मानव जाति का भविष्य दाँव पर लगा है।

May 1991

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ऋग्वेद 1-115-1 में सूर्य को विश्व की आत्मा बताते हुए कहा गया है-”सूर्य आत्मा जगतस्त- स्थुषश्च “। जिसका तात्पर्य है कि इस धरातल पर जो चेतना एवं हलचल है, उसका उद्गम स्त्रोत सूर्य है। उससे हमें मात्र ताप और प्रकाश ऊर्जा ही नहीं मिलते, वरन् वह सब कुछ उपलब्ध होता है जो चेतना से सम्बन्धित है। प्राणियों के जीवन का आधार सूर्य है।

वस्तुतः इस दृश्य जगत में जो कुछ दृष्टिगोचर होता है उसे सूर्य का ही चमत्कार कहना चाहिए। यह उभय पक्षीय शक्ति धाराओं का उद्गम स्त्रोत है। उसमें जीवनी शक्ति का अजस्र भण्डार है। वैज्ञानिक अनुसंधानों से अब यह सिद्ध हो चुका है कि प्राणियों और वनस्पतियों का अस्तित्व सूर्य के रासायनिक सम्प्रेषण से ही संभव हुआ है। जिस ऊर्जा स्त्रोत से पृथ्वीवासी प्राणशक्ति प्राप्त करते हैं, उसके गति क्रम में यदि थोड़ा सा भी अन्तर पड़ जाय तो प्राणियों का जीवन संकट ग्रस्त हो सकता है।

इन दिनों अन्तरिक्ष में कुछ ऐसे ही घटनाक्रम उभर रहे है जो दूरवर्ती होने के कारण संभवतः अभी समझ में न आए, किन्तु उनकी परोक्ष प्रतिक्रिया ऐसी है जिससे जनजीवन के बुरी तरह प्रभावित होने की आशंका है। इनमें से प्रमुख हैं- सौर कलंकों की इन्हीं दिनों हो रही अभिवृद्धि। विज्ञानवेत्ता इन्हें एक विशिष्ट विक्षोभ मानते हैं और कहते हैं कि उस स्थिति में सूर्य के अन्तराल में भयंकर आँधी-तूफान उठते हैं और प्राणियों के काया-कलेवर के भीतर वह असाधारण रूप ले लेता है। उसका प्रभाव दूर-दूर तक सौर मण्डल के साथ जुड़े हुए समस्त ग्रह-उपग्रहों पर पड़ता है। चूँकि पृथ्वी सूर्य पर अस्तित्व के लिए निर्भर है, अतः लाभ की तरह हानि भी उसे ही सब से अधिक उठानी पड़ती है।

सर्वविदित है कि पृथ्वी की जलवायु का नियंत्रण सूर्य द्वारा होता है। इसलिए इन सौर−कलंकों, विस्फोटों का भी पृथ्वी के जीवन पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। सूर्यकलंको-”सन स्पॉट्स” का यह गति चक्र प्रायः 11 वर्ष एक माह एवं 22 वर्ष दो महीने में लौट-लौट कर वापस आता रहता है। फलस्वरूप कितनी ही उलट-पुलट धरती के वातावरण में भी होती रहती है। इस प्रकार के धब्बों-विस्फोटों की संख्या जब कभी भी बढ़ जाती है तो उस स्थिति में प्राकृतिक विपदाएँ तो कहर ढाती ही हैं, मनुष्य की प्रकृति एवं व्यवहार को भी असाधारण रूप से प्रभावित करती हैं। इसके कारण मनीषियों, चिन्तकों, नेताओं तक की विचारधारायें प्रभावित होती देखी गई हैं।

इस संदर्भ में विज्ञानवेत्ताओं, खगोल एवं अंतरिक्ष विज्ञानियों ने गहन अनुसंधान किया है। “अर्थ एण्ड होराइजन” नामक अपनी कृति में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. अलेक्जेण्डर मारशेक ने कहा है कि पृथ्वी पर घटने वाली घटनाओं का सूर्य के अन्तर्विग्रह से प्रत्यक्ष सम्बन्ध भले ही न जोड़ा जा सके, किन्तु साँख्यिकी की दृष्टि से उनका पृथ्वी से सम्बन्ध निर्विवाद रूप से सिद्ध हो गया है। जब-जब यह सौर सक्रियता बढ़ती है, वर्षा तथा तूफानों की बाढ़ आती है। वनस्पतियों में अभिवृद्धि, ग्रीष्म की बढ़ोत्तरी के साथ ही कहीं-कहीं अकाल, सड़क एवं वायु दुर्घटनाएँ, युद्धोन्माद तथा रक्तपात बढ़ता है। इस अवधि में न केवल भयानक भूचुम्बकीय उत्पात होते हैं, वरन् प्रकृति भी असामान्य रूप से प्रकुपित हो जाती है।

