपराधों को धैर्यपूर्वक सुन कसे और घृणा धारण किये बिना उन्हें अपने भीतर पचा सके। प्रकट करने वाले की निन्दा न होने दें। उसे उसे प्रकटीकरण के कारण लोक निन्दा के द्वारा होने वाली क्षति न पहुंचने दें, वरन् उसे स्नेहपूर्वक सत्परामर्श देकर सुधरने में सहायता करें। ऐसे व्यक्ति जब तक न मिले तब तक प्रकटीकरण नहीं ही करना उचित है। ईसाई धर्म में मरने से पूर्व पाप स्वीकृति का वर्णन— कनफेक्शन आवश्यक धर्मकृत्य माना जाता है। समय रहते पादरी को बुलाया जाता है। एकान्त में मरणासन्न व्यक्ति जीवन भर के अपने सारे पापों को विस्तारपूर्वक बताता है और जी हलका करता है। पादरी को पिता कहते हैं। उसमें परम करुणा रहती है। वह धैर्य और शान्तिपूर्वक उसे सुनता है और ईश्वर से क्षमा की प्रार्थना करता है। न उसके मन में घृणा होती है और न औरों पर प्रकट करने की क्षुद्रता का परिचय देना ही उसकी गरिमा के उपयुक्त होता है।

चान्द्रायण में केश कटाने का संस्कार—

चान्द्रायण व्रत लेते समय शिर के केश कटाने का, मुण्डन कराने का विधान है। इतना न बन पड़े तो बाल बनाने का तो कृत्य किसी न किसी रूप में करना ही होता है। इसमें मस्तिष्क में भरे हुए पुराने विचारों को बदलने की प्रतीक प्रतिज्ञा है। यहां बालों को विचारों का प्रतीक माना गया है। इसलिए उन्हें बालकों के मुण्डन संस्कार की तरह ही चान्द्रायण व्रत में भी आवश्यक माना गया है। बालकों का मुण्डन कराने के पीछे उद्देश्य यह है कि पिछले कुसंस्कार जो मस्तिष्क के भीतर भरे हुए हैं उनका उन्मूलन आवश्यक है तभी मनुष्यता की गौरव गरिमा उपलब्ध हो सकती है। इस परिवर्तन का प्रतीक बालों का कटाना माना गया है। तीर्थ में जाकर भी मुण्डन कराने का तात्पर्य यह है कि वहां पहुंचने के उपरान्त कुसंस्कारों की जो अवधारणा मस्तिष्क में थी वह बदल दी। इसी प्रकार मृत्यु-शोक के सन्तापदायी विचारों से छुटकारा पाने के लिए श्राद्ध के समय मुण्डन कराया जाता है।

चान्द्रायण व्रत के समय मुण्डन का विधान है। वैसा जो न कर सके उन्हें प्रतीक रूप में शिर के बालों के हलके तो करा ही लेना चाहिए। इसके दो उद्देश्य हैं—एक पशु प्रवृत्तियों के परित्याग की दुर्बुद्धि को निरस्त करने की प्रतीक प्रतिज्ञा है। दूसरे पापों की स्वीकृति एवं घोषणा में। इसमें समाज में प्रतिष्ठा बनाये रहने और पाप छिपाये रहने का दुहरे पाप से निवृत्ति पाने का संकल्प है।

सर्वविदित है कि मुण्डन संस्कार में बालों को गोमूत्र, गोबर एवं पंचगव्य से धोया, सींचा जाता है। चान्द्रायण व्रत के समय भी जब बाल बनवाये जाते हैं तो मस्तिष्क का संस्कार पंचगव्य से ही किया जाता है। मुण्डन से पूर्व यह गोरस सिंचन किया जाय या पीछे यह सुविधा के ऊपर निर्भर है, पर किसी न किसी का रूप में उसे किया जाना आवश्यक है।

बाल कटाने के सम्बन्ध में चान्द्रायण व्रत कर्त्ता के लिए शास्त्र निर्देश इस प्रकार है—

शिरसं कृन्तनं पुद्धे मुण्डनं तद्वदेव हि ।
                         वेदेऽपि स्थिरमेतद्धि समानं समुदाहतम् ।। —योगिनी तन्त्र

शिर छेदन और शिर मुण्डन एक कार्य है, वेद में ये दोनों कार्य ही समान कहे गये हैं।

श्मश्रु केशान् वापयेत् भ्रुवोस्क्षि लोमशिखावर्जम नखाननिकन्त्य । —वशिष्ठ

‘व्रत के आरम्भ में दाढ़ी, मूंछ और सिर के बालों को कटा लें। भौंह आदि और शिखा न कटाई जाय।’



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