गायत्री की अनुष्ठान एवं पुरश्चरण साधनाएँ

चान्द्रायण व्रत और गौ सम्पर्क

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चान्द्रायण व्रत के साथ गौर सम्पर्क जुड़ा हुआ है। इस तपश्चर्या के अनेक कार्य ऐसे हैं जिनमें गौर को किसी न किसी प्रकार साथ लेकर चलना पड़ता है।

मुख में कोई अन्य वस्तु जाने देने से पहले चान्द्रायण व्रत कर्ता को ‘पंचगव्य’ ग्रहण करना होता है। इसके उपरान्त ही अन्य कोई वस्तु मुंह में जानी चाहिए। पंचगव्य गाय के दूध, दही, घृत, गोमूत्र, गोमय के सम्मिश्रण को कहते हैं। उसमें तुलसी पत्र और गंगाजल भी मिलाया जाता है।

                           तत्राप्यशक्ता चैकेन पंचगव्यं पिबेत्ततः । —आपस्तंव

पंचगव्येन शुध्यति । —आपस्तंव

                         शुध्यते पंच गव्येन पीत्वा तोयमकामतः । —सम्वर्त

                              मृत्तिका शोधनं स्नानं पंचगव्यं विशोधनम् । —अंगिरा

              गोमूत्रं, गोमयं, क्षीरं, दधि, घृतं कुशोदकम् ।
                          निदिष्ट पंचगव्यन्तु पवित्रं पापनाशनम् ।।—सम्वर्त

                     पतितं प्रेक्षितं वापि पंचकव्येन शुध्यति । —अत्रि

           श्रृणु पाण्डव तत्वेन, सर्व पापं प्राणशनम् ।
                     पापिनो येन शुद्ध्यन्ति तत्ते वक्ष्यामि सर्वशः ।।
            यथावत्कर्तु कामोयस्तस्य यं प्रथमंनु यः ।
                             शोधयेत्तु शरीरं स्वं पंचगत्ये पवित्रतः ।। —वृद्ध गौतम



यह चान्द्रायण व्रत समस्त पापों का शमन करने वाला है कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। उसे आरम्भ करते हुए शरीर को पंचगव्य से पवित्र बनाना चाहिए।

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