विशेषज्ञों ने अपने अध्ययन निष्कर्षों में यह विस्मय-जनक रहस्योद्घाटन किया है कि सूर्यकलंक वर्षों का मानव जाति के विश्व इतिहास की घटनाओं से बहुत गहरा सम्बन्ध है। जिस वर्ष सूर्य धब्बों या सौर लपटों की संख्या अपनी चरम स्थिति में होती है, उस वर्ष पृथ्वी पर जीवन असाधारण रूप से असामान्य हो उठता है। विश्व इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाएँ इन्हीं वर्षों में घटित होती रही है। जब-जब सूर्यकलंको की संख्या बढ़ी है तब-तब संसार में बड़े-बड़े युद्ध विश्वयुद्ध और महान क्रान्तियाँ हुई हैं। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार पिछले 60 वर्षों में सन् 1936, 47-48, 57, 1968, 69 एवं सन् 1980 में सूर्य सर्वोच्च क्रियाशीलता में था। अब 11 वर्ष बाद पुनः सौर सक्रियता अपनी चरम अवस्था की ओर अग्रसर हो रही है।

इन सौर परिवर्तनों का प्रभाव न केवल व्यक्तिगत वरन् समष्टिगत मानव समाज की प्रवृत्तियों पर पड़ता है। अठारहवीं शताब्दी से लेकर अब तक के विश्व इतिहास की गवेषणाओं से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि महत्वपूर्ण ऐतिहासिक क्रान्तियाँ, रक्तपात, हिंसक उपद्रव, युद्ध आदि घटनाएँ इन्हीं सौर कलंक वर्षों में हुई हैं। सन् 1789 में फ्राँस की प्रसिद्ध ऐतिहासिक क्रान्ति हुई जिसमें न केवल फ्राँस ने, वरन् पूरे विश्व समुदाय ने परिवर्तन के नये दौर में प्रवेश किया। इसी प्रकार ट्रेफलगर और वाटरलू की भयंकर लड़ाइयाँ इन्हीं सूर्यकलंको से जुड़े वर्षों में हुई है। सन् 1857 में भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सौर सक्रियता-वर्ष में ही लड़ा गया था। अमेरिकी गृह युद्ध एवं रूस जापान के मध्य चली भयंकर लड़ाई इन्हीं वर्षों में हुई। सन् 1914-19 में प्रथम विश्व युद्ध के समय भी सूर्यकलंको की संख्या बढ़ी-चढ़ी थी। सन् 1947 में भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई, इसके पूर्व द्वितीय महायुद्ध लड़ा जा चुका था। चीन में भी इन्हीं सौर सक्रियता के दिनों क्रान्ति हुई।

सन् 1947 के बाद सूर्यकलंको के तीन परम वर्ष क्रमशः 1958, 1968, 69 एवं 1980 बीत चुके हैं। अंतरिक्ष विज्ञानियों के अनुसार तब सौर कलंकों की संख्या 160 प्रति वर्ष थी जो सन् 80-89 में 200 के करीब पहुंच गयी। बीच के वर्षों में इनकी संख्या प्रायः 60 से 80 के मध्य रही है। इसी अवधि में भारत चीन युद्ध, भारत पाक युद्ध अरब इजराइल युद्ध व यूरोप व अमेरिका में व्यापक युद्ध की स्थिति रही है।

