पूर्वाग्रह रहित (Kahani)

May 1991

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शेखावाटी राजस्थान के संत युवावस्था में ही संन्यासी हो गये थे। तीर्थाटन, भजन, सत्संग आदि में लम्बे समय तक भ्रमण करते रहे। पर इन सब में जब उन्हें सार नहीं दीखा तो अपना कार्यक्रम बदला। सेवा कार्य के लिए मन मुड़ा। अपनी जन्म भूमि वाले क्षेत्र में लौट आये और वहाँ फैली हुई निरक्षरता को दूर करने का संकल्प लिया। उस विस्तृत क्षेत्र के हर गाँव में पाठशाला स्थापित करने की योजना थी।

इसके लिए उन्होंने बालकों और प्रौढ़ों को संपर्क साधकर कठिनाई से सहमत किया। स्थानीय शिक्षितों में से अध्यापक निकाले। विद्यालय खर्च के लिए एक मुट्ठी अनाज हर घर से जमा करने वाले ज्ञानघट रखवाये। उनके सहारे उन छोटी पाठशालाओं का खर्चा चलने लगा।

स्वामीजी के कार्य को सफलता मिलती चली गई। विद्यालयों की संख्या भी बढ़ी और उनकी स्तरीय प्रगति भी। समूचा इलाका विद्यालयों से भरापूरा हो गया। आवश्यकतानुसार मैट्रिक से लेकर कॉलेजों तक का एक समूह बनकर विनिर्मित हो गया।

स्वामी केशवानन्द की ख्याति चंदन सुगन्ध की तरह सुदूर क्षेत्र तक पहुँची। उनके साथ सहयोगी मिलते चले गये। जनता के आग्रह पर उन्हें लोक सभा का सदस्य बनना पड़ा। वे लगातार दस वर्ष तक एम. पी. रहे। उनकी सेवा साधना और निष्ठ सदा−सर्वदा अविस्मरणीय रहेगी।

हमारा मस्तिष्क मात्र अपनी सात प्रतिशत क्षमता का उपयोग कर पाता है। शेष तो प्रसुप्त है। संभव है यह जागृत हो जाय तो कई अविशात रूप से घटित होने वाले, रहस्य रोमाँच के रूप में परिभाषित घटनाक्रमों को अगले दिनों इसी आधार पर उद्घाटित किया जा सकेगा। हमें अपना मानस इस संबंध में बड़ा खुला व पूर्वाग्रह रहित रखना चाहिए।


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