वारेन एस. स्मिथ नामक इंग्लैंड के एक विद्वान ने बर्नार्डशा के भाषणों को “रिलीजियस स्पीचेज ऑफ बर्नार्डशा” पुस्तक में संकलित किया है। इस पुस्तक में बर्नार्डशा के धर्म सम्बन्धित विचारों का उल्लेख किया गया है। एक भाषण में उन्होंने कहा था कि “यदि वास्तव में हम कुछ महत्वपूर्ण कार्य करना चाहते हैं तो हमारा कोई धर्म होना चाहिए। यदि हमारी सभ्यता को वर्तमान भयंकर स्थिति से निकालने के लिए कुछ किया जाना है तो यह ऐसे व्यक्तियों द्वारा किया जाना है जिनका कोई धर्म है।” उन्होंने यहाँ तक कहा कि “जिन व्यक्तियों का कोई धर्म नहीं होता वे कायर एवं असभ्य होते है।”
बर्नार्डशा के इन विचारों में धर्म की महत्ता एवं इस क्षेत्र की व्यापकता का प्रतिपादन स्पष्ट परिलक्षित होता है। धर्म का अर्थ होता है ‘कर्त्तव्य’। जिसको परम्परागत मान्यताओं, निर्धारित पूजा उपचारों तक सीमित नहीं किया जा सकता। कर्तव्यों में आदर्शों एवं सिद्धान्तों का उच्चस्तरीय पुट होता है। जिसे देशकाल की संकुचित सीमा में बद्ध नहीं किया जा सकता। सामयिक आवश्यकता के अनुरूप उसका स्वरूप गढ़ा जो जा सकता है, पर वह स्वरूप शाश्वत नहीं बन सकता जो प्रत्येक काल एवं परिस्थितियों में उपयोगी हो। धर्म के मूल में यदि कोई तत्व शाश्वत बन सकता है तो वह है- ‘‘श्रेष्ठ आदर्शों एवं सिद्धान्तों के प्रति गहन आस्था, सुदृढ़ विश्वास। जो वस्तुओं, व्यक्तियों अथवा परिस्थितियों से नहीं जुड़ा होता” पूजा, उपचार, देवी-देवता के माध्यम से इन्हीं तत्वों को उभारा-विकसित किया जाता है। जार्ज बर्नार्डशा ने धर्म को परोक्ष रूप से उच्चस्तरीय सिद्धाँतों एवं आदर्शों के रूप में ही स्वीकार किया एवं माना है कि धर्म अर्थात् आदर्शों एवं सिद्धाँतों के अभाव में कोई भी महत्वपूर्ण कार्य नहीं किया जा सकता तथा महान कार्यों में सफल होने के लिए धर्म का अवलम्बन लेना आवश्यक है।
धर्म के इस प्राण प्रतिपादन की उपेक्षा करने से वह मात्र परम्पराओं, कर्मकाण्डों, तथाकथित पूजा-उपचारों का साम्प्रदायिक जाल-जंजाल बन कर रह जाता है। मान्यताओं के दुराग्रह से कर्तव्यों की उपेक्षा होने लगती है। अन्धविश्वासों को पनपने एवं विकृतियों को घुसने का अवसर मिल जाता है। पिछले दिनों यही हुआ। धर्म के तत्वज्ञान-श्रेष्ठ आदर्शों एवं सिद्धाँतों की अवमानना हुई। फलस्वरूप धर्म साम्प्रदायिक विकृतियों से भर गया। इन विकृतियों ने नास्तिकता के प्रसार में भी योगदान दिया है। धर्म के महान लक्ष्य, स्वरूप एवं तत्त्वदर्शन के स्पष्ट न होने के कारण ही उसकी विकृतियों को देखकर कार्ल-मार्क्स जैसे विचारक कह उठे “धर्म सताये हुए प्राणियों का रुदन है। निर्दयी व्यक्तियों का हथियार है। गरीबों की अफीम है। इसमें विश्वास पिछड़ी सभ्यता का परिचायक है। मायावी एवं काल्पनिक सुख देने वाले ऐसे धर्म की अवहेलना करना प्रगति का चिन्ह है।”
कार्ल-मार्क्स के इन विचारों में धर्म की विकृतियों के प्रति आक्रोश स्पष्ट झलकता दिखायी देता है। इस कथन में धर्म के उस स्वरूप की अवमानना निन्दा की गई है जो व्यक्ति एवं समाज को दिग्भ्रान्त करता हो- परावलम्बी बनाता एवं भ्रम जंजालों में उलझाता हो स्पष्ट है कि विकृतियाँ धर्म का स्वरूप नहीं अपवाद हैं। जिनकी निन्दा हुई और सदा होनी भी चाहिए। किन्तु भूल यह हुई कि इन अपवादों को ही धर्म का स्वरूप मान लिया गया तथा कहा गया कि धर्म मनुष्य के लिए अनुपयोगी है। किसी भी वस्तु को तब तक अनुपयोगी नहीं ठहराया जा सकता जब तक कि उसके विषय में पूरी जानकारी न हो- तर्क, तथ्यों एवं प्रमाणों की कसौटी पर कस न लिया गया हो।
धर्म का क्षेत्र उतना ही विस्तृत है जितना कि यह ब्रह्माण्ड। व्यक्ति, समाज की सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप समाज का नेतृत्व करने वाले मनीषी कर्तव्यों, नियमों के आचार संहिता गढ़ते- बनाते हैं। नियमों उपनियमों से बना यह स्वरूप समाज की सामयिक आवश्यकता की पूर्ति करता है। इस दृष्टि से इस स्वरूप की भी अपनी महत्ता है। किन्तु यह सर्वकालीन, सार्वभौम नहीं हो सकता। आवश्यकता पड़ने, परिस्थितियों के बदलने पर उसे परिवर्तित भी किया जा सकता है।
समाज के कल्याण में लगे समाज सेवी, देश की सीमाओं पर डटे प्रहरी, समाज की साधन-सुविधा के अभिवर्धन के प्रयत्नों में निरत वैज्ञानिक भी धार्मिक ही कहे जायेंगे। भले ही इनका विश्वास किसी सम्प्रदाय देवी-देवता में न हो। अपने कर्त्तव्यों के प्रति अटूट आस्था एवं तदनुरूप प्रयत्नशीलता उनके धार्मिक होने का परिचालक है। समाज को श्रेष्ठ चिन्तन देने वाले विचारक भावनाओं को उद्वेलित विस्तृत करने वाले कवि, संगीतज्ञ, कलाकार क्या धार्मिक नहीं कहे जा सकते?
