आस्तिकता एवं ईश्वर की प्रगतिशील व्याख्या

May 1991

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आज की परिस्थितियों में आस्तिकता एवं ईश्वर की नयी प्रगतिशील व्याख्या करना अनिवार्य हो गया है। पारम्परिक शब्दावली में इनसे वही भाव निकलता है जो आप्त वचनों की दुहाई देते हुए अगणित धर्मोपदेशक कहते रहते हैं। वस्तुतः आस्तिकता ईश्वरीय अनुशासन को कूट-कूटकर अपने चिंतन-चरित्र एवं व्यवहार में समाविष्ट कर लेने का नाम हैं। जो आस्तिक है वह भले ही मन्दिरों, पूजा-गृहों में न जाता हो पर यदि वह परमसत्ता का अनुशासन जीवन में उतारता है, जीवन सही ढंग से जीता है, सृष्टि को एक उद्यान मानते हुए माली की तरह उसकी सिंचाई करता है तो वह सच्चे अर्थों में आस्तिक है। नास्तिक तो वह हैं जो बाह्याडंबर कितने ही रचता हो, दिखता तो धार्मिक हो पर जीवन के किसी भी कोने से आदर्शवाद, सच्चरित्रता, उत्कृष्टता का एक अंश भी न झलकता हो।

ईश्वर वह निराकार ब्राह्मी सत्ता है जो सत्प्रवृत्तियों के, आदर्शों के, सद्गुणों के, श्रेष्ठता के समुच्चय के रूप में तथा समष्टिगत अनुशासन के रूप में हमारे चारों ओर विद्यमान है। वह सत्ता हमें भले दिखाई न दे, हमारे रोम-रोम में बस कर हमें प्रतिक्षण अपने अस्तित्व का आभास कराती है। यदि ईश्वर की इस रूप में हमें सतत् अनुभूति होने लगे तो हमारे जीवन के क्रिया कलाप बदल जाएँगे हम सही अर्थों में आस्तिक कहलाने योग्य होंगे।


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