एक सर्वांगपूर्ण युगानुकूल चिकित्सा पद्धति

May 1991

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गायत्री का युग्म यज्ञ है। यज्ञ शब्द में उदार परमार्थ परायणता वातावरण में सत्प्रवृत्ति विस्तार का भावार्थ भरा हुआ है, साथ ही उसके कितने वैज्ञानिक पक्ष भी हैं। उसमें से एक है-पर्यावरण का परिशोध। आकाश में एक उत्तेजना उत्पन्न करके प्राण पर्जन्य की उत्पत्ति जिससे प्राणियों, वनस्पतियों तथा पदार्थों में जीवन तत्वों का प्रचुर अभिवर्षण होने लगे और इस आधार पर सभी सशक्त बनें। प्राणवान पदार्थों को अग्निहोत्र द्वारा वायुभूत बनाकर सर्वसाधारण के लिए श्वास द्वारा उसका लाभ पहुँचाना, शारीरिक, मानसिक रोगों का निवारण, जीवनी शक्ति का अभिवर्धन आदि अनेक प्रयोजन ऐसे हैं जिनके कारण यज्ञ को प्राणस्वरूप भगवत् सत्ता की प्रत्यक्ष प्रतिमा माना गया है। उसके सान्निध्य में बैठने पर अनायास ही उत्कृष्टता की भावनाओं का अभिवर्धन होता है। यज्ञ स्वयं में एक सर्वांगपूर्ण चिकित्सा विज्ञान है। वेदों एवं आयुर्वेद ग्रंथों में इसका सुविस्तृत वर्णन है।

अथर्ववेद में कहा गया है- ‘’हे यज्ञाग्नि। तू विभिन्न समिधाओं तथा औषधियों से परिपुष्ट होकर आरोग्य और दीर्घ जीवन प्रदान कर।” इसी में उल्लेख है कि-’’यदि रोगी मृत्यु के तक पहुँच गया तो भी यज्ञाग्नि उसे वापस लौटा लाती है और सौ वर्ष तक जीवित रहने के लिए फिर से जीवनीशक्ति भर देती बलिष्ठ बना देती है।”

अथर्ववेद के सूत्र 3/1/1 के अनुसार “मुँचामि त्वा हविष्य जीवनाय। कमज्ञात यक्ष्माद्रुत राजयक्ष्मात्” अर्थात् “यज्ञ के द्वारा अनेक रोगों से असाध्य मानी जाने वाले राज्यसभा से छुड़ाता हूँ और दीर्घ जीवन प्रदान करता हूँ “। उसके अगले सूत्र 7/76 में उल्लेख है कि यज्ञाग्नि से फेफड़ों में जमा हुआ, पसलियों को तोड़ने वाला छूत फैलाने वाला एवं मृत्यु तक ले जाने वाला तपेदिक रोग नष्ट हो जाता है।

चरक संहिता अ. 8 श्लोक 122 में भी इस तथ्य की पुष्टि कि गई है कि यज्ञ से जीवनशक्ति का संवर्धन होता और क्षय जैसे रोग दूर होते हैं। इस ग्रंथ में यज्ञ आयोजनों का निर्देश करते हुए कहा गया है कि- ‘यया प्रयुक्ताचेष्ट्या राजयक्ष्मा पुराजितः। ताँ वेद विष्टिमारोग्यार्थी प्रयोजयेत्।”

अर्थात् “प्राचीनकाल में जिन यज्ञ अनुष्ठानों से राजयक्ष्मा आदि रोग जीते जाते थे, अब भी उसी आयोजन को अपनाकर अनेक रोगों से छुटकारा पाया जाय।” स्मरणीय है कि राजयक्ष्मा ट्युबरक्लोसिस (टीबी) या तपेदिक नामक वह रोग है जो अभी भी एक घातक व्याधि के रूप में विद्यमान है।

