गायत्री उपासना के साथ सविता की आराधना

May 1991

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गायत्री का अधिष्ठाता देवता सूर्य है। अध्यात्म की भाषा में इसे सविता कहते हैं। सूर्य में आभा-चमक, रोशनी और ऊर्जा-गर्मी और शक्ति, यह दोनों ही तत्व विद्यमान हैं। प्रकाश पुँज होने के कारण अपनी किरणों से जहाँ वह जगत के अन्धकार को दूर करता है, वहीं चेतनापुँज सविता रूप में उपासक के अज्ञानान्धकार को छिन्न-भिन्न करके अतः करण को ज्ञान से प्रकाशित करता है। प्रसुप्त अंतः शक्तियों, दिव्य क्षमताओं को उभार कर उसे महामानव, देव मानव एवं अवतार स्तर तक पहुँचा देता है। आर्षग्रन्थों में सूर्य स्नान, सूर्य उपस्थान, सूर्य नमस्कार, सूर्य ध्यान, सूर्याग्निहोत्र, सूर्य उपवास, सूर्य जप, सविता आराधना आदि उपचार सूर्योपासना के कहे गये हैं।

सविता द्वारा ज्ञान प्रदान करने तथा जड़ता को चैतन्यता में बदल देने की घटनाओं, कथानकों से वेदों की ऋचायें भरी पड़ी हैं। मनु, याज्ञवलक्य, व्यास, शाम्ब, भारद्वाज, पराशर, गौतम, वशिष्ठ, विश्वामित्र, मार्कण्डेय आदि महर्षियों ने इसी का आश्रय लिया और आत्मोन्नति के चरम उत्कर्ष पर पहुँच कर त्रेलक्य विख्यात हुए। 7/36/13-14 में स्पष्ट उल्लेख है कि हनुमान को सूर्योपासना से ही ज्ञान-विज्ञान की समस्त विभूतियाँ, परा-अपरा विद्यायें उपलब्ध हुई थीं। महाराजा पृथु ने सूर्य से अमोध रश्मिवाण प्राप्त किया था। कौषीतकि ऋषि ने सविता आराधना से पुत्र कामना की अभिलाषा को पूर्ण किया था। भगवान राम स्वयं सूर्य उपासक थे। वाल्मीकि रामायण के ही लंका काल में कथा आती है कि परिस्थितियों की विषमता देख कर जब राम चिन्तित बैठे थे, तो आगस्तय मुनि आ पहुँचे और उनने कहा-आप सूर्य की उपासना करें। उनकी शक्ति उपलब्ध करने पर आप महाबली असुर समुदाय पर भी विजय प्राप्त कर सकेंगे। वैसा ही उनने किया भी और शत्रुओं को सहज ही परास्त किया।

सविता देवता अनन्त ज्ञान एवं शक्ति के भाण्डागार हैं। वैदिक ज्ञान-परम्परा मनुष्य समुदाय को उन्हीं के द्वारा प्राप्त हुई है। इस तथ्य का रहस्योद्घाटन करते हुए गीता के चौथे अध्याय के प्रथम श्लोक में कृष्णा भगवान ने कहा है कि-सूर्य ज्ञान के भण्डार हैं। उनके द्वारा यह ज्ञान वैवस्वत मनु और मनु के द्वारा राजा इक्ष्वाकु को मिला। महर्षि याज्ञवलक्य इसके प्रत्यक्ष प्रमाण है कि सविता देवता अनन्त ज्ञान के समुच्चय हैं। शुक्ल यजुर्वेदीय माध्यन्दिनी संहिता उन्हें सूर्य से ही मिली थी। ‘आदित्य हृदय’ के अनुसार श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सूर्योपासना की अनूठी विधा प्रदान की थी। शास्त्रों में अनेकों प्रमाण उपलब्ध हैं जिन में कहा गया है कि ऋषि-मनीषी ही नहीं, देवता भी अनादि काल से सविता की आराधना करते आये हैं। यजुर्वेदीय सूत संहिता में इस तथ्य का उद्घाटन करते हुए भगवान शंकर कहते हैं कि “मैं स्वयं श्रद्धापूर्वक सविता की, सावित्री मंत्र द्वारा, जिसे गायत्री कहते हैं, उपासना करता हूँ।”