पाश्चात्य जगत के प्रसिद्ध विचारक “जॉन के अर्ड” अपनी पुस्तक “एन इन्ट्रोडक्सन टू फिलॉसफी आफ रिलीजन” में लिखते हैं “यह आवश्यकता नहीं कि धर्म के सिद्धान्तों को रूढ़िवादी अर्थों में लिया जाय। क्योंकि कितने ही व्यक्ति ऐसे हो सकते हैं जो इसमें विश्वास न करते हों। किन्तु धर्म की जो विशेषताएँ एक धार्मिक व्यक्ति के अन्दर होनी चाहिए वे उनके अन्दर विद्यमान होती हैं। उनकी विचारणा एवं क्रिया-कलापों में उच्चस्तरीय आदर्शों एवं सिद्धाँतों का समावेश होता है।” इस कथन में धर्म के व्यापक स्वरूप का ही प्रतिपादन है।
धर्म की महत्ता एवं उपयोगिता आज के बुद्धिवादी युग में तभी स्वीकार की जा सकती है। जबकि उसके स्वस्थ स्वरूप, लक्ष्य एवं निहित तत्व-दर्शन को जन-सामान्य के समक्ष रखा जाय। धर्म सम्प्रदाय के सिद्धान्तों में जब तक मतभेद बना रहेगा तब तक वह अपनी गरिमा नहीं प्राप्त कर सकता।
धर्म के तत्त्वदर्शन में एक रूपता होना अनिवार्य है। अनुपयोगी, अविवेकपूर्ण सिद्धाँतों, मान्यताओं के प्रति दुराग्रह का मोह छोड़कर स्वस्थ रीति-नीति अपनानी होगी। सिद्धाँतों में सार्वभौमिकता होने से ही विचारशील वर्ग उसे स्वीकार कर सकेगा। ऐसी स्थिति में धर्म क्षेत्र में भी वैज्ञानिक अन्वेषण की ही विधि अपनानी होगी। वैज्ञानिक चाहें एशिया के हों अथवा यूरोप के उनकी मान्यताओं, नियमों में एक रूपता है। विचारों सिद्धाँतों में समता है। परस्पर सहयोग की भावना भी इसी कारण है। जबकि हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी सभी के बीच परस्पर मतभेद है। विज्ञान की तरह धर्म के सिद्धाँतों में एक रूपता नहीं दिखायी पड़ती। परस्पर के मतभेदों के कारण ही आज का बुद्धिजीवी धर्म से दूर भागता, अवहेलना करता है, तथा कहता है कि धर्म अपने सजातियों को नहीं जोड़ सका तो अन्यों को क्या दे सकेगा। यह लाँछन अकारण नहीं है। मतभेदों पर विचार करने पर पता चलता है कि इसका प्रमुख कारण है- अपनी मान्यताओं के प्रति दुराग्रह- धर्म के कलेवर के प्रति अनावश्यक मोह।
धर्म को प्रत्येक क्षेत्र में उपयोगी सिद्ध करने कल्याणकारी बनाने के लिए उसके लक्ष्य, तत्त्वदर्शन एवं सृजनात्मक स्वरूप को जन-सामान्य के समक्ष रखना होगा। भ्रान्त धारणाओं को अलग कर स्वस्थ, पवित्र एवं परिष्कृत स्वरूप को प्रस्तुत करना होगा। उसके साथ विवेक का एक और पंख लगना होगा। विचारशीलता ने विज्ञान को सत्यान्वेषी बनाया है, फलतः अनुपयोगी, असत्य मान्यताओं के झाड़-झँखाड़ कटते चले गये। स्वस्थ तथ्यों को पौधों के समान भली-भाँति फलने-फूलने का अवसर मिला। वर्तमान वैज्ञानिक उपलब्धियाँ उन्हीं विवेक सम्मत विचारों की परिणति हैं।