पुरातन यज्ञ चिकित्सा की प्रमाणिकता असंदिग्ध है वैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा अब यह सिद्ध हो गया है कि वासा तथा गूगल जैसी औषधियों के हवन से उत्पन्न ऊर्जा तपेदिक जैसी घातक बीमारियों के जीवाणुओं को नष्ट कर देती है। अपराजिता नामक औषधि के धूम्र ऊर्जा का उपयोग सभी प्रकार के कीटाणुओं-विषाणुओं को शमन करने में प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार के गुण नीम नागरमोथा और बच में भी हैं। इनका अधिकतर उपयोग रक्त शोधन एवं वृण आदि में किया जाता है। इसकी पुष्टि ‘भाव प्रकाश’ नामक प्रसिद्ध आयुर्वेद ग्रंथ में की गई है। परीक्षणोपरान्त निष्कर्ष निकाला गया है कि गूगल, लौंग, घी, शर्करा चन्दन चूरा आदि का नित्य हवन करने वाले साधकों के शरीर में अग्नि तत्व की प्रधानता होती है। फलस्वरूप रोग प्रतिरोधी क्षमता में अभिवृद्धि एवं जीवनीशक्ति का साथ-साथ होता है। इसी तरह जायफल, गूगल आदि का मिश्रण हव्य रूप में प्रयुक्त करने पर जो यज्ञीय ऊर्जा वातावरण में फैलती है, उससे प्रायः सभी प्रकार के रोग कारक जीवाणु-विषाणु नष्ट हो जाते हैं। अग्निहोत्र से जो प्रचंड ऊर्जा युक्त सुगंधित ऊष्मा उत्पन्न होती है, उससे आसपास का वातावरण गरम हो जाता है और उससे एक प्रकार का फाइगोसाइटोसिस चक्र विनिर्मित होता है। एम्यूनटी और फाइगोसाइटोसिस दोनों प्रक्रियायें यजनकर्ता को स्वास्थ्य संवर्धन का लाभ देती हैं।

शरीर शास्त्रियों के अनुसार एक सामान्य युवा व्यक्ति के फेफड़ों में 230 वर्ग इंच वायु रहती है जिसमें से केवल 30 वर्ग इंच तक ही वायु साँस छोड़ने पर बाहर निकलती है। शेष फेफड़ों में ही जमी रहती है। पर यदि जोर से गहरी श्वास ली जाय तो 130 वर्ग इंच तक अंदर दूषित वायु बाहर निकल सकती है।

इस प्रकार जितनी अधिक मात्रा में विषैली वायु बाहर निकलती है, श्वसन तंत्र में उतनी ही अधिक परिमाण में शुद्ध प्राणवायु भीतर भर जाती है। इस तरह अधिक मात्रा में प्रविष्ट हुई शुद्ध प्राणवायु उसी अनुपात से रक्त परिशोधन एवं शरीर का पोषण करती है। जीवनी शक्ति अभिवृद्धि होती और अग्नि प्रदीप्त होकर रस-रक्त में संचित विषाक्तता को निष्कासित करती है। देखा गया है कि जहाँ यज्ञ आयोजन हो रहा होता है, वहाँ के वातावरण में यदि मनुष्य स्वभाविक रूप से गहरी श्वास-प्रश्वास ले और अपने फेफड़ों को प्राणवायु से भरे, तो इसका शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा एवं स्थायी प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता।

इस संदर्भ में मूर्धन्य चिकित्सक डॉ. त्रिले ने गहन खोजें की हैं। उनके अनुसार अग्निहोत्र में अग्नि प्रज्वलन से वायु भार कम होता है और वह तीव्र गति से फैलता है। प्रकाश की अधिकता एवं तीव्र ताप के कारण सुगन्धित हव्य सामग्री-शाकल्य के परमाणु वायु को शुद्ध करते हैं और श्वास तथा रोम कूपों द्वारा शरीर में प्रवेश कर स्वास्थ्य लाभ प्रदान करते हैं। पाया गया है कि वनौषधियों और समिधाओं के जलने से जो उपयोगी वाष्पीभूत धूम्र एवं ताप ऊर्जा निकलती है, उससे सभी प्रकार के रोगोत्पादक जीवाणुओं का शमन होता है। साथ ही वातावरण में पर्जन्य की-प्राण ऊर्जा की सशक्त तरंगें प्रवाहित होने लगती हैं और काया प्रवेश कर नव जीवन प्रदान करती प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाती-सामर्थ्य भरती हैं। यज्ञीय ऊर्जा से शारीरिक-मानसिक व्यथायें तो दूर होती ही हैं, मस्तिष्कीय क्षमताओं, विचारणाओं, भावनाओं में उच्चस्तरीय परिवर्तन का लाभ भी हस्तगत होता है।

