सरिता के सुरम्य तट पर सुशोभित शिव मंदिर, पास ही घाट पर धोबियों के पत्थर पड़े थे। मंदिर में प्रतिष्ठित शिवलिंग और धोबी का एक पत्थर दोनों कभी एक ही पर्वत उपत्यिका से साथ-साथ चले थे। काल गति ने एक को शिव प्रतिमा बना दिया तो दूसरे को धोबी का पत्थर।
धोबी का पत्थर आत्महीनता अनुभव कर दुःखी होता। एक दिन उसे रहा नहीं गया, शिवलिंग को सम्बोधित कर कहा- ‘‘तात! आप धन्य हैं। देव मन्दिर में प्रतिष्ठित हैं। भव बन्धनों से जकड़े प्राणी आपके पास आकर कितनी शान्ति, कितना सन्तोष अनुभव करते हैं। काश यह पुण्य सुयोग हमें भी मिलता।”
शिव-लिंग आत्म-प्रशंसा सुनकर गम्भीर हो उठे बोले “तात! आपका दुःख करना निरर्थक है। आप नहीं जानते हम तो मात्र आने वाले लोगों को क्षणिक शाँति ओर शीतलता प्रदान करते हैं। आप तो निर्विकार भाव से हर किसी का मैल धोते रहते हैं। आप की साधना धन्य है, मेरे पास आने की प्रथम कसौटी तो आप ही हैं। इसलिये जब लोग मेरी उपासना करते हैं, तब मैं आपकी किया करता हूँ।
घाट का पत्थर गदगद हो उठा और दुगुने उत्साह से लोगों का मैल धोने लगा।