योगाभ्यास परक उच्चस्तरीय साधना एवं तपश्चर्याओं में सविता शक्ति का ही आश्रय लिया जाता है। कुण्डलिनी जागरण में सविता शक्ति का ही अवगाहन अवधारण किया जाता है। दिव्य दृष्टि प्रदान करने एवं दिव्य क्षमताओं के उन्नयन में, रवि में रवि-रश्मियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पराशर कल्प सूत्र में इस संदर्भ में विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए कहा गया है कि मूलाधार में सविता देवता का ध्यान करने पर दिव्यदृष्टि की प्राप्ति होती है। इसी तरह अक्ष्युपनिषद एवं कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद् में चाक्षुषी विद्या का वर्णन करते हुए कहा गया है कि इसी विद्या का आश्रय लेकर मनुष्य न केवल सभी प्रकार के नेत्र रोगों से मुक्ति पा सकता है, वरन् दिव्य दृष्टि भी जागृत कर सकता है। इस विद्या के ऋषि अहिबुध्न्य हैं, छन्द गायत्री एवं देवता सविता है। छान्दोग्य एवं बृहदारण्यक उपनिषदों में भी इसी प्रकार का उल्लेख है जिसके अनुसार समस्त प्राणियों की दृष्टि शक्ति के अधिष्ठाता सूर्य हैं। उनकी आराधना से दिव्य दृष्टि की उपलब्धि होती है।

पुरातन काल के ऋषियों से लेकर अर्वाचीन योगी-तपस्वियों की साधना-उपासना में सविता की प्रमुखता रही है। उससे प्राप्त ज्ञान के आधार पर उनने अनेकानेक भौतिक एवं आध्यात्मिक अनुसंधान किये। प्रकृति पर विजय पाई। एडिंगटन, जीन्स फाउलर, एडवर्ड आर्थर, मिलेन, रसेल आदि प्रख्यात वैज्ञानिक मनीषियों ने सूर्य-शक्ति के सम्बन्ध में गहन खोजें की हैं और वैदिक ऋषियों से प्रतिपादित सविता की सत्ता, महत्ता, गति आदि के सिद्धान्तों की पुष्टि की है।

मार्कण्डेय पुराण में सूर्य को ब्रह्म का मूर्त रूप बताते हुए कहा गया है कि ॐ अर्थात् प्रणव सूर्य का सूक्ष्म रूप है। उसी से भूः भवः, स्वः नामक तीन व्याहृतियाँ उद्भूत हुई हैं। तत्पश्चात् महः जनः तपः सत्यम् आदि सप्तलोकों का आविर्भाव हुआ। गायत्री महामंत्र इसी का विस्तृत रूप है जिसमें ज्ञान विज्ञान की समस्त शक्तियाँ सन्निहित हैं।