वस्तुतः यज्ञ एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक चिकित्सा विज्ञान है, जिसमें औषधि के रूप में हव्य होम जाते हैं। यह बिना नष्ट हुए रूपांतरित होकर उच्चारित गायत्री महामंत्र की सम्मिलित एवं प्रभावपूर्ण स्वर शक्ति से परिपूरित होकर वातावरण में आध्यात्मिक तरंगें फैलाते हैं, जिनसे मानव मन में संव्याप्त विकृतियों, विद्वेष, दुर्भाव, अनीति-अत्याचार, संकीर्ण स्वार्थपरता, कुटिलता आदि बुराइयों का शमन होता है तथा तनाव मिटता है। इस तथ्य का अन्वेषण प्राचीन काल में ऋषियों ने बहुत पहले कर लिया था और यज्ञ को जीवन का एक अभिन्न अंग मानकर उसे नित्यकर्म में सम्मिलित किया था।

अथर्ववेद के सूत्र “इदं में अग्ने पुरुषाँ मुमुरध्वयं।” में कहा गया है कि उन्मादि-सनकी व्यक्ति भी इस यज्ञाग्नि के प्रभाव से रोगमुक्त हो जाते हैं। इस तथ्य की पुष्टि यज्ञ चिकित्सा क्षेत्र में हुए अधुनातन अनुसंधानों से भी हुई है। इस संबंध में वैज्ञानिक अनुसंधानों का सिलसिला अब विश्व भर में चल पड़ा है। कैलीफोर्निया की अग्निहोत्र यूनिवर्सिटी एवं सोलिसबर्ग (स्विट्जरलैंड) की यूरोपियन रिसर्च यूनिवर्सिटी ने इस संबंध में गहरे अन्वेषण किये हैं और इसके परिणामों से विज्ञान क्षेत्र की प्रतिभाओं को अवगत कराया है। अमेरिका के मेरीलैण्ड बाल्टीमोर में पिछले एक दशक से यह प्रयोग चल रहा है। वर्जीनिया में एक अग्निहोत्र मन्दिर की ही स्थापना की की गई है जिसमें विशेष स्तर की अग्नियों पर कुछ विशेष प्रकार के पदार्थ एवं वनस्पतियाँ हवन की जाती हैं, साथ ही खाद्य पदार्थ पकाये और रोगियों को खिलाये जाते हैं। यज्ञाग्नि से बची हुई भस्म का भी औषधियों की तरह प्रयोग किया जाता है। इसी तरह के प्रयोग-परीक्षण चिली, पोलैण्ड तथा पश्चिम जर्मनी में भी चल रहे हैं।

इन प्रयोगों में न केवल अनेक वनौषधियाँ प्रयुक्त होती हैं, वरन् अनेक स्तर की समिधाओं का भी एक दूसरे से भिन्न प्रकार का प्रतिफल पाया गया है। अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि जिन क्षेत्रों में इस प्रकार के यज्ञ आयोजन हुए हैं वहाँ अपराधों की संख्या कम हुई है। नशेबाजी घटना, हड़तालें कम होना, सड़क दुर्घटनाओं में कमी होना, मानसिक तनाव एवं पारस्परिक मनोमालिन्य में घटोत्तरी दीख पड़ना आदि यज्ञीय वातावरण की प्रत्यक्ष उपलब्धियाँ देखी गई हैं। जिन परिवारों में अग्निहोत्र का प्रचलन हुआ है, उनमें बीमारी के प्रकोप एवं औषधि व्यय में कमी हुई है। कैलीफोर्निया में सीनेटर राबर्ट वोडार्ड एवं अमेरिकी मनोवैज्ञानिक बेरी राथनेर ने इस दिशा में बहुत काम किया है।

ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान, शान्तिकुँज हरिद्वार की अग्निहोत्र प्रयोगशाला विश्व में अपने ढंग की अनोखी ही है। उसमें बहुमूल्य वैज्ञानिक यंत्रों द्वारा इस प्रक्रिया का समग्र विश्लेषण किया जा रहा है। एक विशाल वनौषधि उद्यान भी यहाँ लगाया गया है। इन प्रयोगों से जो प्रतिफल सामने आये हैं, वे आशाजनक एवं उत्साह वर्धक हैं। इन प्रयोग निष्कर्षों को अगले दिनों पाठक इन्हीं पृष्ठो पर पढ़ते रह सकेंगे। इनकी सफलता देव संस्कृति के माध्यम से मनुष्य के भाग्य और भविष्य का उज्ज्वल निर्माण कर सकेगी ऐसा आशा है।


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