जीवित रहते मौत न आने दे।

September 1981

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मृत्यु वे विषय में अनेकानेक भ्रांतियां हैं। जीवन के इस पटाक्षेप के रहस्य को जानने समझने की सहज अभिलाषा मानव को आदि काल से रही है। मनुष्य क्यों वृद्ध होता है, उसकी मृत्यु किस कारण से होती है, मरणोपरांत क्या यह जीवन यात्रा इसी काया के साथ समाप्त हो जाती है, यह वैज्ञानिकों के लिए ज्वलन्त प्रश्न बना हुआ है। क्या अमरत्व प्राप्त करना संभव है, यह आज के वैज्ञानिकों के शोध का मूल-विषय है। इसी कारण मृत्यु की जैवरासायनिक एवं जैवभौतिकीय पृष्ठभूमि का पता लगाया जा रहा है।

एक तथ्य फिर भी सुनिश्चित है कि मृत्यु की परिभाषा अब तक संभव नहीं हो पायी है। एक मान्यता तो यही चली आयी है कि जब नाड़ी की गति मन्द होते-होते रुक जाये, रोगी श्वास लेना बन्द कर दे, उसे मृत घोषित कर देना चाहिए। एक पुराना तरीका यह भी था कि नाक के सामने शीशा रखकर साँस से उठने वाली भाप की उपस्थिति से व्यक्ति के जीवित होने की स्थिति बताई जाये। परन्तु नवीनतम शोधों, उपलब्ध तकनीकी ज्ञान व मानव की तथ्यान्वेषी बुद्धि ने इस निष्कर्ष पर पहुंचने को विवश कर दिया है कि मस्तिष्क की महत्ता ही सर्वोपरि है। मस्तिष्क की मृत्यु ही वास्तविक मृत्यु है।

‘क्लिनिकल डेथ’ अर्थात् डाक्टरी मृत्यु उसे कहते हैं, जिसमें सामान्य जाँच पड़ताल के बाद यह घोषणा कर दी जाये कि हृदय संस्थान ने अब काम करना बन्द कर दिया है। काफी समय तक इसे ही मृत्यु का प्रतीक माना जाता रहा। कई ऐसे मामले आये, जिसमें मृत व्यक्ति कुछ देर बाद गहरी साँस लेकर पुनर्जीवित हो गया। अन्तिम यात्रा को जा रही लाश में एकाएक कम्पन हुआ और वह उठकर बैठ गयी। चिकित्सक द्वारा प्रामाणित मृत व्यक्ति जब पोस्ट मार्टम के लिए पहुँचाया जा रहा था, उठकर बैठ गया और पूछा बैठा, “मुझे कहाँ ले जाया जा रहा है।” इन सब की वैज्ञानिक तह में जाने पर चिकित्सकों ने मृत्यु की परिभाषा का पुनर्निर्धारण किया। उपरोक्त घटनाओं को गुह्य अथवा रहस्यमय न मानकर यह बताया गया कि हृदय काम करना बन्द भी कर दे तो भी मृत्यु तब तक नहीं होती, जब तक मस्तिष्क जीवित है, उसकी कोषाओं में विद्युत सक्रिय तरंगें विद्यमान हैं। हृदय की मृत्यु ‘कार्डियक डेथ’ है। मस्तिष्क की मृत्यु ‘सेरिवल डेथ’ एवं कोषाओं की मृत्यु ‘सेल्युलर डेथ’। सेरिवल डेथ की अंतिम पड़ाव है जिसका बाहरी स्वरूप मस्तिष्कीय तंरगों (इलेक्ट्रो एनसेफेलोग्राम) की समाप्ति के रूप में दृष्टिगोचर होता है।

मस्तिष्क की मृत्यु ही अंतिम सत्य है, यह चिर-पुरातन अध्यात्म प्रतिपादन है। कहा गया है कि मस्तिष्क एक प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष है। जीवन की सक्रियता एवं स्फूर्ति मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर निर्भर है। व्यक्तित्व का सारा कलेवर यहीं विनिर्मित होता है। यही वह पावर हाउस है, जहाँ से शारीरिक इंद्रियां शक्ति प्राप्त करती हैं। स्थूल गतिविधियाँ ही नहीं, विचारों भावनाओं का नियंत्रण, नियमन भी यहीं होता है।

विचार यदि जीवित हैं तो मस्तिष्क भी जीवित है। जो व्यक्ति जीवित रहते हुए अपनी क्षमताओं का पूर्ण उपयोग कर लेता है, वह स्वयं का तो विकास करता ही है, समाज का सम्मान भी पाता है। यही मस्तिष्क जब विचार शून्य हो जाता है, उसकी सोचने समझने की क्षमता नष्ट हो जाती है अथवा कोई भी स्वतन्त्र निर्णय लेने में मनुष्य स्वयं को असमर्थ ही पाता है तो उसे मृतवत् ही कहा जाना चाहिए।

बालक की विकास अवस्था में प्रारंभिक वर्षों में (तीन से बारह वर्ष तक) सर्वाधिक वृद्धि स्थूल दृष्टि से उसके मस्तिष्क की होती है। उसके मस्तिष्क का व्यास बढ़ जाता है। स्थूल दृष्टि से विकास की गति तीव्र होते हुए भी हर दृष्टि से यह बालक परावलम्बित ही होता है। विचारों की दृष्टि से वह परिपक्व नहीं होता, तब तक स्वतंत्र निर्णय बुद्धि उसमें नहीं विकसित होती। स्नायु विज्ञानी बताते हैं कि इस आयु के बाद मस्तिष्क का स्थूल विकास तो रुक जाता है, पर उसमें सूक्ष्म क्षमताएँ विकसित होने लगती हैं। भावपरक संवेदनाएँ, अपने पराये का ज्ञान, विपरीत लिंग के प्रति सहज आकर्षण, जीवनोद्देश्य-इन सब का उसे भान होने लगता है। उत्साह, स्फूर्ति, उमंग, बुद्धि हर दृष्टि से युवा सम्पन्न होता है। पर इस उपलब्धि को बनाये रखने के लिए उसे अपना मस्तिष्क सतत् क्रियाशील, जीवन्त बनाये रखना होता है। स्थूल तरंगों का मापन कुछ भी निर्णय दे, समग्र विकसित मस्तिष्क ही किसी के सही अर्थों में जीवित होने का प्रमाण देता है।

