भावना के अनुरूप (Kahani)

May 1991

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एक वेश्या और एक पतिव्रता का घर आमने सामने था। खिड़की में होकर दोनों एक दूसरे के कृत्यों को देखती रहती। पतिव्रता का मन क्रोध और घृणा से भरा रहता। वह उसे नीच समझती और मन ही मन अपशब्द कहती रहती।

दूसरी ओर पतिव्रता के कृत्यों को वेश्या देखती तो उसका मन श्रद्धा से भर जाता। उसकी भरपूर सराहना करती और ईश्वर से प्रार्थना करती कि हे प्रभू इस जन्म में तो मेरा पतन हो ही गया पर अगले जन्म में मुझे पतिव्रता होने का सौभाग्य प्रदान कर दे।

इसी प्रकार दोनों की जिन्दगी बीत गई। मरने के बाद वे परलोक गई। उन्हें कहाँ स्थान दिया जाय इसका निर्णय धर्मराज को करना था। उनने फैसला सुनाया कि वेश्या को ऊँचे स्वर्ग में स्थान दिया जाय और पतिव्रता को साधारण जगह में ठहरा दिया जाय।

देवदूतों ने शंका की और फैसले में गलती तो नहीं हुई है यह फिर से पूछा। धर्मराज ने कहा शारीरिक कृत्यों का जितना महत्व है, उससे कहीं अधिक उसके कर्ता की मनःस्थिति का। वेश्या के मन में श्रद्धा और पतिव्रता के मनमें घृणा भरी रही। इसीलिए उन्हें भावना के अनुरूप स्थान दिया गया।


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