यही कारण है कि प्रचलित विविध उपासना पतियों में सूर्य मंडल में ईश्वर की इष्ट की भावना करना सबसे महत्वपूर्ण एवं सर्वाधिक फलदायी बतायी गई है। आत्म ज्योति को प्रखर-प्रचण्ड बनाने एवं ओजस्वी-तेजस्वी बनाने के लिए सविता की ध्यान साधना को अध्यात्मवेत्ताओं ने शीघ्र परिणाम प्रस्तुत करने वाला पाया है। बृहद्योगी याज्ञवलक्य ने सविता की ज्योति साधना को सर्वश्रेष्ठ माना है और कहा है कि गायत्री मंत्र का जप करते हुए सूर्य के दिव्य तेज को अपने में धारण करना चाहिए। ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ में वस्तुतः सविता ही ध्येय है। सूर्योपनिषद् चाक्षुषोपनिषद, अक्ष्युपनिषद् आदि आर्ष ग्रन्थों में इसी तेजपुँज की उपासना करने को कहा गया है। बृहत्पराशर स्मृति में सूर्य मंडल में स्थित भगवान विष्णु का ध्यान करने का विधान है। यथा- “ध्येयः सदा सवितृमण्डल मध्यवर्ती नारायण”। यजुर्वेद वा. सं. 40/17 का मंत्र भी आदित्य मण्डल मध्यस्थ परमात्मा की ध्यान-धारणा करने की और संकेत करता है। शिव उपासक इन्हें ही ज्योतिर्लिंग के रूप में ध्यान करते हैं। गायत्री एवं सावित्री उपासक तीनों कालों में दिव्य तेजोमय सूर्य की उपासना करते और सद्बुद्धि प्राप्ति के लिए अभ्यर्थना करते हैं। महाभारत वन पर्व 3/36-38 में इसकी महिता महता का वर्णन करते हुए ऋषि ने उन्हें ही साँख्य योगियों के प्राप्तव्य स्थल, कर्मयोगियों के आश्रय-दाता एवं मुमुक्षुओं के मुक्ति प्रदाता बताया है। समस्त प्राणियों के उत्पादक, पालक, पोषणकर्ता वही हैं। सकाम या निष्काम भाव से साकार या निराकार प्रकाश पुँज के रूप में जो इन्हें जैसा मानते और उपासना करते हैं, तदनुरूप उसकी पूर्ति सविता देवता अवश्य करते हैं। श्रद्धा-विश्वास की प्रगाढ़ता ही इस फलितार्थ में महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न करती है।

भोजन पकाने में जिस प्रकार अग्नि अनिवार्य है, उसी प्रकार आत्मा को देवात्मा के रूप में विकसित करने के लिए दिव्य ऊर्जा की आवश्यकता है। देव शक्ति कोई भी क्यों न हो, किसी भी नाम, रूप या गुण, महत्व वाले देवता की आराधना भले ही की जाय, पर उसके साथ सूर्य तत्व का समावेश आवश्यक है। वेदों में देव शक्तियों का निरूपण सूर्यरश्मियों के रूप में किया गया है। अतः जिस प्रकार बिना अग्नि के भोजन नहीं पक सकता, ठीक इसी प्रकार बिना सूर्य समन्वय के किसी भी स्तर का देवाराधना सम्पन्न नहीं हो सकता।

गायत्री मंत्र अन्य वेद मंत्रों की भाँति एक शब्द समुच्चय ही है, पर उसमें जो महती शक्ति संवेदना का बाहुल्य पाया जाता है, वह सविता शक्ति के समन्वय से ही होता है। गायत्री महामंत्र का जप और प्रातः कालीन स्वर्णिम सूर्य-सविता का ध्यान इन दोनों प्रयोगों का समन्वय होने पर ही उन लाभों का अवतरण होता है, जिनका वर्णन इस महामंत्र के महात्म्य में किया गया है। गायत्री की समग्रता तभी आती है जब उसे सूर्य मण्डल मध्यस्था की स्थिति में अपना जाय। केवल मंत्र जाप भी अधूरा है और केवल ध्यान से भी अभिष्ट की पूर्ति नहीं होती। अग्नि के प्रज्वलन के लिए सूखे ईंधन की भी आवश्यकता पड़ती है, अन्यथा एकाकी रहने पर वे दोनों ही निरर्थक हो जाते हैं। ईंधन न हो या गीला हो तो अग्नि प्रज्वलित कैसे हो? अग्नि की चिंगारी तो हो, पर ईंधन न हो तो भी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती। मंत्र जप और सविता के प्रकाश पुँज का भाव प्रवण ध्यान मिल कर ही गायत्री माहात्म्य के समग्र बनाते और साधक को निहाल करते हैं।


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