यह तथ्य सुनिश्चित समझा जाना चाहिए कि यह जीवन मस्तिष्क से ही आरम्भ होता है एवं मस्तिष्क पर ही समाप्त हो जाता है। चिकित्सा जगत में ‘क्लीनिकल मृत्यु’ के विषय में सबसे महत्वपूर्ण परीक्षण सोवियत चिकित्सक डा. वी. नेगोवस्की ने किए हैं। उनके अनुसार मृत्यु एक अकस्मात् होने वाली घटना नहीं, धीमी प्रक्रिया है जिसमें जीव कोष धीरे-धीरे मृत्यु की ओर बढ़ते हैं। मस्तिष्कीय मृत्यु (सेरिमल डेथ) तो प्राणी का जीवित रहने के लिये किया जा रहा अंतिम संघर्ष है। इस तरह अंतिम सत्य मस्तिष्कीय कोषाओं में सतत् चल रहा जीवन स्पन्दन है। जब वह समाप्त हो जाता है तो इस पार्थिव काया का भी अन्त हो जाता है।

परन्तु इन सबके मूल में जो सूक्ष्म सत्य अंतर्निहित है, वह विशिष्ट ही है। जीवित व्यक्ति में मृत्यु की विभीषिका अनेकानेक परिस्थितियों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। ‘सिफिलिस’ नामक यौन रोग की अन्तिम अवस्था में मस्तिष्क के बुद्धि, सामाजिक व्यवहार, संवेदना वाले केन्द्र मृतप्राय हो जाते हैं। इसी तरह ‘सठियाना’ रोग नहीं, एक स्थिति है। जब व्यक्ति की चिंतन क्षमता समाप्त हो जाये, नागरिक कर्तव्यों की छोटी-छोटी बातों का उसे ध्यान न रहे, उसकी स्थिति गयी बीती हो जाती है। जीवित होते हुए भी मृतवत् वह अपनी लाश ढोता है। डिप्रेशन, न्यूरोसिस, साइकोसिस, ऐसे रोग हैं, जिनमें शारीरिक दृष्टि से पूर्ण स्वस्थ होते हुए भी मनुष्य का अस्तित्व नहीं के बराबर होता है। एक बेचारा, जो सारा दोष परिस्थितियों को देता रहता है। किसी तरह अपनी जीवन की गाड़ी चलाता रहता है, वह दार्शनिक दृष्टि से मृत्यु की ओर अग्रसर होता माना जाता है।

हमारे मस्तिष्क की संरचना लगभग उसी स्तर की है, जैसी पृथ्वी के ध्रुव प्रदेशों की। इसके सामान्य से दिखने वाले कण वस्तुतः अनोखे चुंबकत्व से भरे पड़े हैं। उत्सर्जित विद्युतीय ऊर्जा को यों तो ई.ई.जी. द्वारा मापा जा सकता है। परन्तु वह उस पूरी शक्ति सम्पदा का मात्र कुछ हिस्सा ही है। शेष ऊर्जा तो चेतना स्तर की होने के कारण याँत्रिक पकड़ एवं परख से बहुत आगे की है। अनेकों जर्मन एवं स्विस वैज्ञानिकों ने वर्षों तक असाधारण प्रतिभा वाले व्यक्तियों का अध्ययन कर मात्र यह पाया है कि मस्तिष्क के दोनों हिस्सों की कार्टेक्स संरचना में कुछ अन्तर होता है। वैसे भी यह विभिन्नता अलग-अलग व्यक्तियों में सामान्यतः देखने में आती है। वस्तुतः मानसिक क्षमता, चारित्रिक दृढ़ता, संवेदनाएं, उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कार्या को करने की जीवट आदि विषय स्थूल मस्तिष्क के नहीं हैं। चेतना की परिधि में आने वाली इन विशिष्टताओं का विशद अध्ययन परामनोवैज्ञानिक कर रहे हैं। इन सबके निष्कर्ष यही हैं कि प्रस्तुत शक्तियों का जागरण एवं मानसिक क्षमताओं का पूर्ण उपयोग ही जीवन की समस्त सफलताओं का मूल है। यही जीवन है।

मस्तिष्कीय मृत्यु को जैविक दृष्टि से भले ही सब वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया हो। भारतीय अध्यात्म का यह सनातन प्रतिपादक रहा है। इस तथ्य को जिनने समझ लिया, वे सफल, समर्थ, समाजोपयोगी जीवन जीकर महामानव का पद पा गए। इसी जीवन में स्वर्गमुक्ति का यह राजपथ प्रत्येक के लिए खुला पड़ा है। यदि चाहें तो वह मस्तिष्क का समग्र विकास कर देवत्व की अनुभूतियों का रसास्वादन कर सकता है। इसके विपरीत जीवित लाश की तरह जीकर भर्त्सना का पात्र भी बन सकता है। यही इस पृथ्वी का स्वर्ग-नरक है। इस जीवन की परिणति किसी भी रूप में होती हो, उसे किस तरह जिया गया, यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।


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