पिछले दिनों इन सूर्य धब्बों की संख्या तेजी से उभरी है और ऐसा अनुमान है कि अगले सात-आठ वर्षों में यह और बढ़ेगी व इनकी चरम स्थिति 1998-99 में देखी जाएगी। ऐसे अवसरों पर युद्धोन्माद से लेकर कई प्रकार की दुर्घटनाओं में अभिवृद्धि की आशंका है, साथ ही कहीं कहीं आश्चर्यजनक उलट-पुलट परिवर्तनों की भी। अभी-अभी विगत दो वर्षों में हमने पूर्वी ब्लॉक में साम्यवाद के हटने व उदारवाद के आने, बर्लिन की दीवार टूटने व जर्मनी के एकीकरण के रूप में परिवर्तन देखे हैं। विगत तीन माह में एक भयावह खाड़ी युद्ध की विभीषिका से सारा विश्व समुदाय गुजर चुका है। बात यहाँ थमी नहीं है। राष्ट्रों के मध्य तनाव से लगता है पता नहीं कब पुनः विश्व स्तर पर युद्ध भड़क उठे। दूसरी ओर दिव्य दृष्टियों का मत है कि इस सन्धिकाल में महाकाल द्वारा व्यापक क्रान्तिकारी परिवर्तनों का सूत्रपात किया जा चुका है। अगले ही दिनों संसार की समस्त समस्याओं का समाधान अलग-अलग चरणों में न होकर एकमुश्त होने जा रहा है। सौर−कलंकों की अभिवृद्धि के साथ ही जहाँ एक ओर विध्वंस पर उतारू शक्तियाँ मारने-मरने को उद्यत हैं, वही मानवी पुरुषार्थ एवं आध्यात्मिक शक्तियाँ समाधान के लिए कमर कसकर तैयार हो रही हैं।

सौर स्फोटों के अधिक विघातक होने और उस प्रभाव से विश्व में हो रही उथल-पुथल एवं महायुद्ध की बन रही भूमिका की आशंका से अपना बचाव कैसे हो सकता है, यह प्रश्न ही मुख्य और महत्वपूर्ण है। इस विषम बेला में यही सबसे बुद्धिमानी है कि आतंकित होने की मनः स्थिति उत्पन्न न होने दी जाय, साथ ही पुरुषार्थ संजोकर असंभव को संभव बनाया जाय।

हमारे लिए यही उचित है कि भौतिक और आत्मिक स्तर पर ऐसा प्रचंड पुरुषार्थ सँजोयें- प्रबल पराक्रम उभारें, जिनसे रूठी प्रकृति को मना लेने और असन्तुलित हो रही मानवी मनः स्थिति को शान्त करने- सृजनात्मक दिशा प्रदान करने का अवसर मिल सके।

स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि देव संस्कृति के पक्षधर इस विषम बेला में नियति की चुनौती को लेकर महाकाल के अग्रदूत के रूप में सामने आया है। प्रकृति और नियति की विभीषिकाओं से जूझने तथा इक्कीसवीं सदी की उज्ज्वल भविष्य की सुखद संरचना के लिए जुटने के दुहरे उत्तरदायित्व उन्हें सौंपे गये हैं। इसे लंका दहन और राम राज्य स्थापना के लिए अंगद- हनुमान आदि द्वारा निभाई गई भूमिका माना जा सकता है।

इस भूमिका का स्वरूप है- सूत्र संचालक द्वारा निर्धारित प्रज्ञा महापुरश्चरण की अनवरत चलने वाली साधना में भागीदारी। इसमें नित्य नियमित रूप से गायत्री महामंत्र का न्यूनतम पन्द्रह मिनट का जप और साथ में प्रातः कालीन उगते स्वर्णिम सविता-सूर्य का ध्यान करने का विधान है। इसे अनिवार्य रूप से हर परिजन को अपनाने के लिए कहा गया है। इस ध्यान−धारणा के माध्यम से सविता की शक्ति को अपने में आकर्षित एवं अवधारित किया जाता है। साथ ही अनुदान में अपनी प्राण चेतना का योगदान मिला कर अनन्त अन्तरिक्ष में नियति को अनुकूल बनाने के उद्देश्य से बिखेर दिया जाता है। चूँकि गायत्री मंत्र सूर्य का मंत्र है। अतः सविता देवता से न केवल ब्रह्मतेजस् प्राप्त करने का रहस्यमय विज्ञान उसकी साधना पद्धति में सन्निहित है, वरन् इस आधार पर उसको अपने अनुकूल भी बनाया जा सकता है। प्राण चेतना के माध्यम से सौर सक्रियता को अपने अनुकूल बनाया जा सकता तो निश्चित ही आसन्न विभीषिकाओं को निरस्त किया जा सकता है। विश्व-शान्ति की- नियति अनुकूलन की यह सामूहिक साधना प्रचंडता तभी धारण करेगी जब सभी धर्म, पंथ, जाति के अधिकाधिक व्यक्ति एक ही समय, एक ही भावना से, एकनिष्ठ होकर समष्टिगत चेतना को जगाने की दृष्टि से उसे सम्पन्न करेंगे। अब की बार मानवता का भविष्य ही दाँव पर लगा है और महाविनाश की आशंका बढ़ी है। अतः हमारे सुरक्षा उपाय- प्रयास भी बढ़े चढ़े हुए होने चाहिए।


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